वही दाघ है
अविनाश ब्यौहार
हाड़ कँपाने वाली ठंडी
पूस-माघ है।
दूर्वा की अंगुली में
नग सी शबनम है।
नाच रही धूप
आँगन में छम-छम है॥
सच्चाई से है मुकर गया
बहुत घाघ है।
हैं घरों में हो रहीं
अलाव की बातें।
हैं मटर की फली की
भाव की बातें॥
होगा बहुत उम्दा शिकारी
शेर-बाघ है।
खेतों का मन जैसे
लग रहा शांत है।
जोशीला पट्ठा भी
दिख रहा क्लांत है॥
ठिठुरन में दे ताप
चुनांचे वही दाघ है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- गीत-नवगीत
-
- आसमान की चादर पे
- कबीर हुए
- कालिख अँधेरों की
- किस में बूता है
- कोलाहल की साँसें
- खैनी भी मलनी है
- गहराई भाँप रहे
- झमेला है
- टपक रहा घाम
- टेसू खिले वनों में
- तारे खिले-खिले
- तिनके का सहारा
- पंचम स्वर में
- पर्वत से नदिया
- फ़ुज़ूल की बातें
- बना रही लोई
- बाँचना हथेली है
- बातों में मशग़ूल
- भीगी-भीगी शाम
- भूल गई दुनिया अब तो
- भौचक सी दुनिया
- मनमत्त गयंद
- महानगर के चाल-चलन
- लँगोटी है
- वही दाघ है
- विलोम हुए
- शरद मुस्काए
- शापित परछाँई
- सूरज की क्या हस्ती है
- हमें पतूखी है
- हरियाली थिरक रही
- होंठ सिल गई
- क़िले वाला शहर
- कविता-मुक्तक
- गीतिका
- ग़ज़ल
- दोहे
- विडियो
-
- ऑडियो
-