आईना

मंजु आनंद (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

आज देखा जब मैंने आईना, 
लगा मुझे जैसे, 
बोल उठा हो मेरा गूँगा आईना, 
लगा वह मुझसे कहने, 
रुको सुनो तुम मेरी बात, 
जानती हो तुम्हें बिना हँसे-मुस्कुराए, 
हो गए हैं कितने साल, 
रोज़ आ जाती हो तुम मिलने मुझसे, 
देखती हो चेहरा अपना बस सरसरी निगाहों से, 
नहीं निहारती अब तुम अपने को, 
ना ही देख कर अपने को मुस्कुराती हो, 
हर बार छिपाना चाहती हो तुम दिल का हाल, 
हर बार ही पकड़ी जाती हो, 
मैं आईना हूँ, 
मुझसे कुछ ना छुप पाता है, 
याद आता है मुझे, 
देख कर मुझे तुम्हारा ख़ुद से ही बातें करना, 
देख अपने को ही मुस्कुराना, 
देर तक अपने को निहारते रहना, 
अब तुम बिल्कुल नहीं रही वैसी, 
नज़र आती हो बदली-बदली सी, 
गुमसुम ख़ामोश एक मूरत-सी लगती हो, 
तुम्हारी मेरी दोस्ती है बहुत पुरानी, 
इसको तुम निभाया करो, 
जब भी देखो मुझमें सूरत अपनी, 
बस थोड़ा-सा मुस्कुराया करो, 
आज देखा जब मैंने आईना। 

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