महानगर के चाल-चलन
अविनाश ब्यौहारमहानगर के चाल-चलन
औ रीति-रिवाज़ निराले।
यानि गाँव लगते हैं जैसे
माँ-बाप सरीखे।
सेवा-टहल बूढ़ों की करना
कोई न सीखे॥
हैं उजले-चमकदार दिन भी
लगते मुझको काले।
शहर का जन-जीवन
लगता है कि फ़ास्ट हो गया।
अगले चौराहे पर भीषण
बम ब्लास्ट हो गया॥
पैसों की ही दुनिया है
चाहे तो मौज उड़ा ले।
दो घड़ी चैन नहीं है
केवल भागम-भाग है।
समझ न आता लोगों में
द्वेष है या राग है॥
ज़ुल्म देखने वालों के
मुँह पर जड़े हुए ताले।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- गीत-नवगीत
-
- आसमान की चादर पे
- कबीर हुए
- कालिख अँधेरों की
- किस में बूता है
- कोलाहल की साँसें
- खैनी भी मलनी है
- गहराई भाँप रहे
- झमेला है
- टपक रहा घाम
- टेसू खिले वनों में
- तारे खिले-खिले
- तिनके का सहारा
- पंचम स्वर में
- पर्वत से नदिया
- फ़ुज़ूल की बातें
- बना रही लोई
- बाँचना हथेली है
- बातों में मशग़ूल
- भीगी-भीगी शाम
- भूल गई दुनिया अब तो
- भौचक सी दुनिया
- मनमत्त गयंद
- महानगर के चाल-चलन
- लँगोटी है
- वही दाघ है
- विलोम हुए
- शरद मुस्काए
- शापित परछाँई
- सूरज की क्या हस्ती है
- हमें पतूखी है
- हरियाली थिरक रही
- होंठ सिल गई
- क़िले वाला शहर
- कविता-मुक्तक
- गीतिका
- ग़ज़ल
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-