दोपहर ढल भी न पाई थी
और बदली साँझ लेकर आ गयी
मुट्ठी भर धूप का तेवर भी
कुछ कम नहीं
उजाले छुपने लगे
कालिमा के आवरण में
और गुलाबी साँझ
सकुचाई सी
निकल गई चुपचाप
अँधेरे से अपना दामन छुड़ाकर
पर
रात ने धीरे से थाम लिया अँधेरे को
गोया कि
उसे सहलाते हुए कह रही हो
"तुम किसी से कुछ कम हो क्या"
तुम हो
तभी तो तलाश है रोशनी की
तुम्हारे बिना
उजाला
कैसे परिभाषित कर पाता
ख़ुद को
छोड़ो
गर ढल गई धूप
वह देखो जलता हुआ दीया
जो तुम्हें ही निहार रहा है
और सचमुच
अँधेरा डूब गया
जलते हुए दीये की
मुट्ठी भर रोशनी में।