सुनहरी भोर
डॉ. आरती स्मितसुमि आँख मलती हुई बिस्तर पर उठ बैठी। उसने देखा, सुनहरी रोशनी खिड़की की जाली से भीतर आ रही है।
वह आँखें गोल-गोल कर देखने लगी। वह बिस्तर से उतरी और खिड़की के पास खड़ी हो गई। अब वह सुनहरी रोशनी में थी। उसे बहुत अच्छा लगा . . . नया-नया-सा। उसने दरवाज़ा खोला और बालकोनी में आ खड़ी हुई।
"हाऽऽऽ . . ." उसका मुँह खुला का खुला रह गया। “हर तरफ़ सुनहरी रोशनी!” वह नाच उठी।
“हलो सुमि।”
“कौन?” वह चौंकी।
“मैं उषा,” सुनहरी रोशनी उससे लिपटती हुई बोली। अब सुमि ने आसमान को देखा। पूरब का आसमान सुनहरा था, कुछ लाल-लाल वाला सुनहरा-सा! कुछ अलग!
“हाऽऽऽ” उसकी आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं।
“तो तुम आसमान से आई हो?”
“नहीं, सूरज से!” सुमि ने ग़ौर से देखा तो बहुत-बहुत . . . बहुत ही प्यारा सुनहरा गोला आसमान से उसे देख रहा था। रोशनी वहीं से आ रही थी।
“लेकिन सूरज तो सफ़ेद होता है। यह तो सुनहरा है!”
“हाहाहा!” उषा हँसी। “तुम देर तक सोई रहती हो, इसलिए उसे इस समय नहीं देख पाती और न ही मुझे!” वह फिर हँसी और बोली, “मैं तो तुम्हें रोज़ जगाती हूँ, मगर तुम्हारी नींद नहीं खुलती।”
“अंऽऽ?”
“अगर तुम रात को जल्दी सो जाओ, तो मेरे आने से पहले तुम्हारी नींद पूरी हो जाएगी।”
“ठीक! आज से मैं जल्दी सो जाऊँगी।”
“प्रोमिस?”
“प्रोमिस!” सुमि बोली।
“तो कल हम दोनों फिर साथ-साथ खेलेंगे प्यारी सुमि!” उषा उससे लिपटकर बोली और दूर तक फैल गई।
“ओ!कितनी प्यारी सुबह . . . सुनहरी-सुनहरी!!” सुमि मुस्कुरा उठी।
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