पिता पर डॉ. आरती स्मित की कविताएँ

15-06-2022

पिता पर डॉ. आरती स्मित की कविताएँ

डॉ. आरती स्मित (अंक: 207, जून द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

(कविता संग्रह ‘तुम से तुम तक’ में संकलित कविताएँ)
 
पिता और मैं 
 
यादों की अलगनी पर 
जब टाँगती हूँ बचपन 
झड़ते हैं अनमोल पल 
 
दिखते हैं पिता 
एक-एक पल चुनते हुए 
सहेज कर रखते हुए . . . . . . 
 
मैं मूँछें खींचती हूँ 
खिल उठती है कली 
उनके होंठों पर 
 
भोजन की थाली पर 
कौर बाँधे बैठे हैं पिता 
मेरे इंतज़ार में 
 
दफ़्तर को जाते पिता 
मुझे देते दस पैसे की रिश्वत 
कि जाने दूँ उन्हें 
 
ढलती साँझ, दस्तक देते पिता 
पुकारते मेरा नाम 
मानो और नाम याद नहीं 
 
सेंध मारता कैशोर्य 
गुपचुप छूटता बचपन 
छूटता पिता का साथ 
 
अब, पिता हैं – मैं हूँ 
बीच में है झीनी दीवार 
मध्यवर्गीय वर्जनाओं की 
 
पिता बोलते हैं, बतियाते हैं 
बस सीने से नहीं लगाते 
मैं, अब बड़ी हो रही हूँ। 

♦  ♦  ♦

 

पिता
 
धीर, गंभीर 
मेरे पिता, 
मुझे विदाई देते वक़्त 
कितना रोए थे! 
रोए थे फूट-फूटकर 
बच्चे के मानिंद
मानो, 
बेटी नहीं, 
माँ ज़ुदा की जा रही हो। 
क्यों होता है ऐसा? 
ससुराल भेजते वक़्त 
रोता है पिता
समस्त संवेदनाओं को 
इकट्ठा कर 
बहा देता है एकबारगी 
और फिर
सूख जाती है
उनकी आँखों की नदी; 
मन की लहरें; 
आत्मीयता की स्वाति-बूँद 
क्यों? 
बेटी हो जाती है पराई 
इतनी कि 
उसकी पीड़ा 
नहीं झंकृत करते दिल के तार! 
क्यों वे 
बेटी पर हक़ की सीमा
दामाद से तय करवाते हैं? 
कब बदलेंगे पुरातन संस्कार? 
कब रोएँगे पिता
मुझे फिर गले लगाकर! 

 ♦  ♦  ♦

 

(कविता संग्रह ‘मायने होने के’ में संकलित कविताएँ) 
 
मुस्कुराने लगे हैं पिता
 
एक बार फिर 
मुस्कुराने लगे हैं पिता! 
खिल उठी है हँसी 
पोपले गालों के बीच 
सूनी आँखों में
तैरने लगी है 
उम्मीद की नाव
 
एक बार फिर 
वे विचरने लगे हैं
स्वप्नलोक में
बसने लगी है भीतर 
उजास की अनगढ़ दुनिया 
बजने लगे हैं सितार 
साँसों में 
 
एक बार फिर 
वे खिलने लगे हैं
खुलने लगी हैं पंखुरियाँ 
 . . . नन्हा शिशु 
चहकने लगा है 
झुर्रियों के बीच
 
एक बार फिर 
माँ की माँग में 
दमकने लगी है 
सूरज की लालिमा
मुख पर रक्ताभ गगन
 
जीवन की साँझ 
कितनी सुंदर! सतरंगी! 

 ♦  ♦  ♦

 

मेरा आसमान 
 
मेरे सामने लेटा था 
वह 
सिर उठाता, फुसफुसाता 
मेरी नासमझी पर अफ़सोस जता, 
फिर धँस जाता उसी जगह 
जो उसे 
कभी प्यारी न थी
 
मैं भौचक्क
निहारा करती 
उसका उठना-गिरना 
जिसे बरसों से देखा था . . . 
गर्वोन्नत! 
स्वाभिमान से पूर! 
 
मैं 
पास बैठी सुनती रहती
उसके भीतर उमड़ते-घुमड़ते 
बादलों की आवाजाही
तैरतीं नि:शब्द ध्वनियाँ 
और मौन का कोलाहल
 
मैं
रेत पर खड़ी नापा करती 
उस समुद्र की गहराई 
 . . . जाना चाहती पार 
चुनना चाहती वे अनगिन सवाल 
जो सीप के गर्भ में थे 
पर
कुछ न कर पाने की विवशता 
कोंचती मुझे 
उसे भी! 
 
मैंने ध्यान से देखा था 
ज्वार-भाटे का उठना-गिरना 
बह जाना 
पीड़ा की अनंत कहानी का
स्पर्श से मर्म को छूते हुए 
 
मैं महसूस रही थी 
समुद्र में उफनती 
व्यथा का उद्दाम आवेग
 
मेरी हथेली पर
हथेली रखी थी उसने 
और खुलती गई थी राह 
खुलते गए थे द्वार कई 
उघरते गए थे सवाल 
परत-दर-परत
 . . . 
मौन की ताक़त तब 
मैंने जानी थी! 
तभी, हाँ! 
तभी तो जाना-समझा था, 
बदली ही नहीं घुमड़ती 
उल्का भी बरजती है भीतर 
फिर सब होता है
धुआँ-धुआँ
आसमान धुआँया-सा
 . . . अस्पष्ट! 
 
ब्लैक होल से बचकर 
निकल आने की
भरपूर कोशिश की थी उसने 
 . . . फिर सिर उठाया था
और 
हौले-से निहारा था मुझे! 
 
उस समुद्र में 
जीवन की डोर थामे 
दिखा था मुझे 
एक अबोध 
जो बुला रहा था . . . 
 
उसके पास थीं . . . 
सपनों की अनछुई पंखुड़ियाँ 
उम्मीदों की दो-चार लड़ियाँ
और 
राख हो चुके
विश्वास के भीतर 
ज़िंदा होती आस्था
फ़िनिक्स की तरह
 
वह सौंपना चाहता था
सबकुछ 
डोर से हाथ
छूट जाने से पहले
मैंने देखी थी 
चिरौरी करती उसकी आँखें 
और सँभाल ली थी 
अनमोल थाती
 
उसने फिर चिरौरी की थी 
कि ओढ़ लूँ उन्हें
हो जाऊँ एकरस उनके साथ
 . . . . . . . . . 
ओढ़ लिए थे मैंने 
वे सब बारी-बारी से! 
 
बरसों बाद मुस्काया था वह 
लरजा था . . . . . . 
बादलों ने गुनगुनाया था 
बही थी त्रिवेणी एकबारगी 
फिर तान ली थी 
मोटी चादर उसने 
मौन की
 
मैं भौचक्क! 
एक बार फिर! 
 वह शांत हो चला था 
 . . . मैं अशांत! 
वह आत्मलीन 
 मैं उसे टोहती हुई
 . . . . . . . . .! 
 
अब भी लेटा है वह 
शांत, निरुद्विग्न 
मगर, वह 
अब वह तो नहीं? 
 . . . . . . . . . 
वह हिला था
कंपित हुआ था
ब्लैक होल में जाने से पहले 
और . . . . . . 
मेरी संज्ञा भोथरी हो गई थी
 
चेतना अब भी उलझी है 
उस त्रिवेणी के मर्म में 
और 
मुट्ठी में रेत ही रेत
 
मैं लेट गई हूँ 
उसी जगह, उसी मुद्रा में
 . . . . . . . . . . . . . . . 
शोर थम चुका है
और
मेरी तलाश भी
  
मेरे सामने 
खुल गए हैं दरवाज़े 
दिख रही है 
बादलों की सतरंगी डोर
उल्का की दमक 
सुन रही हूँ 
त्रिवेणी की कलकल 
फ़िनिक्स का जीवन-राग
  
मेरे भीतर 
मुस्कुरा रहा है वह –-
मेरा पिता! 
मेरा आसमान!

 ♦  ♦  ♦

 

मासूम पल
 

रात, जब
सन्नाटे की नदी बह रही थी
तुम आए थे पिता
स्मृतियों का गुच्छा लेकर! 
मैं उनींदी आँखों से
देखती रही थी तुम्हें
जीती रही थी वे लम्हे 
बूँद-बूँद
 
वह सपना नहीं था
न ही हक़ीक़त
मगर
चेतना का द्वार 
खटखटाकर आए थे तुम! 
क्या मुझे चेताना चाहते थे
या
सुकोमल एहसासों की बँधी गठरी
खोलने आए थे तुम? 
 
पिता! 
तुम ही तो बाल संगी थे मेरे
मेरा आत्मबल! 
उम्र के पड़ावों ने समझाया था अर्थ
तुम्हारे होने का
 
ढलान से ढलते हुए
तुम हो गए थे बालक
निर्दोष, निष्पाप! 
 
मासूम आँखें तुम्हारी
ढूँढ़ती रहती थीं कुछ 
कहीं सुदूर में . . . 
शायद! 
उन लम्हों को 
जब जिया करते थे तुम
अपना बचपन
 . . . मुझमें
 
आज 
जब तुम अस्ताचल की ओट में हो
सिखा रहे हो 
पिता होने के सही मायने
और
संजो रहे हो गुम होता
मेरा बचपन
 
पिता! 
शून्य में तुम्हारी उपस्थिति
सन्नाटे में तुम्हारा बतियाना
खंगालना स्मृतियों को
जिलाए रखेगा मुझे
चेतना के पार भी
 
तुम अनंत क्षितिज तक व्याप्त 
नील गगन हो
और कभी न तिरोहित होने वाला
सूरज भी! 
 
मैं पल-पल दीप्त हो रही हूँ
तुम्हारे दिव्य आलोक से
 
रात नहीं है
न ही सन्नाटे की बहती नदी
बस तुम हो, मैं हूँ
और हैं . . .। 
साथ बिताए मासूम पल
यादों की गठरी से छलकते हुए . . 

 ♦  ♦  ♦

 

ओ पिता! 
 
ओ पिता
तुम चले गए! 
छोड़ गए रुग्ण काया 
और रुग्ण प्रश्न 
जीवन के . . . अनुत्तरित! 
 
तुम्हें जाना ही था 
नियत था सब कुछ 
फिर भी 
तुम्हारी प्रतिबद्धता 
ढो रही थी रुग्णता 
चिंता और . . . 
 रिक्तता भी! 
 
तुमने कुछ कहा क्यों नहीं? 
क्यों रहे मौन? 
क्यों नहीं परोसी अपनी झल्लाहट
हर बार की तरह? 
 
ओ पिता! 
तुम्हारी ख़ामोशी 
भयभीत करती थी मुझे 
 . . . 
अनहोनी की आशंका 
फूट पड़ी थी 
गहरे दबे बीज से 
 
तुम भी तो 
खींच रहे थे रथ
टूटे पहिये पर 
 . . . . . . . . . . . . 
‘टूटने लगे हैं अर’
समझने लगे थे तुम 
और देने लगे थे संकेत 
नियति के विधान का 
 
तुम समझ चुके थे . . . 
देश-परदेस का अर्थ
और समझाना चाहा था
मुझे भी
 . . . . . . 
तभी तो 
आँधी में भी थिर था 
चित्त तुम्हारा
 
ओ पिता! 
जाते-जाते तुमने भेद दिए . . .
मौन के असीम अर्थ
संकेत के विविध पहलू 
स्पर्श के अनगिन आयाम 
पंचतत्व के सूक्ष्म सम्बन्ध 
और 
प्रयाण की त्वरित प्रक्रिया
 
ओ पिता! 
मंझे धागे का कमज़ोर पड़ना
टूटन का अंतहीन सिलसिला 
जाने कब से गुन रहे थे तुम! 
 . . . 
मैं देह थामे रही 
और तुम
हौले से निकल लिए 
इन आँखों के सामने
बे-आवाज़! 
 
कुछ भी तो नहीं बदला था! 
 . . . सबकुछ बदल गया था! 
तुम शिव हो गए थे
देह शव! 
 
पथराई आँखें 
ढूँढ़ती रही थीं शिव को 
शव में . . . . . . 

 ♦  ♦  ♦

 

सलीब पर 
 
खूँटी पर टँगा है कुरता 
या टँगे हैं पिता 
सलीब पर? 
ज़िम्मेदारियों की कील से ठुके
लटके हैं वर्षों से
और
गर्व से तनी गरदन
झूलने लगी है धीरे-धीरे . . . 
 
झूलती बाँहों की परछाईं
गाथा सुनाती है
काँधे पर लदे
बेहिसाब दबाव का
और
हवा में लहराता हिस्सा
चिंद-चिंद होते 
तन-मन का
 
कुरता
पिता की यादों से लिपटा
उनकी देह-गंध समोए
उनके संघर्ष और 
जीवन की त्रासदी की 
अकथ कथा बाँचता
झूल रहा है . . . 
 
दिख रहे हैं पिता
झूलते हुए
सलीब पर . . .

 ♦  ♦  ♦

 

पिता का कुरता
 
घड़ी की टिक टिक 
अतीत के पन्नों की फड़फड़ाहट 
यादों की सुलगन 
और पलों का भीगना 
अच्छा लगा उसे
 
याद आई उसे 
वह साँवली किशोरी 
ख़ुशी से छलछलाता उसका चेहरा 
कि
पाई थी उसने 
आज, पिता की क़मीज़
 
ढीली-ढाली
तन पर बेढब क़मीज़ के 
रेशे-रेशे से आ रही थी 
पिता की ख़ुशबू
मलियाते रंग में बसी थी 
उनकी ईमानदारी की दमक! 
 
पिता का उतरन नहीं थी 
वह क़मीज़ 
उसने माँगी थी हसरत से 
 . . . . . . . . .
वह ख़ुश थी, बहुत ख़ुश 
मानो मेडल मिला हो उसे 
 
पिता नहीं है
वह क़मीज़ भी नहीं 
उसके हाथ में है कुरता 
पिता की ख़ुशबू से लक़दक़ 
पिता की ख़ामोशी 
और 
दर्द के बीच बुने 
ख़ुशनुमा पलों का साक्षी! 
 
एक बार फिर 
जी उठे हैं पिता
 . . . 
 पूछ रहे हैं ख़ैर-ख़बर! 

  ♦  ♦  ♦

 

जीने की ज़िद
 
जीने की ज़िद थी उसे! 
पकड़ रखी थी उसने 
साँसों की डोर
 कस कर 
 
वह जानता था . . . 
उसके जाने के बाद
बूढ़ा यह घर
मर जाएगा बेमौत
 . . . 
छिन जाएगा 
पत्नी का शृंगार 
फेंका रहेगा चाबी का गुच्छा 
 . . . . . .
साजो-सामान होंगे वही 
मन की गति बदल जाएगी 
बदल जाएगी 
पत्नी के सिंदूरी भाल पर खिंची 
रेख! 
 
वह जानता था . . . . . . 
जता न पाएगा 
कभी 
पत्नी से प्यार अपना 
और न ही 
 चिंता का सबब
कि 
तार टूट गया तो 
कभी न बजेगा सरगम 
नहीं पहन पाएगी वह 
पायल और बिछुआ 
न ही रचेगी मेंहदी
उसके हाथों में 
 
वह जानता था . . . 
उसके ढहते ही 
हिल जाएँगी दीवारें
घर की 
 . . .
सिसकेगी पत्नी
छिप-छिपकर! 
 
काश! 
ख़ुद को धुएँ के हवाले 
करने से पहले 
कभी टटोल लेता 
अपनी जिजीविषा भी! 

 ♦  ♦  ♦

 

(कविता संग्रह ‘निःशब्द हूँ मैं’ में संकलित कविताएँ) 
 
भावनद सम

 
एकांत के सार्थक क्षणों में
अक़्सर जब 
बंद करती हूँ नेत्र-सीपियाँ
दमकने लगती हैं यादें तुम्हारी
उभर आते हो तुम 
पूरे वुजूद के साथ
एक-एक पल का नायाब नमूना लिए . . . 
वे पल
जो अनमोल हैं मेरे लिए
तुमसे मिली थाती के रूप में! 
 
उन पलों में 
तुमसे झड़ते, बह-बह आते
वे मानवीय मूल्य
मेरे वुजूद को रंग दे रहे 
एक अलौकिक आभा! 
 . . . 
सच की कठोर भूमि पर
टिके रहने की अगाध शक्ति! 
और
अपनी शर्तों पर जीवन के
ताने-बाने को बुन पाने की
अनूठी क्षमता भी! 
 
 पिता! 
 तुम न होकर भी हो
 मेरे भीतर सतत प्रवाहित
 जीवनमय भावनद सम . . .
12.5.20

 ♦  ♦  ♦

 

ख़ामोशी की चहारदीवारी
 
तुम्हारी ख़ामोशी की चहारदीवारी
अक़्सर बरजा करती है
 
उसके भीतर से लहकती
ज्वाला की लपटें
बेतरह झुलसा जाती हैं 
हरियाली मन की
 
तुम खोल क्यों नहीं देते
कोई एक सिरा? 
यों 
आपस में जुड़े रहने की 
विवशता तो न होगी
उन अभेद्य दीवारों को
जिन्हें तुमने ही खड़ी की हैं
 . . . . .
क्या तुम्हें भय था 
चुप्पी के बिखरने का
जो उसे क़ैद कर दिया? 
 
क्या तुम्हेंं सुनाई नहीं पड़ रही
बरजने की कठोर ध्वनि? 
मानो ढहाकर ही मानेगी
  
सबकुछ तितर-बितर होने से
बचाने की तुम्हारी कोशिश
क्या कहूँ, कितनी नाकाम रही है! 
काश! 
तुमने क़ैद न किया होता उसे
बह जाने दिया होता
तो बच जाती हरियाली 
बच जाते तुम 
अपनी ही ज्वाला की झुलसन से! 
19.04.20

 ♦  ♦  ♦

 

मेरे सवाल
 
कितने ही किरदार निभाए 
बिना जतलाए/ बिना बतलाए
मँजे हुए कलाकार की तरह! 
 
जाते-जाते भी न छोड़ी अदाकारी
और रुखसत हो गए! 
 
क्यों पिता? 
क्यों बाँध रखी थी तुमने 
अपनी एक अलग गठरी और 
हमें दी थी हिदायत
कि छूना नहीं! 
 
तुम्हारी सूनी आँखों में
उमगते नेह को 
हमने देखा था कई बार
मगर हर बार 
तुम रेत मल लेते थे
 और 
रुक जाता था नेह 
झड़ने से पहले
 
हम
ढूँढ़ते रहे बार-बार 
तुम्हारा पिघलता रूप 
पर पहरे बिठा रखे थे तुमने
पिघलते जज़्बात पर
 
पिता! 
आज तुम नहीं हो 
फिर कौन है जो हटाए
 तुम्हारी रुखाई की अदाकारी से
 आवरण 
 और दिखा सके
 कोरा सच? 
  
 परदा उठ गया है 
 अमूर्त तुम! 
 . . . दिख रहा है 
 नन्हा उदास मूक बालक! 
  
पिता! 
 तुम बिना कठोर बने भी तो
 जी सकते थे किरदार
 जीत सकते थे दिल
 प्यार और वाहवाही
 फिर 
तुमने क्यों चुना 
 माँ के लिए घर 
 और अपने लिए 
 निहायत अँधेरा कोना? 
 
काश! 
संकेत दे जाते तुम
तो 
निकल आती मैं 
उस अँधेरे कोने से बाहर
जहाँ क़ैद हैं मेरे सवाल
आज भी . . . 

 ♦  ♦  ♦

 

फैला था उजास 
 
रात 
नींद जब भर रही थी आग़ोश में
तुम आए थे पिता
मुझे जगाने
'होने' का मतलब समझाने
 
अनुभूतियों के द्वार से
आने लगी थीं 
झिलमिल-झिलमिल किरणें
मानो 
बरस रहा हो नेह तुम्हारा
गोधूलि बेला-सी चुप-चुप
स्मृतियों पर
और बहा दे रहा हो
अवसाद का धूसरपन! 
 
मैं उनींदी आँखों से 
तुम्हेंं निहारती
समाने लगी थी तुम्हारे
कहन के भावबोध में
 . . . खुलने लगी थीं खिड़कियाँ
झाँकने लगे थे अर्थ
 
मेरे भीतर फैला था उजास
 . . . तुमसे! 

 ♦  ♦  ♦

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