कलफ़ लगी साड़ी

01-08-2019

कलफ़ लगी साड़ी

वीणा विज ’उदित’

आजकल की लड़कियों और फ़िल्मों, टीवी में नायिकाओं को साड़ी में लिपटे देखकर यूँ लगता है कि वे कितनी बेपरवाह हैं अपने बदन पर लिपटी साड़ी से। हमने भी तो जवानी की दहलीज़ पर पाँव रखे थे, तब बदन दिखाने का नहीं बल्कि बदन छिपाने का ज़माना था। आज ख़्यालों की परवाज़ उड़ा ले चली है मुझे साठ के दशक में, जब अधिकतर युवा कन्याएँ सहर्ष साड़ी पहनकर पढ़ने जाया करतीं थीं। काटन की साड़ियों पर कलफ़ यानी कि माढ़ (स्टार्च) लगा कर उसमें जान डाल दी जाती थी, जिन्हें बदन पर लपेटने से सुरक्षित होने का एहसास होता था। सलवार-कमीज़ व कुर्ते-चूड़ीदार पजामे का ज़्यादा रिवाज़ नहीं था। पार्टी आदि में अलबत्ता सिल्क की साड़ियाँ पहनी जाती थीं। ख़ैर, इसी बात पर कुछ बताने का मन है। यह उन्हीं दिनों की बात है…

कालेज में जैसे-जैसे आर्ट्स, होमसाइंस, और साइंस की क्लासेस ख़तम होती जातीं, वैसे-वैसे ही होस्टल में गहमा-गहमी का माहौल बनता जाता था। सिर्फ़ पचास क़दम का ही तो फ़ासला था बीच में। चार मंज़िला बिल्डिंग दोनों ओर ढेरों कमरों को ढोती, मानो अँग्रेज़ी का ’ई‘ अक्षर लेट गया हो और मध्य में बड़ा सा डाइनिंग हाल। हर कमरे में चार लड़कियों के लिए पलंग, कुर्सी, मेज़, अल्मारी यहाँ तक कि खिड़कियाँ भी चार थीं। कमरे में आते ही किताबों को मेज़ पर पटक सब की बातों का दौर आरंभ हो जाता जिसे पाँच बजे की टिफ़िन की घंटी रोकती। जिसमें कभी पकौड़े, कभी समोसे, आलूबोंडे, पोहा, जलेबी और मट्ठी आदि नाश्ता मिलता था। उस के बाद गोरखा चौकीदार उस दिन की डाक बाँटता था, ऊँची आवाज़ में नाम पुकार कर। उस दिन, नीरू कमरे में बैठी टिफ़िन खा रही थी क्योंकि उसे किसी की चिट्ठी का इंतज़ार नहीं था कि अचानक’नीरजा तिवारी’ नाम पुकारा जाने पर वह हक्की-बक्की हो बाहर चिट्ठी लेने भागी। बाहर बिना किसी से नज़र मिलाए, चौकीदार के हाथ से नीला लिफ़ाफ़ा लिए दिल की बढ़ती हुई धड़कनें सँभालती वो कमरे में लौटी। भीतर किसी को न पाकर उसने झट से चिटखनी लगा ली। उसके आदित्य की चिट्ठी!….धड़कन की धौंकनी बढ़ गई थी, मनमयूर नाच उठा था। पागलों की तरह लिफ़ाफ़े को चूमे जा रही थी, पलंग पर लेटकर उसे अपने दिल के ऊपर रख कर उस से बोल उठी, ‘तुम्हारे तसुव्वर ने मेरे दिन-रात का चैन लूट लिया है। न सो पाती हूँ, न पढ़ पाती हूँ। कैसे जीऊँ आदि तुम्हारे बिन? ’और बेहद प्यार व अदब से उसने लिफ़ाफ़ा खोला…

“इसी शनिवार को तुम्हारे पास पहुँच रहा हूँ। इतवार को दिन भर तुम्हें अपने साथ रख उन पलों में, तुम में जीऊँगा। बस, अब और नहीं …। तुम्हारा, ‘मैं’ ”

ख़त पढ़ते ही नीरू झट उठकर बैठ गई। उसका बदन काँप रहा था, मिलन के काल्पनिक उन्माद से ही वो रोमांचित हो उठी थी। आदि का चेहरा उसके समक्ष था और वो लज्जा से भीग रही थी, दीवार पर टँगे आईने में अपनी जगह उसे देख कर। कि तभी कुमुद ने दरवाज़ा खटखटाया -तो उसने झट अल्मारी में चिट्ठी छिपा कर सहज होते हुए मुस्कुरा कर चिटखनी खोली। 

“मैडम, कहाँ हो? डांस क्लास नहीं चलना क्या?” कुमुद ने पूछा। 

“चल,” कहकर नीरू साथ हो ली। 

पर, आज वहाँ भी उसका ध्यान उखड़ा-उखड़ा रहा। 

अगले तीन दिन वो गुमसुम सी यंत्रचलित आदित्य के ख़्यालों में गुम अपनी दिनचर्या निपटाती रही बस। भीतर ही भीतर घबरा रही थी कि आदि का सामना कैसे कर पाएगी! आख़िर, शनिवार की शाम भी आ पहुँची थी। उसने अपनी रूम मेट्स को कुछ नहीं बताया था कि तभी उसका नाम पुकारा गया अतिथि-कक्ष में आने के लिए। दीपा ने नीरू को छेड़ते हुए फब्ती कसी, ”मैडम इसीलिए आज सुबह से बन-ठन कर तैयार हुई बैठी थी, कौन आया है भई?”

नीरू सौम्यता की मूरत, यूँ ही मुस्कुरा कर चल दी। अतिथि-कक्ष के बाहर पहुँचकर उसके पाँव नौ मन के हो गए। अपनी असहजता पर नियंत्रण कर आख़िर उसने क़दम भीतर बढ़ाए। अप्रत्याशित को प्रत्यक्ष देख उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था। समक्ष था अपनी मद भरी आँखों का जादू बिखेरता बाँहें फैलाए उसका आदित्य। एकबारग़ी वो मंत्रमुग्ध सी उसकी बाँहों में समा गई, फिर झट से अलग हो कर उसके सामने बैठ गई। 

“कैसी हो.. मेरे जैसी ही न,” कहकर आदि ने उसका हाथ पकड़ लिया। दोनों के हाथ बर्फ़ जैसे ठंडे थे। नीरू ने कुछ औपचारिक बातें कीं, और आदि सारा समय उसके हाथ को सहलाता रहा.. शायद गरमाने के लिए। उन लम्हों में वक़्त मानों थम सा गया था, नज़रों ने रूह की गहराइयों में पहुँच गुफ़्तगू शुरू कर ली थी और ज़ुबान ख़ामोश थी। पर असल में वक़्त कम था। विज़िटिंग समय ख़तम हो गया था। 

“कल सुबह मैं नौ बजे आ जाऊँगा तुम्हे लिवाने। तुम्हारे बाबूजी से अथॉरिटी लैटर मँगवा लिया था मैंने बता कर।” इतना कह आदि हाथ छुड़ाकर एकदम बाहर निकल गया और वह वहीं खड़ी रह गई थी, आदित्य से मिलन के अविश्वास में फँसी। 

कमरे में वापिस आई तो उसने चैन की साँस ली, वहाँ उसकी सखियाँ नहीं थीं। आदि के मीठे सपनों में गुम वह शाम को ही बिन कुछ खाए-पीए ही बिस्तर में दुबक गई, कल होने के इंतज़ार में। वो बात अलग है कि खुली पलकों के पर्दे में छिपे आदित्य ने ‘रात’ को आँखों के भीतर आने ही नहीं दिया। कुंडली मारे अँधेरा जब धीरे-धीरे दम तोड़ रहा था और भोर ने दस्तक दी आने की, तो नीरू शैय्या त्याग बिन आहट किए दिनचर्या से निपट तैयार होने लगी। अल्मारी से कलफ़ लगी चौड़े बार्डर की कॉटन की साड़ी निकाल, करीने से पहन कर माथे पर छोटी सी काली बिंदी लगा कर वह आईने में अपने रूप को निहार कर अपने से ही लजा गई थी। इतवार था, सो बाक़ी रूम मेट्स अभी सो रही थीं और वो चुपचाप अपना बैग उठाए रिसैप्शन पर आकर टहलने लगी। वह बार-बार कलाई पे बँधी घड़ी को देखती कि वह इतनी धीरे कैसे चल रही है, उससे इंतज़ार नहीं हो पा रहा था। 

ठंडी बयार के झोंके उसके ख़्यालों की परवाज़ को कल शाम के दृश्य पर फिर ले गए.. वो स्वयं पर हैरान थी कि कल आदि को सामने देखकर उसकी बोलती क्यों बंद हो गई थी? जिसके ख़्यालों ने उसे कभी चैन से सोने नहीं दिया, पढ़ाई में हमेशा ख़लल डाला और तो और पिछली दीवार के पीछे किसी कोठी में आम के पेड़ पर जब आधी रात को कोयल की कूक सुनाई देती तो टीस भरी आम्रमंजरी की मधु सी मादक गंध उसके प्राणों में बहने लगती थी, जो विरह की ज्वाला को और भड़का देती थी। फिर विरह की लम्बी रात और लम्बी हो जाती थी जबकि सुबह उसे कॉलेज जाना होता था। उसने आदि को यह सब बताया क्यों नहीं? उसे लगा, दोनों के बीच की ख़ामोशियाँ शायद यही तो नहीं बतिया रहीं थीं, तभी वे दोनों एक-दूसरे की आँखों की इबादत पढ़े जा रहे थे। ख़ुद से ही सवाल-जवाब करती उसका चेहरा रक्तिम हो उठा था कि सामने दूर से आदि आता दिखाई दिया और नीरू के क़दम उसकी ओर बरबस ही बढ़ गए। दोनों ने चाहत भरी खिली मुस्कान से एक-दूसरे का स्वागत किया और ‘चलें’ कहकर मेनगेट से बाहर खड़ी एम्बेसेडर कार में आदि ने उसे पीछे बिठाया व ड्राइवर को ‘सदर’ चलने को कहा। (वह तो ट्रेन से आया था, यह किसी दोस्त की कार थी।) 

“सदर में ब्रेकफ़ास्ट कर के फिर हम घूमने निकल पड़ेंगे, ठीक है ना!”आदि ने बोला तो नीरू ने हामी भर दी। ‘वैंगर’ में एक-दूसरे के सामने एक कोने में जाकर वे दोनों बैठ गए। जब तक नाश्ता हुआ उन दोनों के पैर एक-दूसरे की छुअन से आपस में उदासी निकालते रहे क्योंकि साड़ी का पर्दा था उन पर लेकिन भीतर से आनंदित नीरू साथ ही अपनी कलफ़ लगी साड़ी की चुन्नटों को ठीक करती रही। आखिर साँझ ढले उसने हॉस्टल वापिस सहेलियों के सामने जाना था। फिर अभी तो सारा दिन पड़ा था। कलफ़ लगी साड़ी में कहीं सिलवटें न पड़ जाएँ! ..आदि दस घंटे का सफ़र तय करके आया था उसकी और अपनी उदासी मिटाने तो..? वह कुछ-कुछ डरी भी थी। 

वहाँ से दोनों को ड्राइवर ने ‘सट्टा बाज़ार‘ फ़िल्म देखने के लिए ज्योति टॉकीज़ छोड़ा और एक बजे आने को कहकर चला गया। उन दिनों मनोरंजन का यही एक मात्र ज़रिया होता था। सैल फोन जो नहीं थे। आज के युग में संवेगों और संवेदनाओं की वो गहराइयाँ तो लुप्तप्राय हो गई हैं। ख़ैर, उस फ़िल्म का गीत, 

“इतना न मुझसे तूँ प्यार बढ़ा कि मैं इक बादल आवारा, 
जनम-जनम से हूँ साथ तेरे कि नाम मेरा जल की धारा”

आज भी लोकप्रिय है। उन दोनों पर सटीक बैठता था यह गीत। उन दिनों फ़िल्मी गीतों से दिल की भावनाओं का इज़हार किया जाता था। सो धुँधले अँधियारे में फिल्म के संग-संग इस युगल की भी चाहतें पींग बढ़ा रही थीं। तिस पर आदित्य का सवाल, “नीरू हमारी चाहत को ठाँव मिलेगा न?”

“हम दोनों ही पढ़ रहे हैं अभी।” नीरू की दलील थी, “आप पढ़-लिखकर ऑफ़िसर बन जाओगे तो सब संभव हो पाएगा।” और भविष्य की गोद में कुछ ऐसा ही जवाब रखा था तक़दीर ने। शो ख़तम होते ही सामने ‘हीरा स्वीट्स’ से आदि ने वहाँ की मशहूर छैना मुर्गी मिठाई और कुछ नमकीन लिए अगले पड़ाव के लिए जो शहर की आबादी से दूर गढ़ाताल की ओर था। रानी दुर्गावती का किला ‘मदन महल‘, जिसके अवशेष काली चट्टानों व बड़े-बड़े पत्थरों के रूप में दर्शनीय स्थल बन गए थे पर्यटकों के लिए। पर्यटक भी बहुत कम होते थे उन दिनों। नीरू ने भी कभी मदनमहल नहीं देखा था सो वह भी वहाँ जाने के लिए उत्साहित थी, फिर आदित्य का साथ! ड्राइवर ने उन्हें वहाँ छोड़ दिया और वो वापिस चला गया, उसे काम था अपना। आदित्य जानता था, सो वापसी में टैक्सी से जाने का प्लान था। उन दोनों ने अन्य पर्यटकों के साथ-साथ पहाड़ी पर चढ़ना शुरू किया। बीच-बीच में आदि उसका हाथ थाम लेता तो उसे लगता वो हल्की हो गई है। आसमान मानो ज़मीं के क़रीब आ गया था। एक-दूसरे की छुअन से विभोर वे दोनों काली-काली चट्टानों पर पत्थरों को लाँघते काफ़ी ऊपर पहुँच गए थे। यहाँ शोर-गुल से परे संयत समीर के बहने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। वहीं एक छोटी काली चट्टान पर एक बड़ी पहाड़नुमा चट्टान मानो उठाकर रख दी गई हो। अजब सा जुड़ाव था दोनों में। इसे ही देखने लोग आते जा रहे थे। नीरू आदित्य की बेताबी को महसूस कर रही थी क्योंकि वो जब भी नीरू को बाँहों में लेने को होता तो कोई न कोई दिख जाता और वह अपने को रोक लेता। उसे इस हाल में देख नीरू होंठों से न मुस्कुराकर आँखों से शरारत कर जाती कि बच्चू अच्छे फँसे हो। और छिटककर अपनी कलफ़ लगी साड़ी को ठीक करने लग जाती। आदित्य मायूस हो चला था कि शहर से मीलों दूर वो इसलिए आया था कि जी भर के नीरू पर प्यार उड़ेल सके, उनके बीच कोई न हो। लेकिन, आदित्य के अरमान समय की कमी के कारण कहीं दम न तोड़ दें? इस ख़्याल ने उसे बेचैन कर दिया। वे दोनों और ऊपर एक चट्टान के पीछे की ओर जाकर बैठ गए तो नीरू ने अपने बैग से खाने का सामान निकाला कि चलो अब कुछ खा लेते हैं, थक भी गए हैं। नीरू की अधलेटी मुद्रा को देख आदित्य झट जाकर उसकी कमर के पास बैठ गया..साड़ी के ऊपर। नीरू बिन कुछ सोचे-समझे एकदम उठकर खड़ी हो गई, “अरे, मेरी साड़ी की कलफ़ ख़राब हो जाएगी।” उधर आदित्य का मुँह एकदम रुआँसा हो गया। हिम्मतकर दूर खड़ी नीरू को उसने पीछे से अपनी बलिष्ठ बाजुओं के भीतर भींच ही लिया, नीरू को भी चैनो-क़रार मिल रहा था। इससे पूर्व कि दोनों की प्यासी रूहें जल का कोई कण छू पातीं, ‘खटाक‘ से एक डंडे की आवाज़ करता उधर का पहरेदार आ पहुँचा था वहाँ। उन दोनों को यूँ प्यार करता देख बोल उठा, “काहे बबुआ इहाँ काहे लाए हो लुगाई का? सीधन घरे कु जावा, ऊहाँ ही करबे तोहे जो कुछ करे को होबे।” उन्हें लगा वे रंगे हाथों पकड़े गए हों चोरी करते। काटो तो खून नहीं। घबराए हुए चुपचाप खाने का सामान समेट वे दोनों उतराई की ओर चल दिए थे। दोनों को इज़्ज़त का डर था, क्यूँकि उस ज़माने में इज़्ज़त बनाए रखना बड़ी बात मानी जाती थी। शरम के मारे उनके मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे। उन्हें भान ही नहीं हुआ वे कब नीचे मेन सड़क पर एक पुरानी सी चाय की दुकान पर पहुँच गए थे। चायवाले से दो कुल्हड़ चाय लेकर पी तो कुछ जान में जान आई दोनों की। चाय वाले से आदि ने पूछा, भैया! यहाँ टैक्सी कब मिलेगी? तो उसने बताया कि अगर कोई टैक्सी में आए घूमने, तभी टैक्सी मिलती है। यह सुनकर वहीं एक वृक्ष की छाँव में पड़े एक पत्थर पर बैठकर दोनों टैक्सी का इंतज़ार करने लगे। 

लगता था आदित्य के सर से इश्क़ का भूत उतर चुका था। वह बचैनी से टहलने लग गया था, जब उसे लगा कि अब कोई पर्यटक आता नहीं दिख रहा तो वहीं जो ३-४ रिक्शावाले खड़े थे उसने उन में से एक से बात करके उसके रिक्शा में वापिस चलने का प्रोग्राम बना लिया और नीरू की आँखों में झाँकते हुए उस से कहा, ”चलो हम अब चलते हैं। धीरे-धीरे ही सही पर इतनी तसल्ली तो रहेगी कि हम वापिस जा रहे हैं और देर-सवेर मंज़िल पर पहुँच जाएँगे। हमने साथ-साथ समय बिताना है न, तो फिर चाहे इन सुनसान डरावनी चट्टानों तले तन्हाई ढूँढ़े या रिक्शा में हिचकोले खाते हुए रफ़्ता-रफ़्ता डेढ़ घंटा सवारी कर के कुछ बातें करें। ठीक है न!” 

नीरू को भी वहाँ से चले जाने में ही भलाई लगी। क्या मालूम वो पहरेदार यहाँ नीचे पहुँचने वाला हो, कहीं सबके सामने इज़्ज़त का फलूदा न कर दे। सो, भीतर से भयभीत व गुम-सुम सी उसके साथ रिक्शा पर चढ़कर बैठ गई कि तभी सर पर सूर्य देवता के प्रकोप को देखकर नीरू ने अपने सिर पर साड़ी का पल्ला किया। यह देख कर रिक्शावाले ने रिक्शा की छत चढ़ा दी व अपने सिर पर भी लाल गमछा लपेट, “जै नर्मदा मैया” का जैकारा कर के कंठ से एक तान छेड़ दी। और रिक्शा के पैडल मारता निकल पड़ा तारकोल की पुराने ज़माने की टूटी-फूटी लम्बी सड़क पर। सामने जगह-जगह गड्ढे दिखाई दे रहे थे। सड़क चाहे नयी बनी हो, एक बारिश की बौछार आयी नहीं कि म्युनिस्पैलिटी की सड़कें दहाड़ मार कर छाती पीटतीं थीं उन दिनों। सो वही हाल था वहाँ पर। यही सड़क उन दोनों प्रेमियों के लिए वरदान बन गई थी। पहले ही झटके में आदि ने नीरू को अपनी बलिष्ठ बाजुओं के घेरे में ले लिया था और उसने भी कोई प्रतिकार न करते हुए समर्पण कर उसकी चौड़ी छाती में ठाँव ढूँढ़ ली थी। उसकी कलफ़ लगी साड़ी को मुँह चिढ़ाती आदि की उँगलियाँ उसी की ओट ले मनचाही थिरक रहीं थीं, और उस थिरकन की ताल में डूब नीरू की प्यास रस में विभोर हो रही थी। लाज के बंधन मुक्त हो हया को मुँह चिढ़ा रहे थे। दोनों एक-दूसरे के सामीप्य को पूरी शिद्दत से जी रहे थे और वातावरण सुरीली तान से संगीतमय हो मधुरता बिखेर रहा था। हर साँस से इक-दूजे को पीते हुए उनकी दुनिया ही बदल गई थी। मन ऐसा कोष है भावनाओं का, जो भीतर ही भीतर निरंतर बहती रहती हैं –यह कोष कभी नहीं रीतता। होंठों से प्रस्फुटन भी नहीं हो पाता। 

नीरू के भीतर कई प्रश्न, कई तूफ़ान उमड़-घुमड़ रहे थे। क्या इश्क़-प्यार-मोहब्बत-चाहत का दौर यहीं आकर थमता है? या फ़्रॉयड के विचारों के अनुरूप नारी-पुरुष में एक सहज आकर्षण है जो दोनों की शारीरिक निकटता से पराकाष्ठा पाता है। कुछ तो है जो उसकी आकांक्षाएँ उसकी वास्तविकता पर हावी हो रही थीं। यह एक उद्दाम आवेग, एक उमड़ता तूफ़ान, एक मोहक-आकर्षण से उठा “पैशन” है जिस के वशीभूत हो आदित्य के स्पर्श से उसकी रग-रग में, खून के हर क़तरे में आवेग उमड़ रहा था। उसकी उँगलियों की पोरों की थिरकन उसकी साँसों को गरमा रहीं थीं—वह निःष्प्राण होकर समर्पित हो गई थी। 

रिक्शा के बाहर दोपहर ने स्वयं को हल्की-हल्की श्यामल ओढ़नी से ढँक लिया था। जिस प्यास को बुझाने की खोज में आदित्य काली चट्टानों के साये में झरने का स्त्रोत तलाश रहा था वो झरना उस रिक्शा की छत तले निर्बाध बह उन्हें अपनी बौछार से सराबोर कर रहा था। तिस पर भी, कलफ़ लगी साड़ी की चुन्नटें क़ायम थीं। 

वीणा विज उदित

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