कबीर हुए
अविनाश ब्यौहारकोर्ट-कचहरी के सपूत
दावागीर हुए।
हैं पैसों के
यार वकील।
न्याय की बुझती
है कंदील॥
रुग्ण नैतिकता बोली-
लोग बेपीर हुए।
मानव में
चरित्र नहीं है।
औ फूलों का
इत्र नहीं है॥
कुशासन देखा दफ़्तर का
तो कबीर हुए।
पराया धन
हुई हरियाली।
दें थकन को
चाय की प्याली॥
है पतझर ऐसा लगा
मानो फ़क़ीर हुए।
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