वो लड़की
डॉ. मनीष कुमार मिश्राझील सी आँखोंवाली वो लड़की झीलों के शहर उदयपुर से थी। लड़की क्या कयामत थी। नाम था मृदुला चामीकुट्टी…,आगे का “सरनेम” याद नहीं। लेकिन हाँ उसकी नाक, नाम और चोटी तीनों बहुत लंबे थे। पिता दक्षिण भारत के ब्राह्मण परिवार से और माँ राजस्थानी राजपूत। परिणाम स्वरूप बेटी सौ प्रतिशत एक सुंदर, सुशील “हायब्रिड” भारतीय कन्या। सौंदर्य की एक सम्पूर्ण परिभाषा थी वो। प्रेम से लबरेज़ हो रहे रिश्तों में एक समय आता है जब एक-दूसरे के लिये “आप” और “जी” जैसे संबोधन हम हटा देते हैं क्योंकि रिश्तों में औपचारिकताओं से हम तौबा कर लेते हैं और फिर किसी भी तरह की दूरी हमें गवारा नहीं होती। हम दोनों भी उसी मुक़ाम पर थे। जब हम अकेले होते, तो मैं उसे “कुत्ती” बोल उसे छेड़ता। इसपर वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को और बड़ा कर पूछती-
“क्या बोला तुमने?”
“कुट्टी, चामीकुट्टी का शॉर्ट फॉर्म। कुछ गलत बोला क्या मैंने? – मैं गंभीर होकर कहता।
“नहीं,मुझे लगा कि तुमने कुछ और बोला। कुछ गंदा,”- वो भोलेपन से बोलती।
“कुछ और .... कुछ गंदा... ये क्या बोल रही हो? ऐसे कैसे सोच सकती हो तुम?” – माथे पर बल लाते हुए मैं कहता।
“सॉरी लेकिन मुझे लगा तुमने कुत्ती बोला,” – वह धीरे से सर झुकाकर कहती।
“यार ऐसे कैसे सोच सकती हो तुम? मैं तुम्हें कुत्ती ... छिः.... नालायक, बेवकूफ़, पागल लड़की अब तुमसे बात ही नहीं करूँगा। मैंने आज तक कभी कुत्ती को भी कुत्ती नहीं कहा ... और तुम्हें .. तुम्हें मैं ऐसा बोलूँगा? छोड़ो तुमसे बात ही करना बेकार है। मैं तुम्हारे बारे में कितना अच्छा सोचता हूँ और तुम .... छोड़ो ... क्या फ़ायदा बोलकर,” – बनावटी गुस्से के साथ मैं कहता।
“सॉरी बोला ना। अब जादा ड्रामा मत करो,” – वो गुस्साते हुए कहती।
“ड्रामेबाज़ लोगों को सब ड्रामा ही लगता है। फीलिंग नाम की कोई चीज़ तो होती नहीं उनके पास। .... छोड़ो मैं भी कहाँ सर फोड़ रहा हूँ,” – मैं गंभीर होकर कहता।
“बोल दिया गलती से, सॉरी भी बोल दिया। अब मत खींचो रबर की तरह। ख़त्म करो बात को। प्लीज़... टॉपिक चेंज। कुछ और बात करते हैं। ठीक है?” – वह प्यार से कहती।
इस तरह मैं उसे सताता और सॉरी भी वही बोलती। दरअसल मृदुला जितनी बड़ी ज़िद्दी थी उससे कहीं बड़ी पिद्दी थी। उसका मनपसंद काम था अकेले में बेवज़ह रोना और रोती हुई “सेलफ़ी” निकालकर मुझे “व्हाट्स अप” पर भेजना। मुझे शुरू–शुरू में उसकी इस आदत से बेचैनी होती। किसी लड़की की आँखों में आँसू मुझे असहज कर देते थे। लेकिन मृदुला मैडम की आँखों में बेवज़ह आँसू साले आते कहाँ से थे यही समझ में नहीं आता था। बहुत बड़ी ड्रामा क्वीन थीं मैडम। हम इसी ड्रामा क्वीन की मोहब्बत में गिरफ़्तार थे।
“एक बात पूछूँ?” – मृदुला ने सवाल किया।
यह उसका सवाल ज़रूर था लेकिन अगर मैं कहता कि मत पूछो तो भी वह जैसे-तैसे पूछती ज़रूर। ये लड़कियों की एक ख़ास आदत होती है। जिस बात के पीछे पड़ जाती हैं उसकी खाल निकाले बिना चैन नहीं मिलता उन्हें। दो लड़कियों को दो वक़्त का खाना न मिले- चलेगा, लेकिन बिना बात की बात पर बात किये उन्हें चैन नहीं मिलता। इसलिए जब कोई लड़की कुछ पूछे तो उसका सही–सही जवाब ही देना चाहिए क्योंकि अगर आप इस मुग़ालते में उनसे झूठ बोलेंगे कि कोई रहस्य आप उनसे झूठ बोलकर छुपा लेंगे तो यह आप की अज्ञानता और मूर्खता होगी। दुनियाँ का सबसे बड़ा रहस्य तो लड़कियाँ स्वयं होती हैं, उनसे क्या छुप सकता है? ऊपर से ईश्वर द्वारा दिया गया “सिक्स्थ सेंस”। ब्रह्मास्त्र है साहब। हम तो सोलह साल की उम्र से ही शरणागत हैं वो भी पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ लीन। इसी श्रद्धा, भक्ति और समर्पण का प्रतिफल है कि लड़कियों के संदर्भ में इतने ज्ञानवर्धक कैपसूल आप के सामने प्रस्तुत कर पा रहे हैं।
लेकिन हमारी महानता देखिये कि हमें इस बात का तनिक भी घमंड नहीं है कि दुनियाँ के सबसे रहस्यात्मक विषय पर हम इतना ज्ञान अर्जित कर चुके हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि यह विषय जितना आकर्षक और मोहक है उतना ही जटिल, गंभीर और सूक्ष्म भी। ज़रा सा “ओवर कान्फ़िडेन्स” आप को अर्श से फर्श पर पटक सकता है। इसलिए इस विषय का इतना अनुभव और ज्ञान होने के बाद भी हमें कोई घमंड नहीं है। बल्कि नये-नये “लफड़ों” में पड़कर हम “केस स्टडी” और “प्रैक्टिस” नियमित रूप से करते रहते हैं। विद्वान बाबाओं ने कहा भी है कि – “करत–करत अभ्यास, जड़मति होत सुजान।”
इसलिए मृदुला के प्रश्न के उत्तर में हमने भी बिना देर किये कहा –
“सोना, तुम्हें मुझसे कुछ पूछने के लिये अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है। यू कैन आस्क एनि थिंग, एनि टाइम बेबी।”
मेरी ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों का इधर मृदुला पर कोई असर नहीं होता था क्योंकि वो ख़ुद चिकनाई का महासागर थी। बोली-
“ड्रामा नहीं, प्लीज़। सिर्फ़ ये बताओ कि अगर तुम कुत्ती को भी कुत्ती नहीं कहते तो फिर कुत्ती को कहते क्या हो?”
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम और अंतर्मन से आवाज़ आयी – गई भैंस पानी में।
“मैं कुत्ती को डार्लिंग, स्वीट हार्ट, माय लव, बेबी, रानी… ऐसे नामों से संबोधित करता हूँ मैडम। रिस्पेक्ट में कोई कमी नहीं करता,’’ – मैंने मस्ती भरे अंदाज़ में कहा।
मृदुला मुस्कुराई और शून्य में खोई–खोई सी बोली, “पता है, मुझे न सूअर के बच्चे बहुत प्यारे लगते हैं। आई लव देम।’’
मन तो किया कि एक खींच के मारें और कहें कि जब प्यार सूअर के बच्चे से है तो शादी का प्रोग्राम भी उन्हीं के साथ फ़िट कर लो। दिन रात हमारे साथ काहें पचौरा बतियाती हो? हम कौनों सूअर के बच्चे तो हैं नहीं। ओय तेरी तो, लौंडिया तो बड़ी तेज़ निकली। इन डाइरेक्ट्ली हमका सूअर का बच्चा बोली का? अउ हमरे पूज्य पिताजी को सूअर !!!!!! और “लव देम” इसी लिये बोली कि हम अपने बाप की बेज़्ज़ती भूलकर “लव” पर कनफ्यूज़ रहें। लेकिन बनारसी आदमी को बकैती में हराना नामुमकिन है। बाबा महादेव अउ संकट मोचन जी की कृपा हमेशा बनी रहती है हर बनारसी पर। ऊपर से बनारसी बचुआ को अगर “सर्व विद्या की राजधानी बी.एच.यू.” की हवा लगी हो, तब तो वो सारी दुनियाँ को रखता है अपने घंटे पर और गोहराता है- “... का बे भोसड़ी के ..........।”
लेकिन हम बनारस में नहीं थे और सामने थी सुंदर, सुशील कन्या मृदुला। मामला भी प्यार – मोहब्बत का था अउ वो भी सीरियस वाला सो गाँधी बाबा को यादकर ग़म खा गये। लेकिन बाप की बेज़्ज़ती का क्या? क्या बाप ने इसीलिए पढ़ाया-लिखाया था कि जवान होकर हम इश्क़ मिज़ाजी में उनकी इज़्ज़त उछलवायें ? और कहीं इसी लड़की को उनकी बहुरिया बना दिया तो ये का का कराएगी हमरे अम्मा–बाबू से? ई तो उनको अपने घंटे पर रखेगी। नहीं स्त्रीलिंग है तो घंटे पर नहीं घंटी पर रखेगी। लेकिन सुना तो नहीं कभी कि कोई महिला कहे कि घंटी पर। अस्सी घाट पर भी नहीं सुने। ......... ई का सोच रहे हैं साला घंटा–घंटी। लेना बदला है बाप के अपमान का अउ हम ससुर घंटन से घंटा–घंटी में अटके हैं। घंटा-घंटी मेरे घंटे पर। अब सिर्फ़ बदला .... फाइनल।
“मुझे कुकरी के पिलई से प्यार है। आई लव देम मृदुला मैडम,’’ – मैंने कुटिल मुस्कान के साथ कहा।
“कुकरी के पिलई मतलब?” – मृदुला ने पूछा
मन तो किया कि कह दें – तुम, तुम्हारा खानदान लेकिन सुंदर सुशील कन्या की डायरेक्ट बेज़्ज़ती नहीं कर सकते थे। अपनी हँसी दबाते हुए मैंने कहना शुरू किया –
“कुत्ती को कुकरी कहते हैं। वह जब बच्चे देती है तो मेल और फिमेल दोनों बच्चे होते हैं। मेल बच्चों को पिल्ला और फ़िमेल बच्चों को पिलई कहते हैं। समझी मैडम?”
“हूमम्म....समझी,’’- मृदुला ने कहा
“क्या समझी?” – मैंने छेड़ते हुए कहा।
“यही कि छोरे तु है बड़ो छिछोरों,” – उसने मुस्कुराते हुए कहा।
“वैसे छोरी तु भी कम छिछोरी ना है। अपणी खूब जमेगी।’’-
मैंने कहा और हम दोनों खिलखिला पड़े। हम कुंभनगढ़ पर थे। हमारी उन्मुक्त हँसी मानों ज़मीन से आसमान तक फैलते हुए फ़फरवरी की उस गुलाबी ठंड में हवाओं के कान में प्रेम का कोई महाकाव्य सुना रही हो, जिन्हें उन हवाओं, घटाओं और पेड़-पौधों के अलावा सिर्फ़ हम सुन पा रहे थे।
मैं अपने शोधकार्य के सिलसिले में राजस्थान की यात्रा पर था और मृदुला से याराना तो काफी पुराना था। हम ने कालेज़ की पढ़ाई एक साथ की थी। ये चोरी-छुपे इश्क़ उन्हीं दिनों से फ़रमाया जा रहा है। नौकरी मिलने के बाद मृदुला से मैंने एकबार कहा कि अब ये चोरी-छुपे वाला खेल बंद करते हैं और कोई “फ़ाइनल डिसीज़न” लेते हैं। लेकिन मृदुला अभी इस “फ़ाइनल डिसीज़न” के लिये तैयार नहीं थीं। मेरे अधिक ज़ोर देने पर कहती –
“चोरी-छुपे वाला ही अभी चलने दो।”
और जब मैं इसका कारण पूछता तो शरारत भरे लहजे में कहती –
“छोरों, चोरी रो गुड मिठो।”
फ़िलहाल वह वनस्थली विद्यापीठ, उदयपुर में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च फ़ेलो के रूप में कार्यरत थी और पूरे राजस्थान में मेरी एक मात्र सखी भी वही थी। लाज़मी था कि मुझे पूरा राजस्थान घुमाने की ज़िम्मेदारी उनकी ही थी।
तो बस हम घूम रहे थे। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, डुंगरपुर, बांसवाड़ा, चुरू, बीकानेर, जैसलमेर, सवाई माधोपुर, अजमेर, भरतपुर, कोटा, बूंदी, सिरोही, प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, बालोतरा, चित्तौड़गढ़, झालावाड़, जालोर, पाली, नागौर, बाराँ, हनुमानगढ़ भटनेर ........ कहाँ नहीं गये हम? और मैंने ऐसा बहुत कुछ खाया जो पहले कभी नहीं खाया था। जैसे कि चीला, भरवा पराठे, मगोड़ी, निमकी, सांगरी की सब्ज़ी, मिर्ची के टिपोरे, गट्टे की सब्ज़ी, गौंदी, घेवर, चूरमा, खीचिया, आलू मंगौडी, खूबा रोटी, झाजरिया, लपसी, पंचकूट, पिटौर, कुकड़ा और न जाने क्या क्या। बीस दिनों से बस यायावरी हो रही थी।
यात्रा का उद्देश्य शैक्षणिक था इसलिए राजस्थान के कई विश्वविद्यालयों में भी जाना हुआ। जैसे कि राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर, राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोदी प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान संस्थान, लक्ष्मणगढ़ ,वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान विद्यापीठ, बिड़ला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान, पिलानी, आई.आई. एस. विश्वविद्यालय, और कोटा विश्वविद्यालय समेत कई अन्य भी थे। अब सब के नाम याद नहीं आ रहे।
लेकिन मृदुला के साथ इस बीस दिन की खानाबदोशी ने मेरी आवारगी में एक सलीका ला दिया था। उसके साथ आशनाई आशुफ़्तगी बढ़ा रही थी। मैंने फिर एक बार “फ़ाइनल डिसीज़न” वाली बात की तो वो बोल पड़ी – “तुम्हारे साथ फाइनल डीसीज़न ....यू मीन शादी .... हुम्म ....... हो तो सकता है लेकिन तुम्हारा पूरा “मेक ओवर” करना होगा। लेकिन छोड़ो ... छ दाम को छाजलो, छै टका गंठाई का। कुछ नहीं हो सकता ... छोड़ो।’’ और वह खिलखिला उठी। मेरा तो पसेरी भर खून जल गया। उसकी बात जितनी समझ में आयी उतने से इतना अनुमान तो लग गया कि बेज़्ज़ती हुई है, वो भी भारी वाली। अब बात का मतलब पूछ के बेज़्ज़ती का सटीक वज़न पता करना परम चूतियापा ही था। वैसे भी हमारे बनारसी चचा कहते हैं कि – ठंडी और बेज़्ज़ती जितना महसूस करो ससुरी उतनी ही बढ़ती है। हमने भी कहा – “छोड़ो ... जाने दो।’’
देर रात कब नीद आयी पता नहीं लेकिन ठीक रात के साढ़े तीन बजे ही मोबाईल गनगनाया। मैंने मोबाईल स्क्रीन पर देखा तो नाम “चुड़ैल” दिखा रहा था। मैंने मृदुला का नाम इसी नाम से फीड किया था। लेकिन साढ़े तीन बजे रात को फोन उस चुड़ैल ने पहले कभी नहीं किया था। मन में कई उल्टे सीधे ख़याल आ रहे थे। मैंने फोन उठा लिया और हॅलो बोला। लेकिन सामने से सिर्फ़ मृदुला की सिसकियाँ सुनायी दे रहीं थीं। मैं डर गया। बहुत पूछा कि क्या बात है? लेकिन वह सिर्फ़ रोये जा रही थी। मैं रोने की वज़ह पूछता और वह सिर्फ़ रो रही थी। मैं बड़ा असहज हो रहा था कि उसकी आवाज़ कानों में पड़ी –
“साले, कुत्ते, कमीने ...मेरे साथ तुम, ऐसे कैसे कर सकते हो?”- उसने रोते-रोते ही हुंचकते हुए कहा।
मुझे काटो तो ख़ून नहीं। मैंने क्या किया? ये सवाल मेरे अंदर ही मुझे बेचैन कर रहा था। उस दिन कुंभनगढ़ में एक बार “किस” किया था लेकिन......... वो तो “विद परमीशन” था बाकी और क्या ....... सोच ही रहा था कि उधर से फिर आवाज़ आयी –
“इतने सारे लोग थे, किसी ने मेरी मदद नहीं की। खैर उनको तो मैं नहीं जानती थी, लेकिन तुम, तुम मज़े से खड़े सब देख रहे थे। बेचारी अकेली लड़की को 5-6 गुंडे पीट रहे हैं और तुम साले खड़े होकर मज़े ले रहे थे, हँस भी रहे थे। साले, कमीने ........” – उसने इतनी बात जल्दी–जल्दी बतायी और फिर सिसकने लगी।
फ़रवरी की उस सर्द रात में भी मैं पसीने से भीग गया। मैंने ऐसा किया? वो भी मृदुला के साथ? लेकिन कब? मुझे तो कुछ याद नहीं। लेकिन मृदुला लगातार रोये जा रही थी और उसका दोषी मैं था? अजीब सा अपराध बोध था। अपराध का अता-पता नहीं लेकिन कोई बोध करा रहा था। वो भी रात के साढ़े तीन बजे रो-रो कर। मैंने डरते हुए पूछा –
“ये कब की बात है मृदुला?”
“आज....अभी की ..... ऐसे दिखा रहे हो जैसे कुछ जानते नहीं?....” – उसने जवाब रोते हुए ही दिया।
लेकिन रहस्य तो गहराता जा रहा था। कहीं कोई भूत–प्रेत या चुड़ैल ने तो नहीं पकड़ लिया मृदुला को? उस दिन किले में मैंने कई बार उसे चुड़ैल कहकर बुलाया था। शायद किसी चुड़ैल ने मेरी बात को सीरियसली ले लिया हो और मामला इतना सीरियस हो गया हो?...... मेरा बनारसी दिमाग दौड़ रहा था और मैंने मन ही मन भोले बाबा और संकट मोचन को याद किया। इतने में फिर उसकी आवाज़ कानों में पड़ी -
“ये सब मैंने, अभी, सुबह–सुबह सपने में देखा और मेरे पापा कहते हैं, कि सुबह का सपना, कभी झूठा नहीं होता। तुमने सपने में ऐसा किया मतलब सच में भी ऐसा ही करोगे। कोई मुझे मार रहा होगा और तुम मज़े से खड़े रहोगे, हँसोगे। तुम.......,” – वो उसी तरह रोते हुए कहे जा रही थी। मन तो किया उठ के जाऊँ और चार झन्नाटा मार आऊँ। दो उसे और दो उसके पंडित बाप को। बड़ा से बड़ा बनारसी बकैत भी इस लड़की के आगे पानी भरे।
यही है वो लड़की, जिसे इस दुनियाँ में सबसे अधिक चाहता हूँ। मेरा क्या होगा भोलेनाथ?.... यही सोचते हुए भोर में फिर सोये कि महादेव सपने में आकार जगा दिये। मानों मुझसे कह रहे हों –
“तुमसे ब्याह कर, अगर ई बनारस आ गई, तो बनारस का होगा बे?...” –
और मेरी नींद फिर टूट गयी।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कविता
-
- आज अचानक हुई बारिश में
- आजकल इन पहाड़ों के रास्ते
- आठ मार्च, विश्व महिला दिवस मनाते हुए
- इन पहाड़ों मेँ आकर
- इन रास्तों का अकेलापन
- इस महामारी में
- उतरे हुए रंग की तरह उदास
- उस ख़्वाब के जैसा
- उसने कहा
- एक वैसी ही लड़की
- काश तुम मिलती तो बताता
- चाँदनी पीते हुए
- चाय का कप
- जब कोई किसी को याद करता है
- जीवन के तीस बसंत के बाद
- जो भूलती ही नहीं
- ताशकंद
- ताशकंद शहर
- तुमसे बात करना
- दीपावली – हर देहरी, हर द्वार
- नए साल से कह दो कि
- निषेध के व्याकरण
- नेल पालिश
- बनारस 01 - बनारस के घाट
- बनारस 02 - बनारस साधारण तरीके का असाधारण शहर
- बनारस 03 - यह जो बनारस है
- बनारस 04 - काशी में शिव संग
- ब्रूउट्स यू टू
- मैंने कुछ गालियाँ सीखी हैं
- मोबाईल
- युद्ध में
- वह सारा उजाला
- वो मौसम
- शायद किसी दिन
- शास्त्री कोचासी, ताशकंद
- शिकायत सब से है लेकिन
- हम अगर कोई भाषा हो पाते
- हर घर तिरंगा
- हिंदी दिवस मनाने का भाव
- सजल
- नज़्म
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- ग़ज़ल
- पुस्तक समीक्षा
- पुस्तक चर्चा
- सांस्कृतिक आलेख
- सिनेमा और साहित्य
- कहानी
- शोध निबन्ध
- सामाजिक आलेख
- कविता - क्षणिका
- विडियो
-
- ऑडियो
-