अदालत की कहानी है
अविनाश ब्यौहारअदालत की कहानी है
कथन भी तो ज़ुबानी है
अगर हम सिर छुपाएं तो
न छप्पर है न छानी है
बुढ़ापा गर नज़र आए
निरर्थक ये जवानी है
जहाँ पर पेट भरता है,
वहाँ पर अन्न-पानी है
अगर वो ही भिखारी है
ख़ुदा समझो कि दानी है
फँसे हैं मोह-माया में
मगर इंसान फ़ानी है
पराया हम जिसे समझे
असल में मित्र जानी है
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