ख़ुशी के आँसू

15-07-2020

ख़ुशी के आँसू

सुषमा दीक्षित शुक्ला  (अंक: 160, जुलाई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

 बात उन दिनों की है, जब मेरा चयन बतौर अध्यापिका एक ऐसे विद्यालय में हुआ जो पहले से शिक्षक विहीन हुआ करता था। अतः मैं उस विद्यालय की पहली अध्यापिका। थी मेरे साथ ही एक नए शिक्षक की भी विद्यालय में नियुक्ति हुई थी।

विद्यालय के वह शुरुआती दिन मुझे कभी नहीं भूल सकते, जब मेरा ऐसे शैतान और अनुशासनहीन बच्चों से सामना हुआ या यूँ कह सकते हैं कि ऐसा बिगड़े हुए बच्चों से सामना हुआ जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। उस विद्यालय का संचालन मुझसे पहले कई प्रशिक्षु शिक्षकों द्वारा स्थायी तौर पर होता था, सुना है कि मुझसे पहले उस विद्यालय में अस्थायी नियुक्ति वाले प्रशिक्षु शिक्षक विद्यालय छोड़कर, बच्चों की उद्दंडता एवं शैतानी भरे आतंक से भाग खड़े होते थे।

शुरुआती दिनों में मेरा भी मन यही आया कि नौकरी छोड़कर भाग जाऊँ; मगर क्या करती मेरी नियुक्ति शासकीय शिक्षिका के तौर पर स्थायी रूप में हुई थी तो वहाँ रुकना नितांत आवश्यक बन गया था।

जिस गाँव में मेरी नियुक्ति हुई वहाँ एक ही वर्ण के लोग रहते थे। जातिवाद का बोलबाला था। वहाँ के  ज़्यादातर अशिक्षित ग्रामवासी व बच्चों के अभिभावकों ने बच्चों के बाल मन में जातिवाद एवं संप्रदायवाद की भावना का इतना गहरा ज़हर भर दिया था कि बच्चे हर दूसरी जाति का मज़ाक उड़ाते थे। ऊपर से विद्यार्थियों वाला कोई भी शिष्टाचार उनमें नहीं दिखा। चोरी करना, लड़ाई झगड़ा, झूठ बोलना, छोटे-छोटे बच्चे बीड़ी और गाँजा पीते थे। शिक्षक कोअपमानित करना उनकी आदत में शामिल था। उनको देखकर तो लगता ही नहीं था कि यह विद्यार्थी भी हैं।काफ़ी मैले-कुचैले भी रहते थे।

मेरे लिए बच्चों को अनुशासित करना, शिक्षा देना, नैतिकता का आचरण सिखाना एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य बन चुका था। हालाँकि मेरे पति मेरे हर कार्य में सहयोग देते थे। उसी प्रकार इस पुनीत कार्य में भी उन्होंने बराबर सहयोग दिया, और मेरे साथ  विद्यालय नित्य जाकर मेरा मार्गदर्शन एवं हौसला अफ़ज़ाई करते रहे। मेरे दूसरे शिक्षक साथी भी अपनी ज़िम्मेदारी का पालन करते हुए बराबर सहयोग करते रहे।

फिर प्रारम्भ हुआ मेरा शिक्षण एवं सुधार कार्यक्रम। कभी प्यार से, कभी डाँट से, कभी मार से, मैंने लगभग 1 साल में विद्यार्थियों को विद्यार्थी जीवन की धारा पर लाकर खड़ा कर दिया। जिसके लिए काफ़ी मेहनत मशक़्क़त करनी पड़ी। नैतिकता के आचरण में ढालने के लिए रोज़ एक या दो कहानी सुनाती थी, उनके साथ खेलती तक थी।

मैंने पूरी तरह से मनोवैज्ञानिक शिक्षण  प्रणाली को अपनाकर उनके मनोबल को विकसित किया। फिर क्या था सकारात्मक नतीजे आने लगे, धीरे-धीरे उनमें ऐसा बदलाव हुआ कि मैं या कोई दूसरा सोच भी नहीं सकता था। मात्र 1 साल में वह विद्यार्थी बदल चुके थे। वे सब व्यवहार कुशल, शिष्ट, पढ़ने में तेज़, आज्ञाकारी और ईमानदार बन चुके थे। आपसी प्यार, गुरु का सम्मान, बड़ों का सम्मान, विद्यालय संबंधी सारे कार्यों में रूचि उनमे विकसित हो चुकी थी।साफ सुथरे होकर समय से विद्यालय आना,सर्वप्रथम विद्यालय में प्रवेश करते ही विद्या की देवी सरस्वती को नमन करना, फिर गुरु के चरण स्पर्श करना, अपने सारे विद्यालय संबंधी कार्य पूर्ण करना उनकी आदत बन चुकी थी। एवं मेरे वही बच्चे मुझे  अति प्रिय बन चुके थे, और मैं उनकी अज़ीज़ टीचर। फिर तो वे सब मेरा इंतज़ार करते थे कि जल्दी से सुबह स्कूल का समय हो और मेरी प्यारी मैम जल्दी से स्कूल आएँ। वही बच्चे पढ़ाई से लेकर, खेल एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों मे काफ़ी प्रगति कर चुके थे।

धीरे-धीरे  समय बीतता गया। अब वही बच्चे  बड़े हो चुके हैं, बड़ी  कक्षाओं में पहुँचने के कारण माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। वहाँ भी वह अच्छे बच्चे माने जाते हैं, मेरी याद भी करते रहते हैं, क्योंकि कभी-कभी उनमें से कोई-कोई बच्चे आ जाते हैं मुझसे मुलाक़ात करने, मेरे चरणों में अपना शीश नवाने। तब मैं उनको, उनकी वह शैतानियाँ याद दिलाकर कहती हूँ, "तुम इतना कैसे बदल गए मुझे अभी भी यकीन नहीं होता...!"

आज भी एक टीचर होने के नाते अपने शिष्यों के सकारात्मक बदलाव को देखकर मेरी आँखों से ख़ुशी के आँसू  बरबस ही निकल पड़ते हैं।

मैं परमात्मा को धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने मुझे इस पुण्य कार्य का महान दायित्व सौंपा।

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