साँझ की रेख 

01-10-2022

साँझ की रेख 

डॉ. आरती स्मित (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“ओह! ये चैनल वाले भी न, जाने क्या-क्या न्यूज़ बनाते रहते हैं . . .” 

“क्या हुआ पापा?” 

“विश्व में दहशत पाँव जमाए ही है, हम अभी उबर भी नहीं पाए हैं कि मौत को फिर न्योता देकर बुला लिया। दक्षिणी अफ़्रीका से आए वे लोग चंडीगढ़ में पॉज़िटिव पाए गए। दिल्ली एयरपोर्ट पर क्या बिना चेक किए ही आने दे दिया था? उनकी वजह से और भी यात्री संक्रमित हुए होंगे! पता नहीं, अब तक कहाँ कैसा तांडव हुआ होगा? हर जगह की सही ख़बर मिलती भी तो नहीं! वैसे भी दिल्ली और मुंबईवाले सबसे अधिक झेल रहे हैं।” 

“सही कह रहे हैं। पिछली बार भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था।” 

“हम्म! यह जानते हुए भी कि संक्रमण वहाँ क़हर बरपा चुका है, स्पेशल फ़्लाइट भेजी गई थी। बिना समुचित व्यवस्था किए . . . भोगा किसने? . . . हमने . . . हमने गँवाए अपने जिगर के टुकड़े! किसी के सिर से छत हटी, किसी का आँचल सूना हुआ और कहीं-कहीं तो पूरा परिवार ही . . . कैसे भूल सकते हैं हम, जब बेरोज़गारी के कारण युवकों ने, दम्पतियों ने मौत को चुन लिया . . . कैसे . . .?” 

“पापा! हैव पेशेंस! इतना सोचेंगे तो आपकी तबीयत ख़राब हो जाएगी। वैसे ही आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रह रहा।” 

“मेरे कितने साथी चले गए! मैं चला भी जाऊँ तो क्या! जी चुका अपनी ज़िन्दगी। कर दिया जो करना था। पिछले दो वर्षों में जिस तरह ज़िंदगियाँ डँसी गईं, जिस तरह शहर श्मशान बने और जिस तरह उस क़हर के बीच भी नफ़रत के बारूद फटे, ओह! कहीं कोई उजाला नहीं दिखता। शब्द खो रहे हैं। मेरा कान्हा भी जाने कहाँ छिपा मुरली बजा रहा है!” 

“देखिए न, यहाँ लोगों को भी समझ नहीं आता। नए साल की पार्टी मनाने के चक्कर में केस अचानक बढ़ गए। डॉक्टर बेचारे अपनी जान जोखिम में डालकर कब तक झेलेंगे और कल ही आयुष कह रहा था कि सप्ताह भर के लिए क्लास ऑफ़लाइन रही, फिर ऑनलाइन कर दी गई है।” 

“मतलब, हॉस्टल से छुट्टी! अभी-अभी तो इतना रिस्क लेकर गया था, चार दिनों में बंद ही करना था तो खोला क्यों?” 

“ऐसे संस्थानों में ज़्यादातर बच्चे बाहर के ही होते हैं। केस बढ़ रहे हैं, ऐसे में बार-बार स्कूल-कॉलेज ऑफ़लाइन-ऑनलाइन की घोषणा से उनका जीवन भी ख़तरे में पड़ता है और वे झेल भी लें, परिवार के संपर्क में आएँगे ही, फिर एक से चार केस बनेंगे . . .। फिर भी, डरकर जीना नहीं छोड़ना है, यह आपने ही हमें सिखाया है। है न!” 

मुनमुन ने मेरे कंधे को स्नेहिल स्पर्श के साथ थपथपाया और मेरा सिर उसकी बातों को स्वीकारने के भाव से हिल गया। 

“. . . और हर समय ये टीवी देखना बंद कीजिए,” उसने मुस्कुराते हुए ताकीद की और सामने मेज़ पर पड़ी चाय की प्याली उठा ले गई। 

“हम्म!” गहरी साँस छोड़ता हुआ मैं स्टडी रूम में रखी अपनी कुर्सी पर सिर ज़रा पीछे कर, बैठ गया। पलकें मुँद गईं, दिमाग़ जाग गया। विचारों का रेला, बीते बरस की दुर्घटनाएँ, अमानवीय कृत्य सब एक-एक कर झकझोरने लगे . . . ‘छोटी दुकानों की बंदी, छोटे-मोटे होटलों की बंदी, चतुर्थ श्रेणी के कामगार, निजी संस्थाओं के कर्मचारी—सबके सब एक साथ भूख की त्रासदी झेलने पर विवश हुए। अस्सी बरस की उम्र में ऐसा कभी देखा-सुना न था। सन 46-47 में जो अमानवीयता देखी-भोगी, वह बचपन के कोमल मन पर दाग़ कर गया। उजड़ गए थे हम, छिन गया था सब . . . छूट गए थे संगी-साथी, बेज़ुबॉं हो गया था बचपन . . . मैं तब भी कुछ नहीं कर पाया और अब? अब भी क्या कर पा रहा? सौ-पचास घरों में राशन का सहयोग भी क्या सहयोग हुआ भला! काश, मैं कुछ अधिक कर पाता! कान्हा! मेरी विवशता देख रहो न तुम!” कोर के गीलेपन ने एहसास कराया कि मेरे भीतर जमा ग्लेशियर एक बार फिर पिघल रहा है। हाथ उठे और बूँदों को ढुलकने से रोक दिया। मगर, रह-रह कर कोर से बूँदों की ढुलकन गालों पर आने को आमादा रहीं। अब रहा न गया तो ज़बरन आँखें खोल, इधर-उधर निहारता हुआ हथेली से आँखों में रेत मलता रहा। 

♦    ♦    ♦ 

“पापा, चाय!” 

“थैंक यू बेटे!” 

“आपने आराम नहीं किया?” 

“जब चारों ओर आग लगी हो तो लपटों की छुअन से बचा नहीं जा सकता।” 

“आप इतना मत सोचिए। नया साल उम्मीदें लेकर आया है। अब तो केसेज़ भी घटने लगे हैं। मेरी ऑनलाइन क्लास का समय हो रहा है। मैं अपने कमरे में जा रही हूँ। आपको कुछ चाहिए तो नहीं?” 

“न-न बेटे! जाओ।” चाय की घूँट भरते-भरते उसे आश्वस्त कर, मैं मेज़ पर सलीक़े से रखी किताबों के बीच रखी अपनी पतली डायरी टटोलने लगा। 

“अच्छा हुआ जो तुम यह सब देखने से पहले चली गई सिम्मी! लगता है, मेरा भी यह आख़िरी बसंत ही है। फरवरी की यह गुनगुनी धूप और सेंध मारती ठंड . . .। सब आख़िरी . . .” डायरी के भीतर रखी तस्वीर को प्यार से सहलाते हुए मैंने उसे एकबारगी चूम लिया। “जल्दी ही आऊँगा। मेरा इंतज़ार करना। आऊँगा, आना चाहता हूँ, मगर ऐसे नहीं कि किसी से मिलना भी नसीब न हो, चलते-फिरते, लिखते-पढ़ते, मुस्कुराते हुए बसंत की तरह नई स्फूर्ति के साथ नए जीवन को स्वीकारना चाहता हूँ, दुनिया जिसे मौत कहती है . . .। तुमने भी तो कष्ट झेले, मगर मुस्कुराती रही। तुम चली गई तो मन अँधेरे की गिरफ़्त में आ गया। तुम्हारे ही दिए संस्कार हैं सिम्मी, जो बच्चे मेरी इतनी परवाह करते हैं। सबसे अधिक दायित्व तो मुनमुन ने उठा रखा है। मगर, मैं उसपर भी बोझ नहीं बनना चाहता, शरीर शिथिल होने से पहले दूसरी दुनिया का टिकट ले लूँ, यही सही . . .। तुम मुस्कुरा रही हो। क्यों न मुस्कुराओ तुम, शायद वहाँ स्थूल शरीर में बुढ़ापे के साथ-साथ बीमारियाँ तोहफ़े में नहीं मिलती होंगी, यहाँ तो दो बरस से घर बैठे-बैठे माटी का लोंदा हो गया हूँ। संक्रमण के डर ने ही हम बुड्ढों को आधी मौत दे दी है। मुनमुन डरती है, मुझे बचाकर रखती है, कहती है, ‘पापा, आपका होना ही हमारे लिए बहुत है’। क्या समझाऊँ उसे! बच्चे खेलते दिखाई नहीं पड़ते, बुज़ुर्गों की महफ़िलें बंद। मिलने-जुलने वालों का आना-जाना बंद। ज़िन्दगी रुक-सी गई है। इधर, उँगलियाँ क़लम पकड़ने से इनकार करती हैं, कमर देर तक बैठने से; सरवाइकल के अपने नख़रे हैं। फिर भी, तुम्हारा सर्वेश हार मानने वाला नहीं। सुन रही हो न तुम!” 

♦    ♦    ♦ 

“पापा, कुछ पढ़ रहे हैं?” 

“नहीं, गिन रहा हूँ।” 

“???” 

“बची हुई साँसें . . . मगर मैं इन हालातों में मरना नहीं चाहता।” 

“क्यों सोचते हैं इतना? कुछ नहीं होगा आपको। मैंने सब्ज़ी-फल और दूधवाले को बुक कर दिया है, वह दरवाज़े पर दे जाएगा। निक्की को छुड़वा दिया है, मगर सोच रही हूँ, उसके वेतन बंद न करूँ।” 

“सही सोचा है . . .। किसका फोन है बेटे, देख तो . . .” 

“उमेश अंकल का,” उसने फोन बढ़ाते हुए कहा। 

“नमस्कार! नमस्कार! कैसे हैं उमेशजी?” 

“जी अब तक बचा हूँ। आपका हालचाल लेने को फोन किया। कॉर्पोरेट की दुनिया ने घर के युवाओं को घर से काम करने की छूट तो दी, मगर काम का समय बढ़ा दिया और सैलरी में कुछ कटौती भी की है। जो स्टाफ़ निकाले गए थे, उन्हें वापस नहीं बुलाया गया। अब वे घर पर होकर भी दफ़्तर में ही होते हैं और उनके बच्चे टूअर की तरह . . .। उनके बचपन को नज़र ही लग गई हो मानो,” उमेश मिश्रा की बुझी-बुझी आवाज़ आई। 

“आप अपना हाल भी बताइए।” 

“मैं . . . क्या बताऊँ सर! मिलना-जुलना होता था तो जीवन में ऊसरपन बना रहता था, अब तो भूसे के ढेर-सा पड़ा रहता हूँ। भूसे की भी उपयोगिता है, हमारी तो . . .” हल्की कराह उभरती-उभरती दब-सी गई, फिर सँभली आवाज़ उभरी, “मुनमुन बिटिया कैसी है?” 

“अच्छी है।” 

“अच्छा सर, फिर बात होती है,” उसने हड़बड़ाकर कहते हुए फोन काट दिया। 

‘झटके से फोन रख दिया। क्या बात हुई होगी?’ मन उमेश मिश्रा की ज़िन्दगी में उलझने लगा। ‘दो अफ़सर बेटों का बाप, ख़ुद अपने ज़माने का नामी रंगमंच कलाकार, कोई सरकारी नौकरी भी थी शायद। पहले थियेटर छूटा, फिर रिटायरमेंट के बाद उसे कभी खुलकर हँसते नहीं देखा। भरा-पूरा परिवार है, फिर भी कितना अकेला-सा! उमेश मिश्रा जैसे कितने ही साथियों को जीवन के पतझड़ से जूझते, अनकही चोट झेलते देखता हूँ तो कसक-सी उठती है। ओह! कान्हा, कहाँ हो तुम?’ 

कुर्सी का हत्था पकड़कर उठने की कोशिश में कमर की हड्डी ने फिर बग़ावत कर दी। ‘क्या करूँ? मुनमुन को आवाज़ दूँ? नहीं, वह क्लास ले रही होगी’। मैंने फिर कोशिश की तो टेल बोन से लेकर ऊपर तक रीढ़ की हड्डी में दर्द की लहर दौड़ गई। अनायास कराह फूट पड़ी। पाँव थिर न होते, मगर अब बुढ़ापे में पेशाब लग जाए तो रोकना मुश्किल होता है। कितनी देर रोक पाऊँगा!

♦    ♦    ♦ 

“पापा, आर यू ओके?” 

“हम्म! बिल्कुल ठीक हूँ, बाक़ी बुढ़ापे का शरीर है तो उठा-पटक चलती ही रहती है।” 

“मुनमुन बता रही थी, इधर कुछ दिनों से उखड़े-उखड़े से हो। आज लंच भी बेध्यानी में किया और बिस्तर पर भी पड़े ही रहे, सो नहीं पाए।” 

“असित, इतनी फ़िक्र न कर कि मुझे मेरी ही नज़र लग जाए।” 

“आप बात टालिए मत पापा, प्लीज़। कोई बात हो तो हमें बताइए। मुनमुन आपके पास है तभी हम भी निश्चिंत हैं।” 

“कोई बात नहीं बेटे! सच्ची। जीवन के उतार-चढ़ाव सिर्फ़ अपने ही नहीं होते, औरों के भी होते हैं जो कहीं न कहीं मुझे गिरफ़्त में ले लेते हैं। हर एक को तुम जैसे बच्चे नसीब नहीं,” मैं भरसक मुस्कुराने की कोशिश करता रहा। 

“हालात सुधरे तो मैं आपको यहाँ ले आऊँगा। आपका थोड़ा मन बहल जाएगा और हमें भी आपका साथ मिल जाएगा। तब तक अपना ध्यान रखिए।” 

 “डन।” मैंने हँसकर बात ख़त्म की और फोन मेज़ पर रखकर बालकनी की तरफ़ बढ़ा। धूप के पंख समेटती साँझ जब अपनी आभा की डोर सूरज को सौंपती है, उसे निहारना मुझे सुकून देता है। यहाँ मेरी सोच को पंख लग जाते हैं। पूरा आसमान भीतर उतर आता है। ख़ासकर इस मौसम में, जब ज़मीन को चूमते ताम्बई-पीले औंधे मुँह पड़े होकर भी पेड़ की शाख़ पर उग रहे कोंपल को भरपूर जीवन जीने की दुआएँ भेजते हैं। पतझड़-बसंत के मिलाप का यह नज़ारा खींचकर बचपन की तरफ़ ले जाता है। आसिफ़ के साथ उन सूखे ताम्बई-सुनहरे पत्तों को उठा-उठाकर कितने जतन से रखा करता था मैं। कनखियों से पेड़ की शाख़ की फुनगी की तरफ़ देखता और शाख़ से झड़े उन पत्तों को सहेजता जाता। ऐसे ही एक दिन ननकी ने टोका था, “ये तू क्या कचरा चुनता रहता है? क्यों?” मेरे पास उसके क्यों का कोई जवाब न था। या उसे समझाने को सही शब्द नहीं मिले थे शायद! तभी तो कह नहीं पाया कि जब भी उन्हें ज़मीन पर और नए कोंपल को फुनगी से लगा देखता हूँ तो लगता है सुनहरे हुए इन पत्तों ने झड़कर नए कोंपल के लिए जगह बना दी, पुराने झड़ें नहीं तो भला नए कैसे उगें? शरद ऋतु भी तो अपनी बर्फ़ीली हवा की चादर ताहियाने लगती है इन दिनों। जाने-अनजाने यकायक भूली याद की तरह हवा का आना और बदन सिहरा जाना . . .। अक़्सर शरद-गरम के मिलन की बेला में लोग चपेट में आ जाते हैं। हम जैसे बुड्ढे तो और अधिक। 

अमित, मुनमुन, तृप्ति जिस तरह मुझपर जान छिड़कते हैं, मैं गद्‌गद्‌ हूँ। मगर मेरी शारीरिक और मेरे भीतर पैठे ज़िद्दी लेखक की मानसिक पीड़ा को कोई दूसरा नहीं झेल सकता। पीड़ा के विरेचन के लिए रचना माध्यम होती है, मगर उँगलियाँ क़लम थामकर चलने से इनकार कर रहीं, कैसे झेलूँ पीड़ा फिर . . . कितनी ही रचनाएँ अधूरी हैं। मुझे पूरी करनी ही होगी, जितना कर पाऊँ, वह मेरे सिवा कोई नहीं कर सकता। न लिखूँ तो जीवन को ऊर्जा कैसे मिलेगी? बीस बरस से पेंशन खा रहा हूँ। धीरे-धीरे शरीर से ख़ुद को अलग महसूस करने लगा हूँ, जैसे कोई और ही हूँ मैं, सर्वेश नहीं, पापा नहीं, लेखक भी नहीं . . .। कोई और! छुटकी समझती है इन बातों को . . . रंग-प्रकाश और ध्वनि के सामंजस्य को और उनसे परे की अद्भुत दुनिया को भी। कविता और नाटक में ही नहीं, पेंटिंग में भी एब्सर्ड के कितने आयाम होते हैं! रंग-ध्वनि और प्रकाश मानो मेरी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा हैं। इसलिए तो इनसे जुड़े लोग मुझे प्रिय हैं, फिर चाहे वे उमेश जैसे हमउम्र हों या छुटकी जैसी नन्ही दोस्त। 

सिम्मी ने मेरे सभी चहेतों को स्नेह और सम्मान दिया। मुनमुन भी करती है। मगर सिम्मी से जिस आह्लाद से कहता था, कहीं न कहीं मुनमुन से कहते हुए सिकुड़-सा जाता हूँ। उसके अपने भी काम हैं, व्यस्तताएँ हैं, बावजूद इसके वह मुस्कुराती हुई मेरे मेहमानों का सत्कार करती रहती है। उसका पिता होकर धन्य हो गया मैं। “कान्हा! जीवन की गुनगुनी धूप–सा सिमट आऊँ तुममें!” मन ने दुआ की . . . नज़रें आसमान से उतरकर क्षितिज पर टिकी रहीं . . . साँझ की माँग में सिंदूरी रेख फैलती रही . . . धीरे-धीरे . . . 

1 टिप्पणियाँ

  • 16 Sep, 2022 01:55 PM

    वृद्धावस्था पर बहुत भावुक कहानी। हार्दिक शुभकामनाएँ आरती जी।

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