बापू और मैं–005: जागरण संदेश 

01-12-2023

बापू और मैं–005: जागरण संदेश 

डॉ. आरती स्मित (अंक: 242, दिसंबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

“ये घोड़े बेचकर क्या सो रही है! क्या तीन दिन का समय देकर यही पाया तूने?” 

गाल की जगह कान में झापड़ की तरह झन्नाटेदार स्वर पड़ा तो नींद क्या, ख़ुमारी भरी अलसाई आँखें भी झट खुल गईं और चौकस दृष्टि दौड़ाने लगी, मगर आसपास कहीं कोई बदलाव नहीं दिखा। बग़ल की सीट पर बैठी लड़की अब भी इयरफोन लगाए अंग्रेज़ी फ़िल्म देखने में तल्लीन थी। आस-पास की सीटों पर जगे हुए मोबाइल की तरंगें पूरी बोगी में आवाजाही कर रही थीं। सिर्फ़ मेरा तो नहीं, मेरे ही जैसे कुछ पिछड़े यात्रियों के मोबाइल भी गहरी नींद में थे। और शायद, वे यात्री भी मेरी तरह अपनी अधूरी नींद इस चेयरकार में पूरी कर समय का सदुपयोग करने की कोशिश में थे। 

मैंने ज़रा उचककर पीछे मुड़ते हुए, माहौल का जायज़ा लेना चाहा कि चिर-परिचित खिलंदड़ी हँसी फिर सुनाई दी। 

“अरी! कहाँ ढूँढ़ रही है इधर-उधर? क्या तूने भी समारोह की समाप्ति के साथ मुझे किनारे कर दिया या मुझसे किनारा कर लिया?” फुसफुसाहट उभरी। 

मैं सीधी बैठ गई। आँखें बंद कर, पड़ी रही। मन करवट बदलता रहा, ‘बापू थे। बापू ही थे . . . उन्हें सामने नहीं आना था, सो नहीं आए। जगाने आए थे, जगाकर चले गए। सच ही तो कहा उन्होंने। उनके नाम पर समारोह हुआ। धूम मची। खाना-पीना, मौज-मस्ती, सब कुछ—सब ही कुछ!’ 

मैंने इस बार ठान रखा था, संगोष्ठी नहीं कार्यशाला है तो बापू के दर्शन पर व्याख्यान की जगह, व्यवहार में उतारकर, अपने भीतर उनकी उपस्थिति दर्ज़ करूँगी ताकि कार्यशाला में आए प्रशिक्षु बापू के विचार और व्यवहार में एकरूपता देख-समझकर अमल में ला सकें। मेरे लिए भी यह नया प्रयोग था। आतिथ्य सत्कार पाने की अपेक्षा सहज सेवा भाव और सरलतम जीवन शैली बनाए रखना। मगर, ये व्यावहारिक बातें हाशिये पर टँग गईं और टँगी ही रहीं। आकर्षण के केंद्र में उछाले जा रहे शब्द ही रहे। कुछ वे बातें भी, जो बहुत पहले अन्य संगोष्ठियों में मेरे द्वारा रेखांकित की जा चुकी थीं और उन बातों को जीने की भरपूर कोशिश भी रही थी। बहरहाल, उस कालखंड में, उस परिवेश में, उस बिंदु पर अतिथि वक्ता से अधिक श्रोता, उससे भी अधिक साक्षी बनने और गहराई से महसूसने, चिंतन करने और फिर किसी निर्णय पर पहुँचने का मैंने संकल्प किया था। अनुमान था, इसका तत्कालीन परिणाम निराशाजनक होगा, मगर परवाह नहीं थी। कार्यक्रम के दौरान भी बापू लगातार चेताते रहे। सच के उजास में झूठ का भोंडा नृत्य, उनके जीवन-मूल्यों का खंडन मेरी इन आँखों के सामने था। अंतिम दिन, बापू टिक नहीं पाए जब शराब की गंध लगी, जब अपने नाम पर समारोह में आई भीड़ को पिकनिक के मूड में देखा; जब सेवाभाव की जगह ‘मैं-मैं’, ‘मेरा-मेरा’ का अनकहा स्वर शोर बनकर शान्ति भंग करने लगा। सच यही था, बापू को रम्य स्थल प्रिय था। आयोजक के श्रम और भाव को उन्होंने सराहा भी और मेरे संकल्प को सुनकर मुस्कुराए भी। उन मेहमानों को देखकर भी ख़ुश हुए, जो सच्चे मन से आए और अपने विचार-व्यवहार में सादगी बनाए रखी। मगर, शेष भीड़! क्या तलाशने आई थी वह? क्या पाकर लौट जाना चाहती थी? उनके आने का प्रमुख उद्देश्य क्या था? क्या वह पूरा हुआ? . . . कई प्रश्न हवा में तैरते रहे थे और उन प्रश्नों से कुम्हलाते मन को ताज़गी से भरने का एकमात्र उपाय था, कुछ देर एकांतवास। प्रकृति ने अपनी शान्ति और सुंदरता से मन को नई ऊर्जा से भर दिया। समारोह समापन के बाद कसक रह ही गई थी चीख-चीखकर कहने की—बापू शब्दों में नहीं, व्यवहार में बसते हैं/विचार में बसते हैं। अपने विचार-व्यवहार को उनके अनुरूप बनाओ। सत्याग्रह केवल आंदोलन का रूप नहीं, जीवन में सत्य धारण करने के अति विराट् /अति सूक्ष्म अर्थों में है। . . . नहीं कह पाई। कहने-समझाने की इच्छा नहीं हुई। “भैसों की संख्या अधिक हो तो भला बीन बजाने से क्या लाभ!” 

गाड़ी रुकी। गंतव्य स्थल आ चुका। स्टेशन पर भी निगाहें बापू को तलाशती रहीं। 

मेज़ पर ‘मेरे सपनों का भारत’ पुस्तक पड़ी देखकर याद आया। जाते हुए उसे अलमारी में रखना भूल गई थी। ‘अनूठा महात्मा’ के खंडों से निकल-निकलकर सारी घटनाएँ कमरे में अधिकार जमाए नज़र आईं। मैंने चाहा कि एक-एक कर उन्हें फिर किताब में तहियाकर/सहेजकर रख दूँ, मगर वे तो जैसे मुझे झकझोरने को ही तैनात की गई थीं। और मेरा अनुमान सही निकला। बापू की तस्वीर से स्वर झर रहे थे . . . मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। तुमने उस संदेश को सुना-समझा, फिर चुप क्यों रही? क्यों नहीं सत्याग्रह का अर्थ समझाया? क्या अब भी तुम्हारी समझ खोखली है? 

“ओह! बहुत हुई लुका-छिपी। बापू, अब सामने आ भी जाइए। यह जी-२० का समारोह नहीं है कि पुतले बने आप मुस्कुराते रहें और वहाँ सत्य/अहिंसा और विश्वग्राम की नेक संकल्पना को आकार देने आए ताली बजाने वाले कुछ प्रभुत्वशाली हाथ युद्ध के लिए अपनी सेना को आदेश देने को उठते रहें। सत्य और अहिंसा की चिता कितनी बार जलाई जाएगी? कितनी बार सैन्य और आयुध शक्ति का अहंकार हिंसक होगा और निर्दोष नागरिक मारे जाएँगे? राजनीतिक गर्म हवा से सिर्फ़ और सिर्फ़ आम जनता और बेचारे सैनिक बेमौत मरते हैं। कब रुकेगा यह तांडव? विश्व परिवार है तो परिवार के किसी सदस्य को हिंसक होने और बने रहने की अनुमति किसने दी है? बाक़ी सदस्य भी तमाशबीन बने हैं, आततायी के उस हाथ को बाँध क्यों नहीं रहे? . . . अब आप कहेंगे, हाथ बाँधना भी हिंसा है।” 

“इतना क्षोभ! इस क्षोभ को नष्ट मत होने देना।” 

“बापू!!” 

“हाँ! सही कह रहा हूँ। यह क्षोभ ही आतंरिक ऊर्जा को जन्म देगा। . . . मगर देख रहा हूँ तू तो सोशल मीडिया से चिपकती जा रही है, देश-दुनिया की ख़बर भी है तुझे? लगता नहीं विश्व का दर्द तुझे सालता भी है!” बापू के तंज़ में छिपा दर्द पिघलने लगा। 

“आपको ऐसा लगता है?” 

“मेरे लगने, न लगने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?” उनका क्षोभ तारी रहा। 

“पानी लाऊँ? फिर कोकोआ बनाऊँगी। आपको पसंद है न!” बात का रुख़ बदलने की ग़रज़ से मैंने कहा। 

“पानी-पानी ही तो हो रहा हूँ। तुझ पर जो ज़िम्मेदारी सौंपी थी, देख रहा हूँ, तेरे कंधे कमज़ोर पड़ते जा रहे हैं। मेरी उम्मीद . . .” 

“बापू!!” मैं तड़प उठी, “क्या भूल हुई मुझसे?” 

“भूल हुई नहीं, हो सकती है। तू तंद्रा में जाती दिख रही है। कब यह तंद्रा घोर निद्रा में बदल जाएगी, तुझे पता ही नहीं चलेगा। फिर, जब तू ही चैतन्य नहीं रहेगी तो औरों को कैसे जगाएगी?” 

“कुछ भी नहीं भूली हूँ बापू! हाँ, मैंने यह भूल ज़रूर की कि बीच के कालखंड में परिवार से जुड़ी ज़िम्मेदारियों को तवज्जोह दे दिया और विश्व परिवार के प्रति दायित्व ठीक से निभा नहीं पाई।” 

“तेरा परिवार इतना छोटा कब से हो गया?” 

 . . . . . . 

“चुप क्यों है? जवाब दे!” 

“मुझे माफ़ कर दीजिए बापू!” 

“सत्याग्रह के जिस अर्थ को तूने मेरे जीवन में तलाशा, उसे जन-जन तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया। क्या वह काग़ज़ पर लिख देने और किताब की शक्ल दे देने भर से पूरा हो गया?” 

 . . .

“मुझे ‘अनूठा महात्मा’ बना दिया, मगर इससे कितनों के जीवन में बदलाव आया?” 

“मेरे हाथ में यही था बापू! मैंने ईमानदार कोशिश की कि सत्याग्रह को उसके मूल अर्थ के साथ जीवन में उतारूँ और समाज को आपके जीवन के वे पल, वे प्रसंग दिखाती हुई समझा सकूँ कि भले ही आपने ‘सत्याग्रह’ शब्द का पहला प्रयोग १९०६ में किया, लेकिन इसे धारण तो बचपन से किए रहे। पाँच वर्ष की उम्र में पहली और आख़िरी बार झूठ बोलना क्या कोई साधारण बात है? एक छोटा और साधारण-सा प्रसंग उस नन्ही उम्र में आपको सत्यनिष्ठ बना जाता है और आपके सच्चे संकल्प के कारण वह समय अपने आप असाधारण हो जाता है। ऐसे कितने ही तो प्रसंग भरे पड़े हैं जब सत्य को सत्य साबित करने के लिए आपने परेशानी उठाई, तनाव झेला। अनूठे नहीं तो क्या हैं आप जो अपने से जुड़ी, छिपी हुई ज़रा-ज़रा-सी बात को उजागर किए बिना चैन नहीं पा सके। उधार करसन भाई ने लिए, उनके बदमाश दोस्तों से उन्हें बचाने के लिए आपने उनके सोने के कड़े में से रत्ती भर सोना बेचकर उन्हें क़र्ज़ से मुक्ति दिलाई। करसन भाई तो मगन रहे मगर आप तब तक पश्चाताप करते रहे, जब तक अपने बापू को सब कुछ बताकर माफ़ी न माँग ली। इतना पवित्र व्यक्तित्व जिसने सत्य को पा और जीवन में उतार लिया हो—इससे बेहतर उदाहरण कहाँ पाती समाज के चरित्र निर्माण के लिए। यदि पूरी आबादी का एक संतुलित हिस्सा भी अपने आपको बदलने और सत्यनिष्ठ होने तैयार हो तो हर परिवार से एक नया सच्चा समाज रचयिता मिल सकेगा। जब तक लोभ और स्वार्थ से भरी सोच नहीं बदलेगी तब तक . . .।” 

“तुझे लगता है, तेरा उद्देश्य पूरा हुआ? आम जन इस बात को समझ पाया?” बापू गंभीर हुए। 

“बापू, जब आपको, आपकी बातों को आपके समझाने पर भी लोग समझ नहीं पाए तो यह सदी तो विज्ञान और तकनीक की ही नहीं, भौतिकता के चरम, आडंबर के उत्कर्ष और आत्मिक अंधकार को न पहचान पाने की धरोहर पाने वाली सदी है। वर्तमान के काँधे पर इतिहास को तोड़-मरोड़कर रखा जाता रहा है, जिसमें मिथक तत्त्व अधिक रहे और आम जन बिना पड़ताल किए उसे सच मानता आ रहा है।” 

“जानता हूँ।” 

“फिर, आप ही बताइए, कैसे जगाऊँ उन्हें? कैसे समझाऊँ कि उन्हें अपने आपको बेहतर और श्रेष्ठ बनाना है और इसके लिए सत्य-अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए, बिना किसी प्रकार की हिंसा किए, अपनाए या समर्थन दिए, अन्याय और अनैतिकता का विरोध करें। यह हर एक नागरिक का हक़ है। मगर बापू! अपने ही देश में, अपने ही लोगों द्वारा अहिंसा की राह पर चलते लोगों पर क्या झूठे मुक़द्दमे नहीं ठोके जाते रहे? उनका जीवन दूभर नहीं किया जाता रहा? और तो और सच बोलने के कारण उन्हें देशद्रोह का दंड नहीं दिया गया?” 

“क़ीमत तो चुकानी पड़ेगी। गंदगी हटाकर नदी के जल को स्वच्छ और पेय बनाना है तो गंदगी में उतरकर ही उसकी सफ़ाई करनी होगी। तल में जमे विषाक्त पदार्थ को हटाए बिना सतही खर-पतवार, काई-शैवाल, सड़े पत्तों-फूलों को हटाने से बात नहीं बनेगी। उतरना पड़ेगा। उतरना ही पड़ेगा! चाहे कितनी गहरी नींद हो उनकी, जगाना पड़ेगा। यही देश विश्व को सत्याग्रह की शिक्षा देने योग्य है। यही विश्व में शान्ति लाएगा। इसे जगाना ही होगा। इसके भीतर फैले अँधेरे को मात्र दीया जलाकर नहीं, सूरज लाकर दूर करो। सूरज ही नई भोर लाता है। तुम अपने भीतर उतरो, जाँचो, परखो! देखो, अब भी तुम्हारे भीतर कहीं, कोई कोना अँधेरे की चपेट में तो नहीं रह गया? कोई सवाल? किसी भी तरह का कोई भय? जब तक भय है, तब तक पूर्ण समर्पण नहीं हो सकता! बलिदान का अर्थ महज़ सिर कटाना नहीं होता, सत्य के उजास को पाने और फैलाने के लिए ख़ुद को ख़ुद ही खपा देना भी होता है। यही सत्याग्रह है।” 

मेरा सिर झुकता चला गया। शब्द खो गए। क्या कहूँ, कुछ समझ नहीं आया। बापू आगे बढ़े और लज्जा से झुके सिर पर स्नेह भरा हाथ रख दिया। होंठ हिले। शब्द सुनाई दिए, “अपने लिखे पर विश्वास रखो। उन पंक्तियों को तो मैं भी गाता हूँ।” 
“? ?” 

“माना घना कुहरा है
पर अर्थ नहीं 
कि 
सूरज नहीं उगा है . . .” 
 . . .

“तू अपने विश्वास को डिगने मत दे। सूरज तो उगा हुआ है ही, कुहरे को दूर करना है। होगा, ज़रूर होगा। जागरण का संदेश देने के लिए दुदुंभी बजाने की ज़रूरत भी नहीं। समय करवट ले रहा है। हौसला रख और जगी रहकर भोर का संदेश सुनाती चल। प्रकाश फैलने ही वाला है।” 

ऐसा लगा, कमरा दुधिया उजास से भरने लगा है। पलकें अपने आप मुँदने गईं। होंठ प्रार्थना के शब्द बुदबुदाने लगे . . . वैष्णव जन तो तेने कहिए . . . 

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