हँसी कहाँ अब आती है
मंजु आनंदमाना की हँसने पर कोई टैक्स नहीं चुकाना पड़ता,
पर हँसी कहाँ अब आती है,
यूँ ही बेवजह छोटी-छोटी बातों पर,
हँसते थे अक़्सर हम भी खुलकर,
अब तो वज़ह होने पर भी,
यह कम्बख़्त हँसी ना जाने कहाँ भाग जाती है,
चाहे चले जाएँ किसी भी लाफ़्रट क्लब में,
असली हँसी तो केवल खुले मन से ही आती है,
अब तो यह आलम है,
खुल कर हँसना तो भूल ही गए हैं जैसे,
बस बनावटी हँसी ही हँस लेते हैं जैसे-तैसे,
ना मालूम हँसे थे कब खिलखिला कर,
अब हँसे इस तरह तो बेअदबी कहलाती है,
भींच के होंठों को अपने,
अब हल्का-सा मुस्कुरा देते हैं,
ऐसी ही फीकी मुस्कान,
शायद अब हँसी कहलाती है,
माना की हँसने पर कोई टैक्स नहीं चुकाना पड़ता।
1 टिप्पणियाँ
-
बिलकुल सही कहा आपने । कृत्रिमता का जामा ओढ़े औपचारिकताओं को निभाने के लिये जिया जा रहा यांत्रिक जीवन जिसमें हंसी अपनी नैसर्गिक पहचान खो चुकी है । बहुत सुंदर । अब न मुस्कान है न हंसी । सायास प्रयास करना पड़ता है हंसने के लिए ।
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अपनी कुछ किताबों में
- अब आगे क्या होगा
- आँसू
- आईना
- आज फिर
- इंसान क्या है
- उम्र
- उम्र का यह दौर भी . . .
- एक गृहणी
- एक पेड़ था कभी हरा भरा
- एक बूढ़ा इंसान
- एक फ़क़ीर
- कन्यादान
- कबाड़ी वाला
- कविता
- कुछ बच्चों का बचपन
- कैसे जी रहा है
- गोल गोल गोलगप्पे
- चिड़िया
- जितनी हो चादर
- जीवन की शाम
- ढूँढ़ती हूँ भीड़ में
- दस रुपए का एक भुट्टा
- दिल तू क्यूँ रोता है
- दो जून की रोटी
- नया पुराना
- पिता याद आ जाते हैं
- पीला पत्ता
- प्यार की पोटली
- बाबा तुम्हारी छड़ी
- बिटिया
- बिटिया जब मायके आती है
- बूढ़ा पंछी
- मनमौजी
- महानगरों में बने घर बड़े बड़े
- माँ को याद करती हूँ
- माँ मेरे आँसुओं को देखती ही नहीं पढ़ती भी थी
- मायका
- मायाजाल
- मेरा क्या क़ुसूर
- वो दिन पुराने
- सर्कस का जोकर
- सुन बटोही
- हँसी कहाँ अब आती है
- हर किसी को हक़ है
- ख़्वाहिशें
- विडियो
-
- ऑडियो
-