गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी

15-12-2020

गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी

सुषमा दीक्षित शुक्ला  (अंक: 171, दिसंबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी।
फिर से पीहर में गोरी लजाने लगी।
 
अब सुहानी लगे सर्द की दुपहरी।
मौसमी मयकशी है ये जादू भरी।
ठंडी ठंडी हवा दिल चुराने लगी।
गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी।
 
पायल ने छेड़े हैं रुन-झुन तराने।
दर्पण से दुल्हन लगी है लजाने।
याद उसको पिया की सताने लगी।
गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी।
 
सर्द का मीठा-मीठा सुहाना समां।
फूल भौंरे  हुए हैं सभी ख़ुशनुमा।
रुत मोहब्बत की फिर से है छाने लगी।
गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी।
 
फूलों पे यौवन है फसलों में सरगम।
भँवरों का गुंजन है मधुबन में संगम।
प्यार के रंग तितली सजाने लगी।
गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी।
 
है कहीं पर प्रणय तो कहीं है प्रतीक्षा।
कहीं दर्द बिरहन का लेती परीक्षा।
कहीं गीत कोयल सुनाने लगी।
 
गुनगुनी धूप फिर से है भाने लगी।
फिर से पीहर में गोरी लजाने लगी।

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