जहरा

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा (अंक: 173, जनवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

मैं ठीक से नहीं बता पाऊँगा कि उसका नाम जहरा था या जहरी। इतना याद है कि गाहे-बगाहे लोग दोनों ही नाम इस्तेमाल करते थे। इस बात से कभी जहरा को भी कोई फ़र्क़ पड़ा हो, ऐसा मुझे याद नहीं। उस गाँव-जवार में जहरा की अपनी एक धाक थी। बाबूजी उसे लड़का मर्द कहते थे। वह पासी टोले की अघोषित नेता थी। अब उम्र होगी कोई साठ-पैंसठ के आस-पास। लंबा, चौड़ा, मेहनती बदन। साँवला पर चमकदार चेहरा। लाल, काले और सफ़ेद बालों की एक चोटी जो उसकी पीठ के मध्य तक लटकती रहती। मुँह में हमेशा सुरती सोपाड़ी या पान। वह कुर्ती और घाघरा पहनती। साड़ी में मैंने उसे अपने बचपन में देखा है। लेकिन इधर पंद्रह-बीस सालों से यही उसका पहनावा था। उसकी तरह कुर्ती और घाघरा उस गाँव में मैंने सिर्फ़ चुड़िहारिन को पहनते देखा है। वैसे यह पहनावा अब उसकी एक पहचान बन गया था। 

जहरा का सिर्फ़ नाम जहरा था, व्यवहार और बातचीत में एकदम मीठी और हँसी-मज़ाक से भरी हुई। मेहनती और ईमानदार इतनी कि कटाई-बोआई के लिए ठाकुर बाभन साल भर उसकी ख़ैरियत पूछते। लेकिन वह भी एकदम मँजी हुई खिलाड़ी थी। इसी गाँव-जवार में उसने अपनी जवानी खपा दी थी। जिसने भी कभी उसका मान-मर्दन करना चाहा उसे पूरे समाज में नंगा कर दिया। सात महीने के नवजात को अपनी पीठ से बाँधे रात भर में अकेले दो-तीन बियहे गेहूँ की कटाई कर लेती।  बाबूजी बताते हैं कि अपने उम्र समय में जहरा की तूती बोलती थी। हाथ में धारदार हँसिया उसके हमेशा रहता था। उसकी ज़बान तेज़ थी मगर बिगड़ैल नहीं। बड़े-छोटों का ओहम करना जानती थी।  

उसे दूर से आता देखकर बाबूजी ज़ोर से चिल्लाते, "का हो जहरा नेता. . ." बाबूजी की आवाज़ पर वह मुस्कुरा देती और घर की तरफ़ बढ़ने लगती। पास आकर दोनों हाथ ऊपर उठा ज़ोर से कहती, "राजा जी की जय, बाबू की जय।" 
बाबूजी फिर कहते, "बईठा, सुरती खाबे?" फिर दोनों की लंबी वार्ता होती। जहरा कई क़िस्से सुनाते हुए पूरी भाव भंगिमा से प्रस्तुतीकरण करती। बग़ल ही बैठी दादी को "महतारी, महतारी" कहते हुए महकऊ पक्की सुरती कई बार माँग चुकी होती। अंत में जब दादी कहती कि "अब न देब, कुल चुक ग।" तब वह आँखें नचा के कहती, "का हे महतारी, गठियाए त हऊ, द जल्दी नाही त छोर लेब।" 

उसकी यह बात सुन दादी हँसने लगती। बाबू की तरफ़ देख कहती, "देखत हय एकर दहिजरी क दावा।" 

बाबूजी जी भी मुस्कुरा कर कहते, "तोहार बिटिया अहाई त छोरिन लेये।" 

दादी फिर आँचल में बँधी सुरती खोलते हुए कहती, "बिटिया त अहिन, लेकिन हमार कौनो काम नाइ करत।" 

तीर एकदम निशाने पर लगता और जहरा फिर दादी का हाथ पकड़ कहती, "का महतारी? कौन काम तोहार नाय किहे? बताव त?" 

फिर क्या, दादी के पास लंबी सूची होती। दाल दलने से बखारी में गेहूँ रखवाने तक। खुरपी मँगवाने से लेकर दाना भुजवाने तक, सब गिना देती। 

फिर बाबू जी लोहा गरम देख संवेदनात्मक चोट करते हुए कहते, "अरे जहरा नेता एतना खलिहर नाय बाटीन। बड़की नोट द तब कुछ बात बनें।" 

यह सुन जहरा क्रोध में आ जाती और दादी से कहती, "नाही महतारी, बाबू झगड़ा लगावत हयेन। तोहार कुल काम होई जाए, रचि के खलियाई जाई।" 

यह सुन दादी के चेहरे पर चमक आ जाती। वह फिर धीरे से कहती, "चूनी क रोटी खाबे?" 

यह सुन जहरा का चेहरा खिल जाता। वह मुस्कुराते हुए कहती, "बिना महतारी के पूछै, चलअ द।" 

इतना कहकर वह खड़ी हो जाती। मशीन वाले घर में उसकी एक थाली और ग्लास अलग से रक्खी हुई थी। वह उसे लेकर दादी के साथ ओसारे की तरफ़ बढ़ जाती। उनके जाने के बाद बाबूजी धीरे से कहते, "बूढ़ा आपन काम निकार लिहिन। जहरिया एनकर मनबउ करअ थ।"

जहरी के बारे में दादी अक़्सर एक घटना का ज़िक्र करती। वो बताती कि जहरी की शादी लालता से हुई थी। शादी के एक साल बाद जब उसे बेटी हुई तो लालता कमाने के लिए कलकत्ता चला गया। किसी ट्रांसपोर्ट की ट्रक पर ख़लासी का काम करता था। लेकिन जब बहुत दिन हुए उसकी कोई खोज-ख़बर नहीं मिली तो लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कुछ लोग यह भी कहते कि किसी दुर्घटना में उसकी मौत हो गई। लेकिन सच्चाई ईश्वर ही जाने। लेकिन वह फिर कभी लौटा नहीं। लालता की माँ हमारे यहाँ ही काम करती थी। सुबह कूचा लेकर दुआर बटोरना, चारा काटना, गोबर पाथना और बर्तन धोने जैसे कई काम वह सुबह से शाम तक करती।

लालता के न लौटने और बहू का मुँह देख उसे अपार कष्ट होता। दादी से अपना दुःख कहते वह अक़्सर फूट-फूट कर रो पड़ती। दादी उसे हिम्मत देती लेकिन मैंने कई बार देखा कि किसी से उसकी बात करते हुए वे ख़ुद रोने लगती। इसी बीच एक दिन सुबह ख़बर आयी कि लालता की माँ को रात में साँप ने काट लिया और वह मर गई। रोते-बिलखते जहरा पहली बार हमारे घर आयी थी। उसकी गोद में सात-आठ महीने की बच्ची थी। बाबूजी ने उन्हीं के टोले के निहोर को बुलाकर कुछ पैसे दिए और अंतिम संस्कार इत्यादि करने को कहा। बाबूजी ने दादी के हाथों जहरी को भी कुछ पैसे दिए और बोले, "चिंता मत करो, हम सब तो हैं। निहोर सब करेंगे। तुम सब्र से काम लो। होनी को कौन टाल सकता है?" इतना कहकर बाबूजी खेतों की तरफ़ चले गए। निहोर भी टोले की तरफ़ निकल पड़े। जहरी बहुत देर तक दादी के पास रोती रही। दादी ने उसे खूब हिम्मत बधाई, बेटी को पिलाने के लिए दूध दिया। थोड़ी देर बाद जहरी भी वहाँ से अपने घर को चली गई लेकिन हफ़्ते-दस दिन बाद ही वह अपनी सास की जगह काम करने आने लगी।

दादी बताती कि जहरी बहुत मेहनती थी। ईमानदारी से काम करती। हमारे यहाँ वह काम से भी संतुष्ट थी कि फिर एक बार उस पर दुखों का पहाड़ टूटा। आषाढ़ अभी लगा ही था। उस दिन सुबह से ही बूँदी नहीं टूटी थी। रात क़रीब आठ बजे के आसपास देवी जी की आरती करके बाबू जी कोठरी में खाना खाने गए। खाना खाकर वे कमरे में सोने चले गए। थोड़ी देर बाद दादी भी बरामदे की लालटेन बुझा घर की मुख्य किवाड़ बंद कर अन्दर हो गई। नौ, साढ़े नौ तक सोता पड़ गया। बाहर पानी लगातार बरस रहा था। रमदुलरिया कुतिया भी मशीन घर के एक कोने में बोरी पर दुबक चुकी थी। 

उस अँधेरी रात में अजीब सी शांति थी। लगातार बरसते पानी को मानो उस रात अकेले शासन का अधिकार मिला हो। वह उस रात में स्पंदित होनेवाली मानो अकेली वस्तु हो। धरती पानी पीकर अघा रही थी और पानी धरती को अपने अंदर समाए जा रहा था। किसी और के करने के लिए कुछ न था, सब बस दुबके हुए सो रहे थे। ऐसे में किसी के रोने और दरवाज़ा पीटने की आवाज़ से दादी काँप गई। हिम्मत करके अन्दर से ही चिल्लाई – "कौन है?"

"अरे अम्मा दहिजरा मार डारे हो, केवाड़ी खोला। जहरा हई," जहरा की आवाज़ दादी पहचान भी गई थी। उसने तुरंत लालटेन जलाई और किवाड़ खोल दिया।

सामने सर से पाँव तक पानी में भीगी जहरा खड़ी थी। उसके ओंठ काँप रहे थे। आँखें आग उगल रहीं थीं। एक हाथ से बेटी को चिपकाए हुए थी और दूसरे हाथ में कसकर हँसिया पकड़े हुए थी। हाथ काँप रहा था, साड़ी, ब्लाऊज का पता नहीं सिर्फ़ पेटीकोट में वह काँप रही थी। उसे इस तरह देख दादी को बात समझने में देर नहीं लगी। वो उसे घर के अंदर ले गई। अपनी एक साड़ी दी और बेटी को अंगेठी के पास सुलाने के लिए एक कथरी। जहरा बहुत कुछ कहना चाहती थी, लेकिन दादी उसके मुँह पर हाथ रखकर बोली, "कुछ मत बोल। कपड़े बदल ले, मैं आती हूँ। तेरे बाबू को भी सुबह उठाऊँगी।" 

इतना कहकर दादी घर के अंदर गई और बची हुई रोटी, दाल, चावल और एक बड़ा कटोरा लाई, जिसमें अंगेठी से गरम दूध निकालकर जहरा के सामने रख दिया। जहरा भोकार छोड़कर रोने लगी। इसपर दादी ने उसे अपनी क़सम देते हुए चुप रहने को कहा। बोली, "सुबह बाबू के सामने सब कहना। अभी खा ले और बच्ची को भी दूध पिला दे। यहीं सीढ़ी के नीचे सो भी जाना। अंगेठी से थोड़ी गर्मी भी मिलेगी। ओढ़ने के लिए भी कुछ देती हूँ, तू तब तक खा ले।" इतना कहकर दादी फिर अपनी कोठरी में गई और एक पुराना कम्बल लकड़ी के बक्से से निकाल लायी। 

जहरा ने अभी थाली छुई भी नहीं थी। यह देख दादी ग़ुस्से में बोली, "खाती क्यों नहीं रे?" 

इसपर जहरा बोली, "अम्मा, ये बर्तन जूठा हो जायेगा। मेरी वाली थाली मशीन घर में है, लेकर आती हूँ।" 

इतना कहकर वह उठने ही वाली थी कि दादी बोली, "इतने पानी में मशीन घर जाने की कोई ज़रूरत नहीं। चुपचाप इसी में खा ले। ये बर्तन भी अपना सँभाल के रख लेना। खा के सो जा, सुबह बात करेंगे।" 

इतना कहकर दादी वहाँ से अपनी कोठरी में आ गई। जहरा दादी की ममता से मखा गई और उसकी आँखें गीली हो गईं। उसने चुपचाप खाना खाया, बेटी को दूध पिला अंगेठी के पास ही दीवाल से सटकर कथरी पर सो गई। बाहर पानी अब भी बरस रहा था लेकिन अब वह जहरा को डरावना नहीं लग रहा था। उस रात के बाद जहरा डरना भूल चुकी थी। उसका हँसिया उसके पास ही था, जिसे वह अपने सीनेपर रखकर मानो मन ही मन कोई संकल्प भी ले रही हो। वह जहरा के लिए संकल्पों की भी रात थी। 

अगले दिन सुबह जहरा भोर में ही उठ गई। उसकी आँखों के लाल डोरे साफ़ बता रहे थे कि रात वह जागकर ही काटी है, लेकिन उसके चेहरे पर एक स्थिरता थी। जैसे-जैसे आसमान में सिंदूरी रंग फैल रहा था वैसे-वैसे जहरा की सक्रियता भी बढ़ गई थी। दादी के उठने से पहले वह घर, आँगन, ओसारा और दुआर बटोर कर खत-कतवार घूरे में फेंक आई थी। खलंगा में बर्तन साफ़ कर रसोई घर में रख चुकी थी। गाय का गोबर हटा उपले भी पाथ चुकी थी। जब करने को कुछ न बचा तो वापस अपनी कथरी में बेटी के साथ दुबक गई। बरसात से तर हो चुकी मिट्टी कूंचे से साफ़ होने के बाद और अधिक महक रही थी। जहरा जीवन के कड़वे जहर से पिछली रात जितनी हताश थी, सुबह उतनी ही निर्विकार। मानों उसे इस जहर को उतारने का कोई मंत्र मिल गया हो। 

जब उसकी आँख खुली तो दादी उसे मीठी घुड़की से उठा रही थी। "कब से चेल्लात बाटी, सुनात नाय बा? उठ जल्दी।" जहरा हड़बड़ा कर उठी और सामने दादी को खड़ा देख शरारत से मुस्कुरा दी। उसकी निश्च्छल मुस्कान पर दादी भी मुस्कुराते हुए बोली, "मुझे पता है चुड़ैल अपना काम कर के सो रही है, लेकिन उठ जा। बिटिया को गरम दूध पिला दे और तेरी चाय रखी है, तू भी पी ले। चल फिर बाबू बुला रहे हैं।" 

बेटी को दूध पिला जहरा ने चाय के साथ बासी रोटी और अचार माँग कर खाया। सीने से बेटी को चिपकाए हुए वह दादी के साथ बाबू के पास पहुँची। 

बाबूजी उस समय तख़्ते पर ही दाढ़ी बना रहे थे। उन्हें देखते ही जहरा फिर पिछली रात को याद कर रोने लगी। बाबूजी गंभीर होते हुए बोले, "रो मत, अभी-अभी राम निहोर सब बता कर गया मुझे। बरखुआ साला इतना हरामी होगा, मैंने सोचा नहीं था। बताओ वह जेठ लगे तेरा। उसके लिए तुम बेटी की तरह हो। लालता और लालता की माँ के बाद यह उसकी ज़िम्मेदारी थी कि तुम्हारा भी ख़्याल रखता। अलगौझी होने से रिश्ते नहीं ख़त्म होते। कौन कहे ध्यान रखने को, बताओ अपनी बहू बेटी पर ही पापी हाथ डाल रहा है। कीड़े पड़ेंगे साले को। तू चिंता मत कर पूरा पसियान उसे खोज रहा है। मिलेगा तो यही लोग उसकी अक्ल ठिकाने लगा देंगे। मैंने भी राम निहोर से कह दिया है, पुलिस दरोगा सब मैं देख लूँगा, लेकिन उस पापी को मारो ज़रूर।" इतना कहकर बाबूजी जहरा की प्रतिक्रिया जानने के लिए उसकी तरफ़ देखे पर जहरा आँखें झुकाए रोए जा रही थी।

उसे ढाढ़स बँधाते हुए बाबूजी फिर बोले, "तू बिलकुल मत घबराना। निश्चिंत होकर घर जा। हम लोगों के रहते तुझे कुछ नहीं होगा। एकदम निश्चिंत रहो।" इतना कहकर बाबूजी फिर जहरा की तरफ़ देखे। इस बार जहरा अपने दाहिने हाथ में लिये हँसिये को दिखाते हुए रोते हुए बोली, "बा, बाबू इही हसिया से ओकर गोड़वइ काटे रहे; चेल्लात की भाग रहा। डर के नाते हम भीजत बिटिया लिहे अम्मा के लगे आइ गए।" 

उसका उत्साह बढ़ाते हुए बाबू फिर बोले, "अच्छा किया। बहुत अच्छा किया। तू बहादुर है। ऐसे पापी को ऐसे ही दंड दिया जाना चाहिए। तू बिलकुल चिंता मत कर, पूरा गाँव तेरे साथ है। सब तेरी तारीफ़ कर रहे हैं। आराम से घर जा, कोई ज़रूरत हो तो राम निहोर से कहलवा देना। निहोर तुम्हारे टोले के सबसे ज़िम्मेदार और सम्मानित आदमी हैं। मेरे भरोसे के हैं, उन्हें मैंने कह दिया है कि तुम्हारा ध्यान रखें। तुम जाओ, सब ठीक हो जायेगा," बाबू जी की इन बातों को सुनकर जहरा मुस्करा दी और हाथ जोड़कर वहाँ से चली गई। 

अगले दिन सुबह रोज़ की तरह जहरा अपने काम पर हाज़िर। दादी से ख़ूब हँसी-ठिठोली करती। दादी जितना डाँटती वह उतना ही हँसती। कुछ दिनों बाद बरखू वापस आ गया था पर गाँव में किसी से नज़रें नहीं मिला पाता। बाबूजी ने भी उसे बुलाकर खूब हड़काया था। कुछ ही दिनों में वह सूरत कमाने चला गया। जहरा अब अपने टोले की औरतों की अघोषित नेता हो गई थी। किसी ने भी जहरा से कोई फ़रियाद की तो जहरा अपना सर्वस्व न्योछावर कर उसकी सेवा में हाज़िर। धीरे-धीरे जहरा कटाई-बोआई के काम की मेठ बन गई। जो जहरा को मना ले उसके घर-खलिहान में अनाज सही समय पर भितरा जाता और जो जहरा से टेढ़ा हुआ वह कटाई-बोआई को मनई मज़दूर को तरस जाता। 

जहरा अब गाँव-जवार में जहरा नेता के नाम से मशहूर थी। ठाकुर महेंद्र प्रताप सिंह के निकम्मे बेटे ललई सिंह ने गेहूँ काटते समय जहरी को पीछे से दबोच लिया था, लेकिन शेरनी की तरह झपटते हुए जहरी ललई के सीने पर चढ़ बैठी और हँसिए से उसकी नाक काट ली। चिल्लाते हुए जब ललई भागा तो जहरी हँसिया लिए उसके पीछे दौड़ी। अंत में पंचायत बैठी और ठाकुर महेंद्र सिंह ने जब माफ़ी माँगी तब मामला शांत हुआ। उस गाँव-जवार में बारह घर ठाकुर, सौ घर अहिर, तीन सौ घर बाभन और दो सौ घर पासी टोले में हैं। दस बीस घर बनिया और कुछ तेली, माली और नटो के घर हैं। लेकिन किसी ठाकुर की नाक काटने का यह पहला मामला था। पूरा पासी टोला डरा हुआ था, लेकिन सब जहरा के साथ खड़े थे। ठाकुर महेंद्र सिंह बड़े धरम-करम के आदमी थे, वे ख़ुद अपने बेटे के ख़िलाफ़ हो गये थे। उन्होने खुला ऐलान किया था कि जो भी उनके बेटे का साथ देगा वह उनका कोप भाजन बनेगा। धीरे-धीरे मामला शांत हुआ और जहरा को जो नहीं जानता था वो भी जानने लगा। 

जहरा की ज़रूरत सब को थी। उसकी मेहनत और ईमानदारी पर किसी को कोई शक नहीं था। अब जहरा, जहरा नेता थी। परधानी भी दो बार जीत चुकी है। आगे उसने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। कहती है, "निश्च्छल लोगों का यह सब काम नहीं, चुनाव वो लड़े जो हराम का खाने की इच्छा रखता हो। अपना तो एक ही सिद्धांत है पहले "क" पीछे "ख"। मतलब कि पहले कर्म करो फिर खाने की सोचो।" 

अब जहरा की उम्र ढलान पर है। थोड़ा झुक कर चलने लगी है। लेकिन गले में हसिया और मुँह में पान सोपाड़ी दबाए उसी बुलंद आवाज़ में बतियाती है। पिछली गर्मियों में जब गाँव गया तो अचानक जहरा से मुलाक़ात हुई। बाबूजी और दादी दोनों अब नहीं रहे। उनको याद करते हुए जहरा बोली, "बेटवा, बाबू अम्मा बहुत आसरा दिहें। आपन बिटिया ऐस मानेन। ओंही के प्रताप से जहरा सब के ललकारे रहाइं। हाउ कमलापति....।" 

जहरा फिर एक कहनी सुनाने में डूब जाती। और मैं डूब जाता उसकी आँखों में टिमटिमाती यादों की रोशनी में। जहाँ हिम्मत हौसले का हाथ पकड़ हर मुसीबत से दो-दो हाथ करने को तैयार है। जहाँ एक औरत सच्चाई और मेहनत से आगे बढ़ते हुए अपने कुछ होने पर गर्व महसूस करती है। जहाँ एक औरत की हिम्मत कई ज़हरीले सापों का फन कुचलकर उनके ज़हर से समाज को बचा रही है। ये वही औरतें हैं जो अपने आँचल को परचम में बदलना जानती हैं।

मैं आज भी नहीं जानता हूँ कि उसका असली नाम जहरा था कि जहरी लेकिन उसने इस नाम को जिस तरह सार्थक किया वह जानना शानदार रहा। 

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