वह दिलेर साथी . . .

15-06-2025

वह दिलेर साथी . . .

डॉ. आरती स्मित (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

जीवन कई बार अनगढ़ रास्तों से ले जाते हुए एक ऐसे स्थान पर ला खड़ा करता है जहाँ साधारण-सा दिखने वाला गुंबद निकट से देखने पर अपनी कला और शिल्प के कारण अनूठा प्रतीत होने लगता है। ऐसा ही कुछ होता है जब कोई राह चलते मिल जाता है और बिना नोटिस किए, चलते-चलते भी कालखंड-विशेष के उस सहयात्री के व्यक्तित्व-कृतित्व की विशेषता एक-एककर सामने आती जाती है। . . . और जब उन्हें कुछ-कुछ जानने-समझने लगते हैं तब अनायास वह तारा बन जाता है—पहुँच से दूर-बहुत दूर। फिर रह जाते हैं वे पल, जो जीवन के विविध रसों से भरे होते हैं। स्मृतियाँ कुछ ख़ास पलों को गुपचुप सँजो लेती हैं जिनके सँजोए जाने का कई बार हमें तुरंत पता भी नहीं चलता। पता चलता है साथी को मूर्त रूप में खोने के बाद। फिर, यादों में उन्हें बसर करते हुए देखकर मन को सुकून मिलता है। 

ऐसा ही एक कठोर पल सामने आया जब अशोक जी के विदेह होने के डेढ़ महीने बाद मुझे उनके भाँजे रजत से पता चला और भीतर कुछ टूटकर बिखरा। एक दिलेर साथी चला गया। एक-एककर वे सभी विदा हो रहे हैं, जिनके साथ ठहाके लगाते हुए दुश्वारियों को अँगूठा दिखाने का अपना आनंद होता था। अशोक जी बेशक मुझसे लगभग डेढ़ दशक बड़े थे, किन्तु क्या फ़र्क़ पड़ता है! हम साहित्य, कला, संस्कृति और समाज के प्रति अपने-अपने हिसाब से सेवा दे रहे थे। हमने अपनी-अपनी राह पर अपनों के कारण अधिक दुश्वारियाँ भोगी थीं और हम दोनों अलग-अलग चलते हुए भी प्रतिकूलता के अँधेरे को ठहाके की रोशनी से मात देने का हुनर सीख चुके थे, इसलिए जब मिले तो गाहे-ब-गाहे क़दम-दर-क़दम चलते हुए प्रकट होते हमारे कई समान गुणों ने हमें मित्र बना दिया। 

यादों की पोटली में बेतरतीब रखे वे गौण-से लगते पल भी अब महत्त्वपूर्ण लगने लगे हैं जो हमने यों ही टुकड़े-टुकड़े में बिना योजना के अनायास एक फ़ोन पर मिलना तय कर, ‘श्री रत्नम’ रेस्तराँ की फ़िल्टर चाय के साथ बिताए। ज़रा पीछे चलूँ तो 18 दिसंबर 2024 के बाद, कोई सूचना न मिलने के कारण अशोक जी के लिए मेरी चिंता गहन होती जा रही थी। अशोक जी ने एक ग्रुप बनाया था, जिस पर आती पोस्ट से इतना पता चल जाता था कि बेहद अस्वस्थ होने के बावज़ूद वे सक्रिय हैं और साहित्य-संस्कृति-पत्रकारिता के क्षेत्र में अब भी उनके काम की निरंतरता बनी हुई है। मैं निजी उलझनों की वजह से उन कार्यक्रमों में लंबे समय से जा नहीं पाई तो मुलाक़ात की सूरत नहीं बनी। जब मैं मिलने के लिए समय निकालती तब उनका फ़ोन नहीं उठता। बग़ैर फ़ोन पर समय तय किए जाने को पाँव न उठते। वक़्त की उठापटक के बीच एक दिन उनके भाँजे रजत को फ़ोन किया और मोबाइल झनझना उठा—“मामा जी तो नहीं रहे। . . . १३ जनवरी को ही . . .” 

मैं सन्नाटे में आ गई। मन कचोट उठा। 9 जून 2024 को अशोक जी ने मेरे कई फ़ोन मिस्ड कॉल में बदलने के बाद एक मैसेज किया था—“I don’t talk to anyone. Remembering you . . . जनवरी से कंडीशन ख़राब होती जा रही . . .” उसके बाद न कभी मेरा फ़ोन उठा, न मैसेज पर बात हुई। यह मैसेज उनके अंतिम वाक्य का वाहक बनकर रह गया। कानों में जाने कितनी देर तक लिखित शब्द ध्वनित होते रहे—“Remembering you . . .” उनके विदेह होने के लगभग लगभग डेढ़ माह हो चुके और मुझे अब पता चल रहा है कि वे बहुत दूर उस अँधेरी सुरंग में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ से वापसी होगी भी तो नए रूप में। 
 

अशोक गुप्ता, बीएसएनएल के इंजीनियर, जिन्होंने मात्र इक्कीस वर्ष में अपने करियर की शुरूआत की। 1994 में निजी कारणों से पद से असमय मुक्ति ली तो प्रॉविडेंट फ़ंड के पैसे भी छोड़ दिए और पेंशन के पैसे भी। अपने गुज़ारे के लिए गणित के केवल दो ट्यूशन लिए और शेष समय व ऊर्जा के साथ कूद पड़े साहित्य और समाज की सेवा में। 1997 ‘मयूर इन्फ़ोमेल’ पाक्षिक समाचार पत्र एवं संस्था के माध्यम से उन्होंने जीवन और समाज को गति दी। धीरे-धीरे उनका परिवार मयूर विहार के चार हज़ार से अधिक लोगों का बन गया, जिनके सुख-सुख उनके अपने हो गए। इसके अतिरिक्त भी मित्रों की एक बड़ी संख्या उनकी कमाई थी। धर्म, जाति, उम्र, पद से मुक्त केवल नाम और व्यवहार ही उनके दिल के खाते में दर्ज़ होते। वे भाव, विचार और व्यवहार में स्पष्टता के प्रेमी रहे और कोई काम हाथ में लिया तो उसे तय समय पर समाप्त करने को संकल्पित रहे। पेशे से इंजीनियर, गणित और अंग्रेज़ी के गहरे जानकार, मगर चुनींदे हिंदी साहित्यकारों को भी उतना ही पढ़ते, पढ़ते ही नहीं, अँग्रेज़ीदाँ समाज को अंग्रेज़ी के साथ ही हिंदी पुस्तकों से जोड़े रखने के लिए नि:शुल्क बुक क्लब भी संचालित करते। मेरे लिए भी वे एक अच्छे और अनूठे पाठक मित्र रहे जिन्हें समय ने बहुत बार कोशिश की तोड़ने की, मगर वे तो जैसे प्रतिकूलताओं पर दोनों पैर स्थिर कर, ठहाके लगाने वालों में से एक थे। संभवतः उनके ये गुण ही हमारी मैत्री का आधार बने होंगे। या यह भी कि विगत दस वर्षों से वे लगातार मेरी पुस्तकों से बतौर पाठक जुड़े रहे और कहानियों पर अपनी प्रतिक्रिया से हैरान करते रहे। ऐसा जीवट, ऐसा संवेदनशील साथी जो कैंसर के दो-दो ऑपरेशन के बाद भी दोस्तों के साथ दिन भर आउटिंग की इच्छा रखता हो, जो दिल्ली के शोर से हटकर बने बुज़ुर्ग के लिए बने आशियाने को देखने और रिज़र्व करने के लिए तैयार हो, कुछ अनूठा ही होगा। वे हँसते हुए कहते—

“यार आरती! कैंसर का तीसरा ऑपरेशन नहीं कराऊँगा। पैसे नहीं हैं यार। मैं ठहरा फक्कड़ आदमी। दोस्तों ने मेरे लिए जितना किया, क्या कम है! पता नहीं कैसे दो-दो बार इतने ख़र्च निभ गए! डॉक्टर कहते हैं, तीन साल की लाइफ़ होगी। क्या करना है। कर लिया जो करना था। मयूर इन्फ़ोमेल अख़बार भी लगता है, बंद करना पड़ेगा। थक जाता हूँ। ट्यूशन भी लगातार नहीं पढ़ा पाऊँगा, एकाध तो पढ़ाता रहूँगा। . . . बच्चे जब इंजीनियरिंग में एडमिशन के लिए सेलेक्ट हो जाते हैं तो आशीर्वाद लेने आते हैं तो लगता है, कुछ किया है। कात्यायनी में नाटक करना हो, मंदिर कैम्पस में बच्चों के कम्पीटिशन, रक्तदान शिविर, मुफ़्त जाँच शिविर या कोई और कार्यक्रम करने होते हैं तो मैं अकेला थोड़े होता हूँ, मेरे साथी होते हैं। उनका प्यार, सम्मान और विश्वास मुझसे इतना कुछ करा लेता है। और अरुण तो मेरा जिगरी यार है . . .” ऐसी कितनी-कितनी ही बातें कैंसर के पहले ऑपरेशन के बाद की मुलाक़ातों के दौरान वे बताते रहते। उनके कुछ कार्यक्रमों में मैं शामिल भी रही और उनका जज़्बा भी देखा। 

अशोक जी जैसे साथी इस बात पर यक़ीन गहरा जाते हैं कि आपकी डेस्टिनी तय है। आप जिस काम के लिए मनुष्य रूप में आए हैं, वह पूरा करके जाएँगे। एक इंजीनियरिंग क्षेत्र का व्यक्ति पूरी तरह समाज के विविध क्षेत्रों में, निजी एवं सामूहिक योगदान में स्वयं को समर्पित कर दे, यह आंतरिक प्रेरणा से ही होता है। अशोक जी ने कई बड़े अस्पतालों जैसे—मैक्स, धरमशिला, जीवन अनमोल आदि के साथ मिलकर जनकल्याण हेतु रक्तदान, मुफ़्त जाँच, मुफ़्त चिकित्सा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता से संबद्ध अनेक कैम्प लगाने के साथ ही अपनी टीम सहित मैराथन में भागीदारी, कैंडल मार्च, सफ़ाई अभियान, ग़रीबों के लिए कपड़े-जूते आदि का वितरण, चित्र प्रतियोगिता, लोकपर्वों पर सौहार्द मिलन का आयोजन, कवि सम्मेलन, क्लासिकल नृत्य-संगीत कार्यक्रम का आयोजन, नाटक मंचन का आयोजन, वृक्षारोपण आदि-आदि कितने ही ऐसे कार्य सम्पन्न किए, जिनकी रूपरेखा वे बनाते और उनका दल साथ देता। 

तेरह वर्ष बीत गए। यह अवधि किसी को बहुत न सही, थोड़ा समझने के लिए कम नहीं है। यादों की सिलवटें ठीक करूँ तो एक पल सामने आकर ठहर जाता है। वर्ष 2012, ‘इंडियन सोसाइटी ऑफ़ ऑथर्स’ के एक कार्यक्रम में कुंजु साहब के साथ आए थे अशोक जी! लंच ब्रेक में उन्होंने परिचय का लेन-देन किया। फिर भूले-भटके कभी फ़ोन पर संवाद आरंभ हुआ। ‘मयूर इन्फ़ोमेल’ के निदेशक, सर्वेसर्वा अशोक जी विनोदनगर में रहते थे। मयूर विहार मेट्रो स्टेशन के पास उनका छोटा-सा चेंबर था जहाँ कलाकार/कला मर्मज्ञ, जज, वकील, पत्रकार, साहित्यकार से लेकर अन्य पेशे से जुड़े मित्रों की आए-दिन बैठकी होती। अशोक जी सम्मानपूर्वक संवाद ज़ारी रखते हुए, अख़बार समय पर बाँट आने के लिए नवयुवा कर्मचारियों (जो ग़रीब छात्र कुछ काम करके अपनी पढ़ाई का ख़र्च निकाल लेते थे) को निर्देश देते जाते। जब वे लोग अख़बार बाँट आते तो उन्हें समोसा मँगाकर खिलाते। उन्हें कहीं भी जाते हुए पानी की बोतल साथ रखने की याद ज़रूर दिलाते। उनके इसी चेंबर में कई सज्जनों से मुलाक़ात हुई। अशोक जी मुझसे उम्र, अनुभव में बहुत बड़े थे, सिर्फ़ हम दोनों बैठे हों या फ़ोन पर संवाद हो तो हास-परिहास बालमित्र-सा भले ही हो, किन्तु किसी से मिलवाते तो बड़े सम्मान से यह बताते हुए कि “ये हैं डॉ. आरती स्मित, जिनकी पुस्तकें बुक क्लब में हैं। मैं इनकी कहानियाँ पढ़ता रहता हूँ। अमुक-अमुक पुस्तक इन्हीं की है . . .” 

सामने वाले की आँख में उमड़ते सम्मान भाव से मैं संकुचित होकर कहती, “पहले इन्हें पढ़ लेने दो अशोक जी, ये ख़ुद फ़ैसला करेंगे, मैं कैसी रचनाकार हूँ। आप तारीफ़ न करो . . .” 

“भई, मुझे जो लगता है, क्लीयर कहता हूँ।” 

“अशोक जी मुँहदेखी बात कहने वालों में से नहीं हैं,” सामने वाला उनके कहे पर मुहर लगा देता तो मैं चुप लगा जाती। 

2013 में मेरे पहले कहानी संग्रह ‘बदलते पल’ की एक-एक कहानी पर उन्होंने सहज संवाद के दौरान जब अपने विचार प्रकट किए, मैं अचंभित रही। क्योंकि उन्हें एक एक्स इंजीनियर के रूप में ही जानती थी। ज्यों-ज्यों परिचय बढ़ा, उनके रुझान और कार्यक्षेत्र को जानकर अच्छा लगा। समाज के हर जाति-वय-क्षेत्र-वर्ग को साथ लेकर चलने की मेरी प्रवृत्ति उनसे मेल खा गई तो मित्रता का द्वार चौरस हुआ। 2013 में पेंटिंग कॉम्पीटिशन में उन्होंने मेरी बेटी को प्रतिभागी के रूप में शामिल होने की सलाह दी। दोनों बच्चे शामिल हुए। जज कोई बड़े चित्रकार थे। अशोक जी ने निर्णय होने तक जज से अपनी दूरी बनाए रखी। जहाँ तक याद आता है, किसी पेंटिंग पर नाम नहीं था, कोड था। मैं इस आयोजन में सहयोगी के रूप में जुड़ी। धीरे-धीरे ‘मयूर इन्फ़ोमेल’ मेरा और मैं उसका हिस्सा बन गई। हमारी बातचीत जीवन से भरी होती निजी सुख-दुःख से लेकर आस-पास की ज़िंदगियों और समय के बदलाव पर बात होती। जब दिमाग़ गंभीर स्थितियों से गुज़र रहा होता, तब हम किसी न किसी बात पर ख़ूब हँसते। याद ही नहीं रहता, आमने-सामने नहीं, फ़ोन पर हैं। कभी लंबी बातचीत नहीं। कभी महीनों बात नहीं, कभी महीने में दो बार भी। संघर्ष और दर्द को कम करने की दवा थी हँसी। और हँसने का माहौल बनाती थीं किसी विषय पर लाइट मूड में की गई बातें। उस समय वे बिलकुल बच्चे बन जाते थे। मैं भी। जब उनका शरारती मूड होता तो मुझे ‘भूतनी’ संबोधित करते या ‘ए छोरी’। मैं भी पलटकर उन्हें ‘भूतनाथ’, ‘दादाजी’ संबोधित करती फिर हमारी हँसी की पोटली धीरे से खुल जाती और कितनी ही बातों पर हम हँसते रहते। यह अधिकतर फ़ोन पर ही होता। 

इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक, विशेषकर पूर्वार्द्ध मेरे लिए बेहद कठिन रहा। किन्तु, ‘कठिन दौर में ही कुछ अच्छी बातों की नींव पड़ती हैं’, मैं हमेशा मानती रही हूँ और ऐसा पाया भी। 2013 में, मेरे जन्मदिन पर उनके विशेष आग्रह पर मयूर विहार आई। मयूर विहार मेट्रो से निकलने के बाद श्रीरत्नम में फ़िल्टर चाय या कॉफ़ी हमने पी और उन्होंने कलाई आगे बढ़ाने को कहते हुए एक सुनहरी बेल्ट वाली घड़ी निकाली और कहना ज़ारी रखा, “तूने कहा था न, मेट्रो की भीड़ में तेरी सुंदर-सी घड़ी गिर गई। फिर मिली नहीं। ये बहुत सुंदर तो नहीं, मेरे बजट के हिसाब से है—लेकिन तू एडुकेशन फ़ील्ड की है, तुझ पर अच्छी लगेगी। बाँधकर देख।” 

“अशोक जी! मुझे तो याद भी नहीं कि मैंने कहा था!” 

“फिर मुझे कैसे मालूम कि तुम्हारी घड़ी खो गई।” 

उनकी बात सही थी। कभी मैंने चर्चा की होगी। मैं भूल गई, उन्हें बात याद रही। मैं चुप लगा गई। अनायास मेरे शब्द खो गए थे। सोचकर भावुक हुई, दिल्ली ने आते-आते कुछ अच्छे सम्बन्ध सौंप दिए, ऐसे चुनींदे व्यक्तित्व जो मित्र बनकर भी अभिभावकीय दृष्टि रखते हैं, अशोक जी भी उनमें शामिल हो गए। उनकी भावना की पवित्रता और सरलता ने भावुक कर दिया और वह घड़ी बेशक़ीमती हो गई। 

“चल-चल, मेट्रो तक छोड़ दूँ। घर पर बच्चे तेरा बर्थ डे प्लान किए होंगे। और बेटी को मेरी ओर से टॉपर होने की बधाई देना। ऐसे कठिन समय में तेरह ब्राँचों में टॉप करना मामूली बात नहीं है। तेरे दोनों बच्चे बहुत आगे जाएँगे। देखना।” 

मैं मेट्रो में सोचती रही, इस स्नेह को क्या नाम दिया जाए। उस समय तक मुश्किल से हमारी एक या दो मुलाक़ात हुई होगी। फिर एक लंबा अंतराल गुज़रा। कुछ व्यस्तताएँ, कुछ विवशताएँ, जिनमें मैं उलझी रही। 2015 को मैं भी पूर्वी दिल्ली ही शिफ़्ट हुई। 2016 को कुछ पुस्तकें प्रकाशित होकर आईं। इसके बाद एक छोटी मुलाक़ात का संयोग बना। ‘साहित्यायन ट्रस्ट’ के हमारे साथी न्यासी ब्रजेंद्र त्रिपाठी से भी उन्हें मिलवाया। हम मिलकर कुछ कार्यक्रम करने की योजना बनाते, किन्तु मेरे बेटे की लंबी अस्वस्थता के कारण वह हो न सका। 

 

उँगलियों पर मुलाक़ात गिनूँ तो 2022 से पूर्व कुछ एक बार ही मिलना हुआ। जब-तब फ़ोन और मैसेज पर ही संवाद ज़ारी रहा। हमारी बातचीत खिलंदड़ बच्चों-सी ऐसी बेपरवाह होती कि मेरे बच्चे भी समझ जाते, अशोक अंकल से बात हो रही है। जीवन में ऐसे कुछ रिश्ते बेहद महत्त्वपूर्ण होते हैं, जहाँ रोज़ के तनाव, दबाव से परे खुलकर, ठठाकर, बेपरवाह होकर आप संवाद कर सकें—बिना गार्डेड हुए। ऐसा नहीं होता कि संवाद का स्तर कमतर होता, बल्कि सहज सुलभ वातावरण भीतर के कसे नसों को राहत देकर व्यक्ति को आगे के लिए तैयार कर देता है। मुझे अफ़सोस है कि उनके हर कार्यक्रम में आमंत्रण के बावज़ूद मैं अपने कार्यों, अपनी ज़िम्मेदारियों की तय सीमा-रेखा में उलझकर या अन्य किसी कारणवश कई बार शामिल नहीं भी हो पाई। वर्ष 2020-2021 ने उलझाए ही रखा। वर्ष 2020 के कोरोना की चपेट में आए अशोक जी को कोरोना ने नहीं, उससे बचाव की सलाह ने डँस लिया। सही इलाज़ और हवा में हो रहे प्रयोगों के दौरान डॉक्टर की सलाह पर लगाई गई महँगी सूई उनके जीवन को स्याह कर गई। कोरोना तो कुछ न बिगाड़ सका मगर उस सूई के दुष्प्रभाव ने उन्हें आँत से संबद्ध ‘रेक्टल कैंसर’ सौंप दिया। एक जीवट इंसान बीमारी के इस चक्रव्यूह में रहते हुए भी किस तरह स्वयं को हिम्मत देता रहता है और सामाजिक-साहित्यिक कार्यों को बंद नहीं होने देता, यह उनमें देखा। जून 2021 में उनका कैंसर पकड़ में आया। स्थिति बिगड़ चुकी थी। फिर शुरू हुई कीमोथेरेपी/रेडिएशन के दर्द भरे दौर से गुज़रते हुए पहले ऑपरेशन की प्रक्रिया। संयोग ऐसा बना कि वह ऑपरेशन उनके जन्मदिन के दिन, 10 दिसंबर को ही हुआ। इसकी सूचना उन्हें मात्र एक शाम पहले दी गई। नज़दीकी मित्रों को सारे दायित्व समझाकर अस्पताल में भर्ती हुए अशोक जी ने ऑपरेशन थिएटर जाने से पहले केक मँगवाकर काटा। जीवन का उत्सव मनाया और मुस्कुराते हुए गए। महीने-दो महीने के बाद वे फिर साहित्य-समाज से जुड़े कामों में सक्रिय हुए। वर्ष 2022 में उन्होंने कई बड़े और यादगार कार्यक्रम किए। वर्ष 2022 के आरंभिक महीनों में उन्होंने सारी बात तसल्ली से बताई थी। 

दुर्भाग्य यह कि डॉक्टर के फ़ैसले की ज़रा-सी चूक ने उन्हें दूसरी बार कैंसर की ओर धकेला। डॉक्टर द्वारा रेक्टम को पूरा न निकालना उनके जीवन के लिए महँगा पड़ा। दर्द, परेशानी, ख़र्च से जूझते हुए भी उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। 5 दिसंबर 2022 को दूसरी बार कैंसर होने की रिपोर्ट आने के बाद, 10 दिसंबर 2022 यानी उनके जन्मदिन को दूसरे ऑपरेशन के पूर्व की रेडिएशन और कीमोथेरेपी धरमशिला अस्पताल में फिर शुरू हुई। इस बार भी वे हँसते रहे, कहते रहे, “मेरा जन्मदिन तो यादगार होता जा रहा है।” मगर इस बार वे चौवालिस घंटे अस्पताल में न रहकर रेडिएशन के बाद कीमो की जो स्लाइन उन्हें चढ़ाया जाता, उसकी व्यवस्था कर वे शाम को अस्पताल छोड़ देते। मेरी ड्यूटी अक्सर दोपहर बाद जाकर बैठने और उनके साथ लौटने की होती। साथ भी उनके एक-दो युवा साथी होते जो अस्पताल से घर तक पहुँचाने का भी दायित्व निभाते। उस हालत में भी अपने तीन मंज़िलें फ़्लैट में वे हँसते-मुस्कुराते ही जाते। इस बार उन्होंने दीपित से कुछ कहा और फिर ई रिक्शा में बैठते हुए बोले, “आरती! कुंजु साहब मेरे लिए सुबह से चिंतित हैं। इतने बुज़ुर्ग हैं, लेकिन मेरे मित्र हैं और क्या बताऊँ, मुझे कितना प्यार करते हैं। तो, अभी हम घर नहीं जाएँगे। कुंजु साहब के घर चलते हैं। दीपित केक लेकर आएगा। उनके साथ केक काटेंगे। जन्मदिन सेलिब्रेट करेंगे। फिर जाएँगे। तुझे देर होने लगे तो वहीं से घर चली जाना। ऐसा ही हुआ। हम बिना सूचना दिए कुंजु साहब के द्वार पर दस्तक दे रहे थे। जब उनकी केयर टेकर ने दरवाज़ा खोलकर उन्हें बताया तो उनके चेहरे पर चिंता और अचानक मिली ख़ुशी का मिला-जुला रंग छलक आया। उनके शब्दों में दोनों भाव ठूँस-ठूँसकर भरे थे। अशोकजी उनके आगे वैसे ही बाल-सुलभ भावों से भरे दिखे जैसा अपने आत्मीय अभिभावक से मिलकर महसूस होता है। यह पहला दिन था, जब कीमों की थैली स्वयं पकड़े हुए एक हाथ पर सुइयों से बिंधी त्वचा पर चिपकी पट्टी और उससे लगी नली सँभालते हुए भी आनंदित होते अशोकजी को देखकर सभी चकित होते रहे। उन्हें सामने पाकर कुंजु साहब की घबराहट दूर हुई। दीपित केक ले आया। दो-चार परिचित भी आ गए। उन्होंने केक काटा। हमें खाता देख-देखकर ख़ुश होते रहे। पॉप कॉर्न और कॉफ़ी के दौर के बाद हम विदा हुए। इसके बाद हर पंद्रह दिन पर कीमोथेरेपी होती और मेरी उपस्थिति भी। 

दूसरी कीमोथेरेपी के बाद जब हम घर आए तो उन्होंने कहा, “आरती! क्यों न इस मोमेंट को कैच करें। आ, बैठ। सेल्फ़ी लेते हैं।” मैं उनके पास जा बैठी और उन्होंने सेल्फ़ी ली। हँसी-हँसी में बीते वे पल आज मेरी स्मृति के ख़ज़ाने का हिस्सा हो गए हैं। कीमो के वे चौवालिस घंटे उन पर भारी होते मगर वे घर से ही सारे कार्य संचालित करते रहते। मैंने अनुभव किया, वे जीवन में भी गणित के हिसाब से चलने लगे थे। कीमो के दिन या घर पर आने वाले मित्रों के लिए कहते, “हर एक का समय क़ीमती है। फिर एक बार में चार लोगों का समय क्यों बरबाद किया जाए? मैं सबसे पूछ लेता हूँ, जिसको जब सुविधा हो, टाइम बता दो तो मैं वैसे बुलाऊँगा। ताकि किसी का समय बरबाद न हो।” एक बार उन्होंने कीमो के दिन अस्पताल आने से मना कर दिया—“वहाँ के लिए लोग हैं, तू ऐसा कर। कल घर आ जा। बातें करेंगे, कॉफ़ी पीएँगे और लुडो ख़रीद लाना तो लुडो खेलेंगे।” 

और मैंने ऐसा ही किया था। उस हालत में भी वे अभिभावक की तरह मुझे खिलाने के लिए परेशान होते। “देख न, फ़्रिज में क्या है? फ़्रूट काट ले, दोनों खाएँगे। . . . ये मेरी छोटी बहन ने भेजा है। खाकर देख . . .” उनकी बहन से और रजत से भी अलग-अलग दिनों में घर पर मुलाक़ात हुई। मयूर विहार के युवा साथी दीपित गोयल ने उनका बहुत साथ दिया। अस्पताल लाने-ले जाने का दायित्व उसने सँभाल लिया था। अन्य लोग तो होते ही। अरुण जी अपने काम की परवाह किए बिना एक कॉल/मैसेज पर हाज़िर रहते। अपने क़रीबी मित्रों पर उन्हें गर्व था। 

एक दिन उन्होंने मोबाइल पर फ़्रेंड लिस्ट दिखाई। फिर बोले, “देख, अब तू भी मेरे उन मित्रों में शामिल है, जिन्हें मैं ज़रूरत पड़ने पर आवाज़ दे सकता हूँ। कई महिला मित्रों के नाम काट दिए। वे केवल अपनी सुविधा देखने वाली हैं और अपना रोना रोने या अपनी बात कहने के लिए जुड़ती हैं या फ़ोन करती हैं। थकने लगा हूँ अब . . .” 

जब भी घर पर मेरा जाना हुआ, उनके व्यक्तित्व के अलग-अलग पहलुओं को जानने का अवसर मिला। वे अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखते, कभी-कभी विचार भी। जब मैं सामने होती तो सुनाते। या थके-लेटे होते तो मोबाइल आगे बढ़ा देते, “आरती, पढ़। . . . ठीक लिखा है?” 

“ठीक-ख़राब कुछ नहीं होता। आप अपनी संवेदनाओं को लिख रहे हो, यह ज़रूरी है।” 

“हाँ यार! पहले भी लिखा, कभी रखा नहीं। इस मोबाइल में भी कितने होंगे! तू पढ़ेगी तो भेज दूँगा।” 

इस तरह उनके भीतर के संवेदनशील इंसान को जानने-समझने का अवसर मिला। वे इन दिनों हँसी के पीछे का दर्द भी साझा करने लगे थे। अपनी चिड़चिड़ाहट और अनायास आए क्रोध पर कभी-कभी क़ाबू न रख पाने के कारण दुःखी भी होते। मैं उनकी शारीरिक-मानसिक स्थिति समझ पा रही थी, इसलिए कभी वे नाराज़ भी होते तो कभी बुरा नहीं मानती थी। ऑपरेशन के बाद आने पर उनके छोटे कमरे को कैसे व्यवस्थित किया जाए कि सेवा के लिए आई बहन या भाँजे को दिक़्क़त न हो, इसकी फ़िक्र करते और सलाह माँगते। एक दिन यों ही मैंने कलाई पर बँधी घड़ी दिखाते हुए पूछा, “अशोकजी! यह घड़ी पहचानते हो?” 

वे समझ नहीं पाए। 

“2013 में मेरे जन्मदिन पर आपका तोहफ़ा . . . ” 

“तूने दस साल से इसे सँभालकर रखा है!” 

“सँभालकर रखा है? पहन रखा है। यानी अब भी यूज़ करती हूँ। वैसे मेरे पास दूसरी घड़ी भी है।” 

“इस जन्मदिन पर तुझे घड़ी दूँगा। महँगी नहीं दे सकता। लेकिन दूँगा ज़रूर। तू पहनेगी न?” 

“अरे, दो-दो घड़ी हैं। और क्या करना हैं?” 

“नहीं, मैं भूल गया, तूने अब तक मेरे गिफ़्ट को इतने प्यार से रखा। इसलिए देने दे। तू उस दिन दो मिनट के लिए मिल लेना।” 

अशोक जी समय के जिस चक्र में फँसे थे और गुज़र रहे थे, उनकी ख़ुशी के लिए मैंने हामी भर दी। 

21 फरवरी 2023 से उनके कैंसर के दूसरे ऑपरेशन की प्रक्रिया शुरू हुई। यह अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले का समय था। मैं आने वाली पुस्तकों और पुस्तक मेले में व्यस्त रह सकूँ, इसलिए उन्होंने मेरी ड्यूटी बदल दी। कहा, “ऑपरेशन वाले दिन तो कई लोग रहेंगे। बहनें भी रहेंगी, साथी भी। तू अस्पताल मत आना। मैं किसी साथी को बोलूँगा जाकर विज़िट करने। तेरी नई किताबें बुक क्लब के लिए लेनी भी हैं।” 

मैं बाद में मिलने गई। उन्हें कुछ दिन आराम करना था, मगर दिमाग़ तो मानो दौड़ता रहता। ऑपरेशन से पहले अख़बार के अगले अंक का इंतज़ाम कर गए। 5 मार्च 2023 को पुस्तक मेले से लौटकर उनके पास गई। वे इंतज़ार कर रहे थे। जाने के बाद मैंने कॉफ़ी बनाई और फिर उनके ऑपरेशन से लेकर पुस्तक मेले तक की बातें होती रहीं। थोड़े उलझे-से लगे तो मैंने टोका। उन्होंने खेद प्रकट किया, “देख न! इस बार मैं अस्पताल में रहा तो मेरी टीम से कोई बुक फ़ेयर में गया ही नहीं। ख़त्म हो गया क्या?” 

“नहीं, आज अंतिम है। वहीं से आ रही हूँ। दो घंटे और . . . ” मैंने कलाई पर बँधी घड़ी देखते हुए कहा। 

“मेरा एक काम कर। तू पब्लिशर को फ़ोन पर मेरे लिए बुक्स बुक कर दे। कितने हुए, पूछ ले। मैं अभी पेटीएम कर देता हूँ। अगली बार जब आएगी तब लेती आना।” 

“सीधे यहीं का पता दे देती हूँ।” 

“नहीं, तेरे सिग्नेचर होने चाहिएँ। तेरे हाथ से ही लूँगा।” 

मैंने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए स्वयं को सम्मानित महसूस किया। जिस रचनाकार के पास ऐसे पाठक हों, वह कितना समृद्ध है! मैंने तुरंत कॉल किया। शाम के सात से अधिक बज चुके थे। मेला समापन की ओर अग्रसर था। ज़ोया ने बताया, “मैम! सब पैक हो रहा है। सर इस बुक फ़ेयर के अंतिम रीडर ही होंगे। मैं सर के लिए बुक्स निकालकर बिल बना देती हूँ।” अतिरिक्त छूट के साथ इस अनोखे पाठक की भावना का सम्मान किया गया। मेरे निर्देश पर किताबें बाद में मेरे घर भेज दी गईं जिसे लेकर मैं स्वयं गईं। यह दूसरी बार हुआ जब किसी पाठक के आग्रह पर मैंने अपनी किताबें स्वयं बुक की। दोनों बार अलग-अलग कारण रहे थे। यह कारण भावुक कर देने वाला था। 

एक दिन उन्होंने बताया, “धरमशिला अस्पताल की ओर से एक डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बन रही है। एक साहसी कैंसर पेशेंट के रूप में उनके ऊपर भी फ़िल्म बनेगी। आर्टिस्ट और उस टीम के अन्य लोग घर आकर शूट करेंगे।” उनकी हिम्मत और जीवन जीने की कला की मैं भी प्रशंसक थी। मेरे मुँह से निकला, “आप पर तो बड़े लेख लिखे जाने चाहिए।” 

“ए छोरी! तू लिखेगी? तुझे बताऊँगा लाइफ़ हिस्ट्री।” 

“ज़रूर लिखूँगी।” 

वे ख़ुश हुए। आज उनके द्वारा संबोधन में चिढ़ाने का भाव नहीं, स्नेह और अपनत्व का भाव महसूस हुआ। इस दौरान वे कभी-कभी ‘बेटा’ कहकर पुकारने लगते। 

 

जब तक अशोकजी बेडरेस्ट में रहे, मेरा आना-जाना लगा रहा। मैं उनकी ब्लैक कॉफ़ी और अपनी मिल्क कॉफ़ी लेकर बैठती। हम थोड़ी देर गप्पें लगाते, साँप-सीढ़ी खेलते, फिर मैं विदा होती। उनके भीतर किसी विषय-वस्तु के प्रति मोह का आभास कभी नहीं मिला। ठोस मित्रता उनकी शक्ति भी थी और कमज़ोरी भी, इसलिए जब वर्षों पुराना जब कोई साथी उन्हें/उनकी अवस्था को न समझ पाता तो वह व्यवहार उन्हें कचोटता, अवसादित करता। ठीक होने के बाद वे फिर अपनी भूमिका में आ गए। मैं भी अप्रैल से अगस्त तक बुरी तरह व्यस्त हो गई। बीच के कालखंडों में यों ही आते-जाते कुछ मिनटों की मुलाक़ात हुई। किन्तु कीमो और रेडिएशन के दुष्प्रभाव ने उनके दिल को चपेट में लिया। वे लड़ते रहे, सहते रहे, मुस्कुराने की कोशिश करते रहे और ख़ुद को चलता-फिरता रखने की कोशिश भी। उनके हार्ट के ऑपरेशन के समय मैं बाहर थी। दिल्ली आने के बाद मिलना हो पाया था। 

1 अगस्त को उनका मैसेज या कॉल आया, मैं अपने साथी (नाम मुझे स्मरण नहीं) के साथ मॉल आया हूँ। दो घड़ी की फोटो भेजी है, एक पसंद कर। मैंने उन्हें पसंद बता दी। फिर बताया, “मैं ट्रेन में हूँ। माँ के पास जा रही हूँ तो कल नहीं मिल पाऊँगी।” 

“कोई बात नहीं, तेरी अमानत रखी रहेगी। जब आएगी, तभी सही।”

बेटी को विदेश रवाना करने और बेटे को पुणे विदा करने के बाद उनसे मिली। डर था, नाराज़ होंगे, मगर वे शांत और ख़ुश थे। उन्होंने बेटी की क़ामयाबी के लिए बधाई दी। इससे पूर्व मयूर इन्फ़ोमेल प्रिंट किया कप वे बेटी के लिए बतौर तोहफ़ा भेज चुके थे। जब भी मिलना होता, उनकी शारीरिक अवस्था और बीमारी से वे किस साहस से लड़ रहे हैं, इस पर चर्चा करते। मैं देख पा रही थी, वे थोड़ी जल्दी थकने लगे हैं। ऐसे ही किसी दिन उन्होंने अलमारी खोली और कुछ ढूँढ़ने लगे। पहले तो कमर की नई बेल्ट निकालकर रखी। फिर कुछ ढूँढ़ने लगे। थोड़ी देर में थककर बैठ गए।

“यह नया है। तू कुर्सी पर बैठकर लगातार लिखती है, तेरे काम आ जाएगा। मैंने अपने लिए मँगाया था, लेकिन मुझे मना हो गया तो पैकेट खोला ही नहीं। कैमरा भी ढूँढ़ रहा था। कई लेंस हैं उसमें। मैं तो पता नहीं अब उसको कभी यूज़ कर पाऊँगा या नहीं, वह भी नया ही है। तेरी बेटी चित्रकार है और अच्छी फ़ोटोग्राफ़र भी। उसे देना चाहता था। आज का लेटेस्ट कैमरा जब ख़रीद लेगी तब तक तो यूज़ करेगी। चाहेगी तो तेरी तरह वह निशानी रखेगी।”

“अभी आप परेशान न हों, जब मिलेगा तब दे देना।” 

बात आई-गई हो गई। संभवतः 2023 के बाद उनके घर पर जाना भी न हुआ, न इत्मीनान से बातचीत ही हो पाई। 2023 के अंतिम दो-तीन माह में कुछ आउटडोर साहित्यिक कार्यक्रमों की व्यस्तता रही, कुछ परिवार में ऑपरेशन वग़ैरह का चक्कर। इस दौरान, उनकी परेशानी बढ़ती गई। वे चिड़चिड़े होते गए, बावज़ूद उन्होंने हिम्मत न छोड़ी। अपनी हालत और अपने हालात से विवश होकर संभवतः वे अपने आपसे नाराज़ रहने लगे, इसलिए अपने जन्मदिन पर उन्होंने पूरे दिन फ़ोन बंद रखा। बिना बात किए उनसे मिलने जाना कठिन रहा। उनकी हालत बिगड़ती रही, मैं सूचना के अभाव में फिर मिल न पाई। ग्रुप पर आए मैसेज औरों के बारे में या कार्यक्रम की सूचना दे रहे थे, उनकी तबियत की नहीं। इसलिए भी उनकी बिगड़ती स्थिति का पता न चला। और . . . धमाके के साथ उनके वाक्य कानों में गूँजे—“ए छोरी! मेरे बारे में लिखेगी न!”  

मुझे क़लम उठाने में एक माह लग गया। स्मृतियाँ उमड़ती-घुमड़ती हुई, जब उनके आसपास होने और अतीत को दृश्य बनाती हुई मुझे नींद से जगाने लगीं तो धीरे-धीरे उन स्मृतियों को रूपाकार देने की कोशिश करती हुई उन्हें आवाज़ दे रही हूँ—

“मैंने वादा दिया था अशोक जी! मगर यह नहीं चाहा था कि आपके जाने के बाद याद करती हुई लिखूँ, इस रूप में। लिख रही हूँ, शब्द ध्वनित हैं . . . आप सुन रहे हैं न!” 
 

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