मेरा क्या क़ुसूर
मंजु आनंद
सुनो मैं बेटी कुछ कहना चाहती हूँ,
मैं बहुत डरी सहमी हुई हूँ,
कब कौन कैसी नज़रों से मुझे देखता है,
मैं समझ नहीं पा रही हूँ,
मैं कमज़ोर नहीं हूँ बेबस बेचारी भी नहीं हूँ,
मगर यह जो हवस के पुजारी हैं,
हैवान इंसानी भेड़िए हैं,
कब मेरा शिकार कर लें मुझे नोंच खाएँ,
मैं कुछ कह नहीं सकती ख़ुद को बचा नहीं सकती,
बहुत कोशिश करती हूँ ख़ुद को बचाने की,
जब हार जाती हूँ लड़ाई अपनी,
प्राण अपने त्याग देती हूँ,
मेरे सारे सपने मेरे अरमान संग मेरे,
जलकर जलती चिता में राख हो जाते हैं,
आत्मा हाहाकार करने लगती है,
चीख चीख कर गुहार लगाती है,
इंसाफ़ चाहिए इंसाफ़ चाहिए,
सालों साल चलती है इंसाफ़ की लड़ाई,
कभी सच जीतता है कभी झूठ,
मगर मैं एक बेटी मैं तो लौट कर नहीं आती,
पूछती हूँ आप सभी से,
मेरा क्या क़ुसूर मेरा क्या क़ुसूर,
सुनो मैं बेटी कुछ कहना चाहती हूँ।