बापू और मैं–007: बैष्णव जन ते ही कहिए जे . . .

15-06-2024

बापू और मैं–007: बैष्णव जन ते ही कहिए जे . . .

डॉ. आरती स्मित (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

“क्या बात है? हँस-हँसकर लोटपोट हुई जा रही है?” 

“बापू, आप अचानक . . .?” 

“तेरी हँसी खींच लाई। इस तरह तुझे कभी देखा नहीं,” बापू मुस्कुराए। 

“जब देश में बात ही कुछ ऐसी हो और लगातार होती रहे कि तनाव में सिर धुनने का मन करे या फिर किसी के कारण मन को दर्द से भरने के बदले हँस-हँसकर लोटपोट होने का।” 

“अब सीधे-सीधे बता भी दे।” 

“आपसे क्या छिपा है बापू?” उनके लिए कुरसी आगे बढ़ाती हुई बोली। 

“तुझसे सुनना चाहता हूँ। तेरी आवाज़ आम जन की आवाज़ है,” बापू कमरे के एक कोने में बिछी चटाई पर बैठते हुए बोले। 

“आम जन ही तो बरगलाया जाता रहा है बापू! कभी क़ौम के नाम पर, कभी क्षेत्र के नाम पर तो कभी ऊँच-नीच के नाम पर . . . बहकाए जाने से बहकता और ख़ुद को नफ़रत का घर बनाता, आपस में सिर-फुटौव्वल करता आम जन भूल जाता है कि वह एक ऐसा मोहरा है, जिसके नष्ट होने से चलने वाले हाथ को कोई शोक नहीं होने वाला, बिखरेगा तो सिर्फ़ उसका अपना घर-परिवार और आपसी संबंध। जाने कौन-सी सुँघनी अपने मादक गंध में जीते-जागते बड़े हिस्से को आधी नींद में ढकेले है!” मैं भी उनके पास चटाई पर बैठती हुई बोली। 

“मैं सजग आम जन की बात कर रहा हूँ, जिस पर कोई जादू नहीं चलता।” 

“ये तो है। सजग आम जन को बहुरूपिया का असली चेहरा पहचानना आता है और नक़ली व्यवहार भी। सोच और कर्म में अंतर रखना ही बहुरूपिया की ख़ासियत होती है। वह कभी देवी-देवता बनता है, कभी साधु और दुनिया के सामने वैसे आचरण का अभिनय करता है। वह जानता है, वह अभिनय कर रहा है, मगर बच्चों की तरह हो-हो कर ताली बजाते, कभी सिर झुकाते कुछ लोग सच से अधिक उस भ्रम को जीने में जाने क्या सुकून पाते हैं! मानवता का हनन का पाठ पढ़ाने वाला कभी सच्चा नहीं हो सकता।” 

“मैंने तुझसे बेतहाशा हँसी का राज़ पूछा, तू तो गंभीर हो गई। . . . सोचा, मैं भी ज़रा हँस लूँ। खुली हँसी का वातावरण ही मानो झुलस गया है। आसमान की हालत देख! उसके सिर चढ़ा सूरज कभी तीखी धूप से जला रहा तो कभी नफ़रत से भरा बादल अम्लीय वर्षा कर रहा है और मेरे करोड़ों सुविधाहीन भाई–बहन सब कुछ झेलने को विवश हैं,” बापू रुक-रुककर कहने लगे। 

“आप भी हँस सकें, इसलिए तो ऐसी बयानबाज़ी है कि ‘गाँधी’ फ़िल्म आने से पहले विश्व आपको जानता न था। स्वार्थपूर्ति के लिए कभी विश्व के सामने आपका काग़ज़ी पुतला खड़ा कर दिया जाता है, कभी आपकी महत्ता बताने का ढोंग करते हुए ऐसी बेसिर-पैर की बात कही जाती है।” 

“कुछ सोचकर ही कहा होगा!” 

“बापू! कोई अनपढ़, जाहिल, मज़दूर या घने जंगल में बसा कोई आदिवासी बूढ़ा कहता तो उसकी अज्ञानता समझ में आती, देश का सिरमौर ऐसा कहे तो हँसी ही आनी है। मगर अब आपकी बात मुझे सोचने पर विवश कर रही है। यह भी रणनीति का हिस्सा तो नहीं?” 

“वह तो होगा ही। इस विषय पर ज़्यादा मत सोच। तुझे ख़ुश होना चाहिए कि तुझे क्रोध न आया,” बापू मुस्कुराए। 

“वैसे बापू विश्व और उसका इतिहास बोल रहा है कि एकमात्र आप ही ऐसे नेता हुए जिनकी तस्वीर विश्व के प्रायः संसदों में लगी है; एकमात्र ऐसे जननेता जिनकी प्रतिमा के आगे विश्व श्रद्धा से सिर झुकाता है। और विश्व का शायद ही कोई कोना है, जहाँ जनतंत्र क़ायम हो और आपकी प्रतिमा न लगी हो।” 

“वह उनकी श्रद्धा है। इस पर अहंकार नहीं करना चाहिए।” 

“बात अहंकार की तो है ही नहीं, हम भारतवासियों के लिए गर्व की है कि हम भी उसी मिट्टी में जनमे जिसने आप जैसे महामानव को गोद में खिलाया। बापू! आपको याद तो होगा न, जब गोलमेज़ सम्मलेन के दौरान, विश्वप्रसिद्ध मूर्तिकार, विंस्टन चर्चिल की भतीजी क्लेयर शेरडिन ने आपके सिर का अध्ययन किया था। उसने 1920 में लेनिन और अपने चाचा विंस्टन चर्चिल के सिर की मूर्ति तराशी थी।” 

“याद है।” 

“यह भी याद होगा कि बाद के दिनों में उसने क्या कहा था?” 

“अपनी प्रशंसा याद रखना अहंकार को जन्म देता है।” 

“मैं याद दिलाती हूँ। शायद, इस सदी में भ्रम में जीनेवाले भारतीयों को भी इतिहास का वह फड़फड़ाता पन्ना याद आ जाए। क्लेयर शेरडिन ने कहा था, ‘गाँधी को मैं महान समकालीनों की पहली क़तार में रखती हूँ और उनकी भी तुलना लेनिन से की जा सकती है। लेकिन एक भिन्न अर्थ में। यानी शारीरिक या बौद्धिक के बजाय आध्यात्मिक दृष्टि से। मेरे लिए गाँधी और लेनिन सच्चाई और ईमानदारी के प्रतीक हैं। इनमें से कोई भी व्यक्ति अपने आदर्शों से बाल बराबर भी नहीं हट सकता। लेनिन और गाँधी समझौताविहीन ढंग से स्पष्टवादी थे और अपने प्रभाव के बारे में पूरी तरह उदासीन थे। उनके लिए महत्त्व केवल सत्य का था’।” 

“सत्य है। मेरे लिए सत्य से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं। सत्य ही ईश्वर है। उसे पाने का मार्ग भी सत्य ही है। सत्यमार्गी होकर ही आत्म और परमात्म को पाया जा सकता है। बेशक बाहरी रास्ते अलग-अलग हों, एक सीमा के बाद सबको मिलना उसी एक से है।” 

“क्लेयर शेरडिन ने अपनी बात रखते हुए विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी मूर्तिकार जो डेविडसन की बात को भी जोड़ते हुए कहा था, ‘मेरे विचार से गाँधी की महानता आध्यात्मिक है और इसलिए वे आज के किसी भी व्यक्ति से अधिक महान, अधिक दुर्जेय हैं। उनके अंदर वह आध्यात्मिक सजगता है जिसे मानवता को विकसित करना होगा ताकि वह अपने बनाए नरक से उबर सके। गाँधी के बारे में मेरे विचारों की पुष्टि जो डेविडसन ने की है जो ख़ुद सिर बटोरते रहते हैं।’ 

“जो डेविडसन का कहना है, ’जब मैं महान विभूतियों के पास जाता हूँ तो वे मुझे अधिक क्षुद्र दिखाई देते हैं, सिवाय गाँधी के, जो अपनी महानता बनाए रखनेवाले एकमात्र व्यक्ति हैं’।

“जो डेविडसन ने आपकी आत्मिक ऊँचाई की बात की और कितनी निर्भीकता से ख़ुद को महान मानने वालों की क्षुद्रता पर उँगली उठाई, मगर आपकी सरलता-सहजता, हर एक से प्रेम, हर एक के दुःख-दर्द से भीगते हुए उसके लिए बेहतरी सोचना और ऐसे जाने कितने ही तो पहलू हैं जो विश्व की दृष्टि में आपको अनूठा महात्मा बनाते हैं। अफ़सोस इसी बात का है कि स्वार्थ के अंधों को आपके व्यक्तित्व का यह उजास दिखता ही नहीं।” 

“उन बातों पर समय ख़र्च मत करो, जिससे किसी वंचित का भला न हो। करने दो, जो, जो करता है . . . कहने दो, जो, जो कहता है। विश्व मुझे जानता था या नहीं, या मेरी याद में उसने क्या किया, यह हर देश के तन-मन की बात है। वर्तमान को इन बातों में क्यों उलझाना?” 

“बापू! तो वर्तमान में विश्व भर के इतिहास के सही पन्ने पर काली स्याही उड़ेलते हाथों को देखते रहें? देखते रहें कि हमारी भावी पीढ़ियों को किस तरह बरगलाकर मानसिक रूप से हिंसक बनाया जा रहा है? तब भी चुप रहें जब आपके नाम पर उनके दिमाग़ में कीचड़ भरा जा रहा है? नहीं बापू, यदि ऐसा ही होता रहा तो भारत बहुरूपियों और अज्ञानियों का देश बनकर रह जाएगा जहाँ हिंसा का राजतिलक होना गर्व समझा जाएगा। 

“बापू आपको जानना अपने आपको जानने का मार्ग है। अगर मैंने आपके जीवन को क़रीब से नहीं देखा-समझा होता तो कभी क्रोध, घृणा, नफ़रत और प्रतिकार की दुर्भावना से मुक्त नहीं होती। जो मन केअनुरूप नहीं होता, या जिससे अपनी हानि होती है, उससे प्रतिकार लेने की अवस्था तक चिढ़ जाना आम जन का स्वभाव है। मुझे औसत स्वभाव और बुद्धि पर विजय पाने की राह आपको जानने के बाद मिली। आपको जानने के बाद बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग को समझना मेरे लिए आसान हुआ और श्रीमद्भागवद्गीता को समझना भी। आपने उन जीवन मूल्यों जिया, जी कर संसार को बता दिया कि यह जीवन में उतारना सम्भव है और यही आध्यात्मिक पूर्णता का मार्ग है। आप महज़ प्रतिमा नहीं हैं, एक जाग्रत विचार हैं; करुणा से भरी निरंतर बहती एक गहरी संवेदना!” 

“कितनी भरी हुई थी तुम! तो क्या क्रोध और क्षोभ को दबाने के लिए हँसी की फुलझड़ी जला रखी थी?” बापू के स्वर में चिंता घुली-मिली नज़र आई। 

“दबाना कैसा? आपको जानना आप जैसा होकर जीने की नन्ही कोशिश ही तो होती है, बूँद मात्र ही सही। फिर क्रोध, क्षोभ, घृणा जैसे मनोविकारों के टिकने के लिए मन में जगह कहाँ बचती है! इन दिनों जो नाटक आम जन को दिखाए जा रहे हैं, वह हँसी ही पैदा करते हैं।” 

“हो सकता है, उसे पता न हो।” 

“बापू! अब आप ये कहें कि ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के प्रोफ़ेसर को भारतेंदु हरिश्चंद्र की जानकारी नहीं या प्रेमचंद के बारे में कोई जानकारी नहीं तो कोई बात नहीं।

“तो क्या यह मान्य होगा? फिर वह प्रोफ़ेसर बनने के योग्य नहीं। जिसे ख़ुद हिंदी साहित्य के इतिहास की जानकारी नहीं, वह छात्रों को उसका इतिहास कैसे पढ़ाएगा? अब हिंदी साहित्य का इतिहास बदल दें और सस्ता साहित्य, जिसे आजकल लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में रखा जा रहा है, उनके रचनाकारों को भारतेंदु, द्विवेदी जी, प्रेमचंद, प्रसाद आदि की जगह बिठाने के लिए बेबुनियाद बातें गढ़ी जाएँ तो क्या मौन रहना उचित है?” 

बापू कुछ जवाब से उससे पहले विचार पूरे वेग से बह निकला। 

“नहीं! चुप्पी और अनदेखा किए जाने का नतीजा ही है कि लेखकों की एक ऐसी भी जमात, जो लोकप्रिय साहित्य रचकर साहित्यकार की श्रेणी में शामिल हुए हैं और टेबल के नीचे से गुलाबी हलवे का डिब्बा पाकर उनके लेखन की प्रशंसा की बीन बजानेवाले भी बड़ी संख्या में आलोचक बने बैठे हैं। कुछ तो बीन बजाकर अपने घर आटा-दाल जुगाड़ रहे हैं। ठीक है, मान लिया, अनदेखा कर दिया जाना चाहिए, मगर यह प्रवृत्ति वहीं तक सेंध नहीं मारती, औरों के बेहतर लिखे की चोरी भी सीनाज़ोरी के साथ करती है। 

“यही आपके साथ हो रहा है। आपके जीवन भर की साधना को दूषित करने का घिनौना प्रयास . . .” 

“हम्म! तो?” 

“तो क्या? आपके बारे में कुछ भी बोल देना, कुछ भी हवा में छोड़ देना ठीक नहीं। किसी के अच्छे कर्म को पहले कालिख मलने का प्रयास, फिर उनके अनाम होने की चिंता ज़ाहिर करने का अभिनय . . .! चिंतक और साधक पेड़ पर नहीं फलते और न ही आत्मावलोकन, आत्ममंथन और आत्मविश्लेषण करने के साथ ही स्वयं को घिस-घिसकर विकारों से दूर किए बिना, साधना की अगली सीढ़ी तक जा सकते हैं। मानवता के संरक्षण और उत्थान की चिंता और उस दिशा में चिंतन व्यक्ति की जीवनशैली और यथार्थ कर्म में दिखता है, आडंबर में नहीं।” 

“इतना विवेक तो सबके पास है।” 

“हाँ है, मगर आम जन द्वारा उसका उपयोग न करने की तकनीक पर बीते वर्षों में कुछ अधिक ही काम हुआ है। आप ही बताइए, अभिनेता किसी का चरित्र ओढ़ सकता है, वह हो नहीं सकता। यह बात उसे भी मालूम है और दर्शक को भी। बावजूद इसके यदि कुछ दर्शक उस किरदार को सच मानकर उस अभिनेता की पूजा-भक्ति शुरू कर दे और कुछ अभिनेता परदे के बाहर भी उस भ्रम को बनाए रखने के लिए स्वाँग रचे तो यह घातक है। यह आम जन को ऊँचा उठने की नई दृष्टि नहीं देती, उसे मूढ़ता में लपेटती हुई घोर अंधकार में धकेल देती है। आजकल चारों ओर यही हो रहा है। शिक्षा में राजनीति, राजनीति में अभिनय का बोलबाला।” 

“हम्म!” बापू सिर झुकाकर सोच में डूबे-डूबे-से ही बोले, “तुझे इन बातों से क्या काम? जो मूर्ख बना रहा है और जो मूर्ख बन रहे हैं, यह उनके बीच का मामला है—ऐसा तो नहीं कह सकता। इतना ज़रूर है कि कोई किसी को तभी बार-बार मूर्ख बना सकता है, जब बननेवाले अपने आपको विद्वान के रूप में प्रदर्शित करते हुए अनैतिक बातों को नीतियुक्त मानने ही नहीं, मनवाने के लिए भी हेठी करे। अब जब कुछ लोग इसी प्रवृत्ति के हैं तो तू अपना कितना दिमाग़ ख़राब करेगी? यह हर सदी में होता आया है।” 

“बापू जहाँ लाखों जनता बेघर हो या दो जून का खाना जुटाने में ही बेदम हो कि शहर में किराए पर भी ढंग का मकान न ले सके, चाहकर भी अपने मेधावी बच्चे को वह ज़रूरी संसाधन जुटाकर न दे सके कि उनका बच्चा बिना आर्थिक संघर्ष झेले, अपनी पढ़ाई पूरी कर सके और माँ-बाप उसे संतुलित भोजन करा सकें। जहाँ लाखों लोग गंदा पानी पीने और चीकट कपड़े पहनने पर मजबूर हों, उस देश में साढ़े सात करोड़ का एक दीपक निर्मित होता है जो पूजा के दीपक की तरह पवित्र, सुकूनभरी लौ से उजाला नहीं फैलाता, बल्कि उग्र रूप लेकर आसपास के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के शीर्ष तक को झुलसा देता है, तो आँख-कान खुले रखने पड़ते हैं। कान खुले न रहें तो उन ग़रीबों की सिसकियाँ कैसे सुनाई पड़ेंगी जिनकी ज़मीनें मंदिर परिसर के विस्तार के नाम पर ज़बरन ले ली गई और वहाँ होटल और पार्किंग की व्यवस्था की जा रही है। मंदिर पूजा के लिए होता है या व्यापारीकरण के लिए? और अब गर्भगृह के दर्शन के लिए टिकट लगाने की बात . . . जहाँ भी पूजा और आस्था को व्यापार बनाया गया, वहाँ मूर्ति तो विराजित है, ईश्वर नहीं। फिर यह मंदिर पर्यटकों के लिए तीर्थस्थल नहीं, भ्रमणस्थल है। देश में ऐसे कई भ्रमणस्थल मौजूद हैं। मंदिर की सात्विकता वही बनी रहती है जहाँ जनसेवा-भाव होता है। जब भक्त भगवान का ठेकेदार बन बैठे तो क्या वहाँ भगवान विराजेंगे?” 

“ये बात जनता को समझनी होगी न, जो ऐसे व्यापार को बढ़ावा देती है। जो हर एक प्राणी ही नहीं, ईश्वर की हर एक संरचना से प्रेम नहीं कर सकते, उसका दोहन-शोषण करते हैं, वे किसी भी मार्ग को अपना लें, परमात्मा को पा नहीं सकते।” 

“बापू, परमहंस जी ने सही कहा था, ‘ईश्वरतत्व को पाना कौन चाहता है?’ मुझे तो लगता है मानो ऐसे भेड़ों की बड़ी संख्या खड़ी की गई है, जिन्हें भेड़िया के सारे गुण सिखाए गए हैं। कुछ, जिन्होंने भेड़िया रूप नहीं लिया, लोमड़ी और सियार बन बैठे—निरीहों को नोचकर खानेवाले छिपे हिंसक।” 

“समय और कितने आँसू रुलाएगा!” बापू के चेहरे पर वही उदासी और बेचैनी छलक आई जो कलकत्ते में आज़ादी के बाद झूठी घटना पिरोकर सांप्रदायिक दंगा फैलाने की ख़बर सुनकर छलकी थी। 

“बापू! क्या आपको नहीं लगता, जब व्यक्ति अपने भीतर झाँकने से डरने लगे या बचने लगे तो इसका मतलब है उसने अपनी कमियों को जान लिया है, लेकिन जिनकी आतंरिक दृष्टि खो चुकी हो, उन्हें अपने भीतर का अँधेरा नज़र ही नहीं आता, फिर दूर किसे करे? अपने भीतर के अँधेरे को दूर करने सारे उपाय तो बुद्ध बता गए, एक अंश भी जीवन में साध लें तो क्या ही अद्भुत प्रकाश फूटता है! आम जन जब तक अपने भीतर के प्रकाश को टोह नहीं लेता, ये सारे क़ारोबार चलते रहेंगे।” 

बापू कहीं खोए थे मानो दूर यात्रा पर हों। शायद, उन्हें चौराचौरी कांड की यादों ने घेर लिया था, तभी वे खोए-खोए से बुदबुदाए, “अभी सत्याग्रह के लिए जनता तैयार नहीं है। वह अहिंसा को समझ ही नहीं पाई है। कायिक हिंसा-अहिंसा मात्र नहीं, मानसिक, वाचिक, बौद्धिक और भावनात्मक हिंसा-अहिंसा को भी उन्हें समझना होगा। उन्हें समझना होगा, बुद्ध होने के लिए सिद्धार्थ होने की ज़रूरत नहीं है, वे सभी बुद्धत्व को पा सकते हैं। बुद्ध ने स्वयं कहा है, बुद्ध व्यक्ति नहीं, अवस्था है। यह समय अपने आपको ढूँढ़ने और पाने के लिए प्रयास करने का है और इसके लिए मानव समाज सहित प्रकृति के वास्तविक हित के लिए ज़िम्मेदार बनने और ज़िम्मेदारी लेने का है।” 

“लेकिन हो तो बिलकुल उल्टा रहा है। एक अदृश्य आईने में जो दृश्य परोसा जा रहा है, उसे सच मानने की भूल ही दुर्दशा का बड़ा कारण है। व्यक्ति अपने आपको नहीं देखता, उस आईने में दिखते अपने प्रतिबिंब पर विश्वास करता है। वह भूल जाता है कि एक के सामने खड़े होने पर वह लंबा तो दूसरे में ठिगना दिख रहा है तो यह आईने का कमाल है, उसकी अवस्था जो थी, वही है, जब तक वह यथार्थ में बदलाव नहीं लाता।” 

“तेरी हँसी के पीछे कितनी पीड़ा दबी पड़ी है! आह! मगर मैं हैरान नहीं हूँ। परपीड़ा से मन पीड़ित न हो, करुणा न उपजे और सहायता के लिए विकल न हो तो वह मन मानव का तो नहीं हो सकता,” बापू की आँखों में वात्सल्य उभरा। 

“हाहाहा! फिर तो मानवदेहधारी आधी से अधिक आबादी मानव नहीं है जिन्हें मैं दोपाया जानवर कहती हूँ।” 

“इतना मत हँस कि रुके आँसू धार-धार बह निकले।” 

“बापू! हर तीसरे-चौथे घर से कराहती आवाज़ कानों को चीरती है। हर कराह के अपने-अपने कारण हैं। कोई शिक्षा की व्यवसायिकता की भेंट चढ़ा है, कोई बेरोज़गारी के, किसी के पास इलाज के पैसे नहीं हैं तो किसी के पास स्कूल फ़ीस के, किसी के पास अपनी छत नहीं है तो किसी के पास किराए की छत भी नहीं। नौकरी की मियाद कम कर दिए जाने, पेंशन बंद किए जाने, कम में फ्रीलांस काम करवाने और अस्थायी नियुक्तियों ने मध्यवर्गीय घरों की कमर तोड़ दी हैं। ये घर चीख-चिल्लाकर, भोकार पारकर, कलेजा पीटकर रो नहीं सकते। ये तो हर टीस को जज़्ब करते हुए सिसक सकते हैं या आत्महत्या कर सकते हैं। पुरानी जीवनशैली बिलकुल ख़त्म कर, सड़क पर आ जाने से डरनेवाला यह वर्ग चारों ओर से पिस रहा है। नए-नए क़ानून, सिर्फ़ उन पर मानसिक और आर्थिक दबाव बनाते हैं, जबकि मुट्ठी भर वे क़ारोबारी जिनके घर पीने का पानी करोड़ों ख़र्च करके आता है, वे हज़ार करोड़ की ऋण माफ़ी के योग्य हो जाते हैं, जबकि एक निम्नवर्गीय या मध्यवर्गीय अपने लिए छोटा ऋण भी लेने के बाद सो नहीं पाता। उनकी कुर्की-ज़ब्ती आम बात है। ऋण देने से पहले बैंक को गिरवी चाहिए। जिसके पास चल-अचल सम्पत्ति है उसे ऋण माफ़ी, जिसके पास है ही नहीं, उसे न अपनी छत के नीचे रहने का सपना पालना है न मेधावी बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाने का। एक और बात, जिस कर्मचारी ने किसी निजी या सरकारी संस्था को जीवन के बहुमूल्य ऊर्जावान समय दिया, उनकी पेंशन बंद जबकि सांसद और विधायक से लेकर मंत्री तक आजीवन मुफ़्त की मलाई खा सकते हैं। दूसरे, कुछ राज्यों में मात्र पचास वर्ष में सरकारी नौकरी से मुक्त करने का नया क़ानून क्या सिसकने वाले घरों की संख्या नहीं बढ़ाएगा? जब आम कर्मचारी पचास-साठ में सेवानिवृत्ति के योग्य है जो कि प्रतियोगिता परीक्षा पास करके आता और पूरी जवानी उसी दफ़्तर में काट देता है तो राजनेता क्यों नहीं? शिक्षा विभाग में जो धाँधली मची है, उसका कहना ही क्या! अपनी शर्तों पर जीनेवालों को तो अब जीने का अधिकार ही नहीं। उनकी जान साँसत में है ही। मध्यवर्गीय युवा पीढ़ी कॉर्पोरेट सेक्टर में घुसकर ख़ुद को मशीन बनाई जा रही है। उनकी योग्यता कंपनी खड़ी करनेवाले सेठ कैश कर रहे हैं। सपने की डोर मज़बूत रखने वाले युवा जब अपनी योग्यता नष्ट होते, अपने आपको शोषित किए जाने के लिए विवश देखते और महसूस करते हैं तो उनकी बेचैनी उन्हें या तो विदेश की राह दिखाती है या जीवनलीला समाप्त करने की। ऐसी अवस्था में जब कर्णधार झूठ और मक्कारी की जुगाली इतनी ख़ूबसूरती से करे कि सैंकड़ों बेरोज़गारों की फ़ौज उनके बहकावे में आ जाए और घोड़पट्टी पहनकर सिर्फ़ सामने दिखाए भ्रम के पीछे दौड़ते हुए गिरकर दम तोड़ने तक उनकी मंशा पूरी करते रहे तो तकलीफ़ कैसे न हो?” 

“उसी तकलीफ़ ने तो मुझे यहाँ बुलाया है। मैं जानता था, यह हँसी वह नहीं जिसको तू जिए। मुझे तेरी परपीड़ा खींच लाई। कहने आया हूँ, तुझे हारना नहीं है। . . . रोना भी नहीं है।” 

“ये आप कह रहे हैं? जो ख़ुद सन्‌ छियालिस-सैतालिस में परपीड़ा में झुलसता हुआ आख़िर अपने लिए मृत्यु की इच्छा करने लगा हो, वह संवेदनशील इंसान जिसकी हँसी पूरी तरह औरों के आँसू में दफ़न हो गई हो, वह ऐसा कैसे कह सकता है?” 

“वे पराए कहाँ थे? कोई भी पराया नहीं, सभी उसी पिता की संतान है, जान जाओ तो फिर अपने ही भाई-बहनों को पराया कैसे मानोगे? ईश्वर ने मुझे वह आलोक दे दिया, फिर मैं भ्रमित कैसे होता?” 

“सन्‌ चौवालीस में वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाइन ने क्या कहा था, याद है?” 

“तू याद दिलाए बिना मानेगी क्या?” बापू मुस्कुराए। 

“उन्होंने कितनी अच्छी बात कही,” आनेवाली पीढ़ियाँ शायद ही इस बात पर यक़ीन करेंगी कि हाड़-माँस का बना हुआ यह आदमी सचमुच धरती पर था।”

बापू, कहीं ऐसा तो नहीं कि आइन्स्टाइन को शायद हिंदुस्तान के भावी कुचक्रों की गंध लग गई थी।” 

“कुचक्र?” 

“हाँ, कुचक्र। अपने ही देश में कोई विभीषण ऐसा होगा जो अपने ही सरपरस्त और देशप्रेमियों के संहार का कारण बनेगा। और अपने आपको शहंशाह समझता हुआ भी शत्रु के इशारे पर नाचेगा ही नहीं, अपनी सल्तनत को उसका मानसिक ग़ुलाम बना देगा।” 

“क्या कह रही है?” 

“कभी मैकाल पर्वत की तरफ़ जाइए जहाँ आज भी ख़ुद को भारद्वाज गोंड कहते विभीषण के वंशज मिल जाएँगे जिनके दिमाग़ को इसी तरह तैयार किया गया है कि राम ही उनके उद्धारकर्ता हैं। वे रामनवमी व्रत रखते हैं, मगर उन्हें अपने इतिहास की वास्तविकता नहीं मालूम। उन्हें वही बताया गया जो उस घर के भेदी विभीषण ने राजा बनने के बाद रचा। यही कारण है कि उस क्षेत्र के आदिवासी जय जोहार नहीं, राम राम कहकर अभिवादन करते हैं। बापू, यह विभीषण का उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि बीसवीं सदी का इतिहास इक्कीसवीं सदी में वैसे ही बदलकर परोसा जा रहा है। सच पर झूठ का मुलम्मा इस तरह चढ़ाया जा रहा है कि आइन्स्टाइन की भविष्यवाणी सच लगने लगती है।” 

“ईसा को भी उनके अपनों ने ही सूली पर चढ़ाया था।” 

“हाँ, मगर बाद में संसार ने उन्हें ईश्वरपुत्र के रूप में स्वीकार लिया न! अब देखिए, आइन्स्टाइन ने आपकी प्रशंसा में जो शब्द कहे, वे नितांत शुद्ध हृदय से निकले शब्द हैं। कहीं कोई आडंबर नहीं।” 

“सच को किसी प्रसाधन की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयं आलोकित होता रहता है। इसलिए उसे ईश्वर यानी सर्वशक्तिमान कहा गया है।” 

“यहाँ तो भगवान् को भी लाने का दावा करनेवालों की लंबी क़तार है।” 

“यह उनका भ्रम है। और इस भ्रम का महल भी उन्होंने ही खड़ा किया है। मनुष्य मनुष्य बना रहे, यानी नैसर्गिक मानवीय गुणों को आजीवन बनाए रखे तो इहलोक से मुक्त होते ही देवत्व की कोटि पा जाता है।” 

“सही कहा बापू! तभी तो लाखों साल पहले मूलनिवासियों में यह परंपरा रही थी कि मनुष्यता के गुणों से परिपूर्ण, परोपकारी, जनसेवा और प्रकृतिरक्षक होता, उसे ही राजा बनाया जाता था और उस राजा को उनकी अर्द्धांगिनी के नाम से जोड़कर बुलाया जाया था। आप देखें, बाद के समय में हमारे यहाँ भी तो नाम जोड़कर बुलाने की परंपरा रही ही, पहाड़ों में भी न्यायप्रिय राजा-रानी को देवता-देवी मानने का प्रचलन है। इसे भी अब लोक/समाज से ख़त्म करने की भी साज़िश रची जा रही है।” 

“तुम्हारी दृष्टि कहाँ-कहाँ यात्रा करती रहती है?” 

“सत्य की खोज, सत्य के प्रयोग करना आपसे ही सीखा है, मगर आपकी तरह संयमी मैं कहाँ!” 

“तो बन जा, किसने मना किया है?” बापू खिलखिलाए। 

“तेरी जीभ स्वाद से पूरी तरह समझौता कर लेगी और तेरा मन अपनों के स्नेहिल उपहारों को ठुकराने का साहस तो हो जाएगा . . . यही ज़ंजीर अब तक तेरे पाँव कसे है। धीरे-धीरे हो जाएगा। दमन न करना। दमन निदान नहीं है। फिर, ऐसा तो है नहीं कि तू ऐसी इच्छाएँ पाले है। परिवार के लोगों से ही तो स्वीकारती है।” 

“घनिष्ठ सखियों से भी।” 

“कोई बात नहीं। शमन हो जाएगा। परेशान मत हो,” उनके शब्द मन को चंदन-लेप लगा गए। 

“बापू, जो सच्चे होते होते हैं या जिनके भीतर का उजाला हल्की परत के नीचे दबा होता है, वे सच स्वीकारने या सच के साथ खड़े होने से नहीं झिझकते। है न?” 

“अब किनकी बात कर रही है?” 

“जनरल स्मट्स की बात याद आ गई। उसने कहा था, ‘मैंने अनेक गर्मियों में इन सेंडिलों को पहना है। हालाँकि मैं महसूस करता हूँ कि मैं इतने महान पुरुष के पदचिह्नों पर खड़ा होने योग्य भी नहीं हूँ’।” 

“हाँ, जोहान्सबर्ग जेल में जब क़ैदी था, उन्हीं दिनों एक जोड़ी सेंडिल बनाई थी और दक्षिण अफ़्रीका छोड़ने से पहले उन्हें भेंट दी थी।” 

“बापू! आप सचमुच अद्भुत हैं। ईश्वरीय प्रेम से भरे हुए, तभी स्मट्स जैसे क्रूर को भी पिघला दिया।” 

“मैंने कुछ नहीं किया। वह अपने पद के कारण अपने क़ैदी के प्रति क्रूर था। अगर वह वाक़ई क्रूर होता तो एक जोड़ी सेंडिल पाकर भावुक न होता। उसके भीतर का उजास उसका अपना था, मेरा दिया हुआ नहीं।” 

“फ़िलहाल अपने राम को नींद से जगाइए। महल में जाकर भ्रमित हो गए हैं।” 

“मेरे राम मेरे साथ हैं। मेरे हृदय में सजग-सचेत, करुणा से भरे हुए। मेरे राम को न महल चाहिए, न आडंबर और प्रपंच का व्यापार। जिन कार्यों से किसी भी प्राणी की आँखें भीगे, उन कार्यों को मेरे राम भला कैसे स्वीकार कर सकते हैं!” 

“तो फिर वे राम वही नारायण होंगे, जिनका वर्णन प्रेमचंद ने ‘कर्मभूमि’ में किया है। महलों में रहने और क़ीमती वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित वातानुकूलित कमरे में रहने वाले भोगी। उन्हें भला उन वंचितों के आँसू कहाँ दिखते होंगे जो परिसर के विस्तार और होटलों के निर्माण सहित बड़ी-बड़ी गाड़ियों के योग्य सड़क बनाए जाने के लिए अपने डीह से उजाड़े गए। हाँ, सही तो। राजा राम की बाल रूप में वापसी हुई है।” 

“तू भोलेनाथ को बहुत मानती है न?” बापू ने अचानक सवाल किया। 

“कोई भेद नहीं उपजता। परमपिता ने बड़ी मज़बूत डोर से बाँध रखा था, इसलिए द्वैतभाव से जल्द उबर पाई। यों भी रक्त में माता-पिता दोनों के गुण मिले हैं। माँ शक्ति की पुजारन थी तो साथ में अन्य देवी-देवता भी मौज़ूद रहे। उनका विराजना, उनकी सेवा में माँ रत रहती थी। पिता को कभी धूप-दीप करते नहीं देखा, मगर जब किसी तकलीफ़ में होते तो ‘आह माँ’ या ‘हो राम!’ ही कहते मानो ‘राम’ उनके लिए ममत्व का प्रतीक हों। वे अद्वैत रूप को मानते थे, यह बात बहुत बाद में समझ में आई। वे विचार, भाव और कर्म में शिवत्व पर बल देते थे।” 

“तो माता-पिता का गुण पाया है।” 

“ईश्वर ने जो दिया होगा, भले के लिए दिया होगा! मैं आपकी बात कर रही हूँ। पिछले कुछ सालों से आपके व्यक्तित्व को धूमिल करने के लिए कुछ ऐसी बातें पुस्तकों में लिखी और लिखवाई जा रही हैं जो बेबुनियाद हैं—यह लेखक भी जानता है। कुछ की आँखों पर ऐसा चश्मा चढ़ा है कि हर तरफ़ कालिख ही दिखती है। मैं हैरान हूँ कि विश्व भर के बड़े-बड़े विचारकों ने आपके प्रति श्रद्धा अर्पित की, प्रशंसा भरे शब्द लिखे और आपके होने को ईश्वरीय वरदान माना। लेकिन अपने ही देश में, ऐसे ही किसी काले चश्मे वाले ने कुछ दिनों पहले आपको ‘भारतीय बुर्जुआ और ब्रिटिश हुकूमत का सेवक’ कहा है। उसे कम से कम लेनिन का कहा एक वाक्य ही पढ़ लेना चाहिए था—गाँधी साम्राज्यवादविरोधी संघर्ष का अग्रणी योद्धा है।” 

अब बापू हँसे। खुलकर, ज़ोर से। पोपले मुँह में उभरी चमक देखकर मुझे अच्छा लगा। बापू रुके, फिर पूछा, “तूने अमावस्या में पूरा चाँद कब देखा?” 

“कभी नहीं।” 

“तो जब इस देश के सिरमौर ही साम्राज्यवाद के रथ का पहिया बने हुए हैं, जिसके नीचे निरीह केवल कुचले जा सकते हैं या दीवार में चुनवाकर छिपाए जा सकते हैं, वहाँ तू उम्मीद लगाए बैठी है कि उनके पुजारी लेनिन के विचार समझेंगे।” 

“फिर तो वर्तमान की टिकटिकाती घड़ी के हिसाब चार्ल्स बुकोवस्की की बात ठीक ही हैं—लोग अन्याय के बारे में तभी सोचते हैं जब वह अन्याय स्वयं उनके साथ होता है।” 

“तुझे सचमुच ऐसा लगता है?” 

“एक सीमा तक, हाँ!” 

“फिर औरों के लिए अपनी नौकरी क्यों छोड़ी? जबकि वह तो आज भी वहीं नौकरी कर रही है। हहाहाहाहा . . . और ऐसा पहली बार तो नहीं कि औरों के लिए तूने अपनी हानि की हो . . .”

“आपका ही असर है। हमेशा दूसरों के लिए चोट सहने का स्वभाव आपने पाया। और ऐसा स्वभाव कि दुनिया छोड़कर भी अपनी माटी की चिंता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। सत्य और अहिंसा का दीया जलाए घूम रहे हैं। अब, आपकी संगत का कुछ तो असर होगा ही न!” 

“दीया नहीं, लाठी।” 

“आप सत्य और अहिंसा के प्रतिरूप हैं आपकी लाठी और आपका चश्मा आपके प्रतिरूप। और कितनी अजीब बात है, आपकी लाठी हिंसा नहीं अहिंसा का प्रतिनिधित्व करती है और चश्मा सत्यपरक दृष्टि का।” 

“यही तो इस अधनंगे फ़क़ीर की पूँजी है।” 

“जिसे देखकर उस अहंकारी चर्चिल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। और आपके जवाब ने तो उसे चार खाने चित्त ही कर दिया। हाहाहाहाहहा . . .” 

“देख अपने आपको, पहले अन्यायियों, मक्कारों, झूठों और प्रपंचियों को देखकर ही तेरे भीतर क्रोध की भावना जन्म लेती थी। कितना क्रोध! मगर, अब . . .” 

“तब दिमाग़ क्रांतिकारी भी था, अब केवल सत्याग्रही है। मेरे अंकल हमेशा कहा करते थे, ‘क्रोध को अपनी ऊर्जा बनाओ। ग़लत बात का विरोध करने के लिए हिंसा का न साथ दो, न बढ़ावा . . . बस, सत्य पर अडिग रहो। आत्मशक्ति बढ़ाओ’। मैंने उन्हें हमेशा अपने हर मरीज़ के लिए प्रेम से भरा देखा। ख़ासकर, ग़रीबों और सताई हुई बहू-बेटियों की पीड़ा तो वे बिना कहे समझ जाते थे और कभी उसके साथ आए परिजन को समझाते थे, इसकी बीमारी शरीर की नहीं, मन की है। आपलोगों ने इसके मन को ही मार दिया है। कभी परिजन की शक्ल देखकर जाने क्या समझ जाते थे कि सीधे मरीज़ को बेटी बनाकर समझाते थे।” 

“तुमने अच्छी परवरिश पाई।” 

“मैं भी उनकी मरीज़ थी, बाद में बेटी बन गई, जैसी आपकी,” कहते-कहते मेरा चेहरा खिल उठा। 

“बापू, ज्यों-ज्यों आपके जीवन-संदेश को समझती जा रही हूँ, अध्यात्म का मार्ग स्पष्ट और उत्कर्ष पर ले जाने का माध्यम बनता जा रहा है। किसी के लिए क्रोध, नफ़रत या घृणा जैसे विकार अपने आप ख़त्म होते गए तो ख़ुद को मुक्त और हल्का महसूस कर पा रही हूँ।” 

“ऐसे ही मुक्त और निर्भीक रह। यह मुक्तभावना, यह निर्भीकता ‘मुँह में राम बग़ल में छुरी’ रखने से नहीं आती, दिल की गहराई में राम को बसाने से आती है। ईश्वर को . . . राजा को नहीं।” 

“जैसे कि मुँह में गाँधी, कर्म में नफ़रत और हिंसा।” 

“तू आजकल बातों के तंतु को कहाँ से कहाँ जोड़ देती है!” 

“बापू, इस देश को अब तक सही कर्णधार नहीं मिला। आपका हर डर सच साबित हुआ। नेहरूजी ने अपनी भूल मानते हुए यह तो स्वीकारा ही कि ‘देश के तो दो टुकड़े हो गए, लेकिन आगे चलकर और भी टुकड़े-टुकड़े हो जाने का डर है . . . आज तक गोरों की ग़ुलामी थी। अब डर है कि देश के टुकड़े-टुकड़े होकर भीतर ग़ुलामी आएगी . . . महात्माजी (गाँधीजी) की निगाह पूरे देश पर रहती थी। वे बुनियादी सवाल को पकड़ लेते थे। इसलिए वे नोआखाली गए, कलकत्ते गए, बिहार गए, दिल्ली में आकर बैठ गए। हम देखें कि बुनियादी काम क्या है, मूल काम क्या है। बापू की मौत चिल्ला-चिल्लाकर कहती है कि वह काम कौन-सा है। सांप्रदायिकता के ज़हर का मुक़ाबला किए बिना हम आज़ादी को नहीं बचा सकते।’

“और देखिए, पिछले 75 सालों में कुछ ने सांप्रदायिकता की आग को लहकाने और उसमें सब कुछ स्वाहा करने का ही काम किया है। इस ज़हर का दुष्प्रभाव कितने बड़े स्तर पर हुआ है, आप भी देख ही रहे हैं। 

“आपके कहे को न तो पहले किसी ने समझा, न बाद में। यदि आपकी बात के गूढ़ अर्थ को आज़ाद भारत के सिरमौरों ने आरंभ में समझ ली होती तो आज ये हालत ही न होती!” 

“तूने दो अलग-अलग बातों का सिरा आपस में जोड़ दिया है। पहला हिस्सा तो स्पष्ट है, बाद का हिस्सा . . . मेरे किस कहे की चर्चा कर रही है?” 

“मुझे पूरा विश्वास है कि अगर भारत को और भारत के माध्यम से विश्व को सच्ची स्वाधीनता पानी है तो देर या सवेर इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि लोगों को नगरों में नहीं, गाँवों और महलों में नहीं, झोंपड़ों में रहना होगा। नगरों और महलों में करोड़ों लोग शान्ति से नहीं रह सकेंगे। तब उनके पास हिंसा और असत्य–दोनों का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। मेरा विश्वास है कि सत्य और अहिंसा के बिना मानवता के विनाश के अलावा कुछ और नहीं होगा . . . दुनिया अगर ग़लत राह चलती है तो मेरे लिए डरने की कोई बात नहीं है। हो सकता है, भारत भी उसी राह पर चल पड़े और आख़िरकार मुहावरों वाले पतंगे की तरह उसी लपट में जल मरें जिसके चारों ओर वह अधिक नृत्य कर रहा है। लेकिन अपनी आख़िरी साँस तक भारत को और उसके द्वारा पूरी दुनिया को इस अंजाम से बचाने की पूरी कोशिश करना मेरा पवित्र कर्त्तव्य है।” 

“हाँ, मैंने अपना कर्त्तव्य अंतिम साँस तक निभाया। और वही हुआ, जिसकी मुझे आशंका थी। भारत सत्य और अहिंसा की माला जपता हुआ भी उस मार्ग को छोड़कर प्रभुत्वलोभी और हिंसामार्गी हो गया है। हथियारों की ख़रीद और घोटाले और जाने क्या-क्या! यदि यही हालत रही तो पश्चिमी देशों का अनुकरण करता हुआ यह देश नैसर्गिक गुण पूरी तरह खो देगा।” 

“बहुत पहले किसी ने भविष्यवाणी की थी दो हज़ार पच्चीस तक भारत में भी मध्यवर्ग का लोप हो जाएगा। वे या तो उच्च वर्ग का हिस्सा हो जाएँगे, या ग़रीबों की संख्या बढ़ाने वाले . . . जो दिख रहा है, वह आशंका को सच करता जा रहा है। ग़रीबी बढ़ रही है, ग़रीब हटाए जा रहे हैं। मुट्ठी भर हाथों में सत्ता है, शेष सब किसी न किसी रूप में ग़ुलाम ही हैं। उनका समय उनका नहीं है। वे कठपुतली हैं और अफ़सोस इस बात का है कि उन्हें इसका एहसास तक नहीं।” 

“जिन्हें एहसास है, वे उस ग़ुलामी से बाहर हैं।” 

“बाहर हैं बापू, मगर हर रोज़ अपनी गिरती आर्थिक स्थिति से दो-दो हाथ करते हुए।” 

“यह तो स्वाभाविक है। देखना! हारकर स्वार्थ के दलदल में न उतर जाना। रहीम के दोहे को याद रखते हुए अपना ‘पानी’ बचाए रखना।” बापू ने कंधे पर हाथ रखकर थपकाया। 

“भरोसा रखिए बापू। न आँख का पानी मरेगा, न मेरा पानी डिगेगा।” 

बापू ने सिर पर हाथ रखा, फिर बाहर आसमान निहारते हुए बुदबुदाए, “इस आकाश से कब वे तमाम बादल छँटेंगे, कब आसमान फिर से अपनी रंगत पाकर मुस्कुराएगा? कब मैं चैन से लौटूँगा।” 

मेरी तरफ़ स्नेह से देखते हुए बोले, “देख! कल तो दूर है। सच्चे साधकों की बात अलग है, आम जन को अगला पल भी नहीं पता। जब आसन्न भविष्य भी नहीं मालूम तो उसके लिए चिंता क्यों? संचय क्यों? कभी संचय की प्रवृत्ति न पालना, आनंद में रहेगी। और हाँ, अपने इन मित्रों का ख़्याल रखना,” बापू बालकनी में फुदकती गौरैयों और कबूतरों को देखकर बोले। 

“जी बापू!” 

बापू रुके नहीं, लाठी ठकठकाते हुए सीढ़ियाँ उतर चले। उनकी लाठी की ‘ठक’ अपने पीछे स्वर लहरी बिखेर जाती . . . बैष्णव जन ते ही कहिए जे पीर पराई जानी रे . . .

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