ख़्वाहिशें
मंजु आनंदवक़्त चलता रहा, उम्र ढलती रही,
ख़्वाहिशें दम तोड़ती रहीं।
बहुत चाहा रख सकूँ ज़िन्दा इन्हें,
वक़्त की गर्दिश इन्हें, मुझसे जुदा करती रही।
पकड़ना चाहा कसकर इनको,
छूट कर हाथों से यह रेत सी झड़ती रही।
कहते हैं ख़्वाहिशें नहीं छोड़तीं साथ आख़िरी दम तक,
हो ऐसा यह ज़रूरी तो नही।
वक़्त चलता रहा . . .
1 टिप्पणियाँ
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न वक्त को कोई रोक सका है न ख़्वाहिशों को। सुंदर विचार ।
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