उतरे हुए रंग की तरह उदास
डॉ. मनीष कुमार मिश्राटूटकर
बिखरे हुए लोग
चुप हैं आजकल
या फिर
मुस्कुरा कर रह जाते हैं
हँसने और रोने के बीच
कहीं गहरे गड़े हुए हैं।
झरते हुए आँसू
रिसते हुए रिश्ते
सब मृत्यु से भयभीत
दाँव पर लगी ज़िंदगी की
इच्छाएँ शिथिल हो चुकी हैं
सब के पास
एक उदास कोना है
हँसी ख़ुशी
अब खूँटियों पर टँगी है।
सब के हिस्से में
महामारी
महामारी की त्रासदी
महामारी के क़िस्से हैं
आशा की नदी
सूखती जा रही है
सारी व्यवस्थाएँ
उतरे हुए रंग की तरह उदास हैं।
संवेदनाओं का कच्चा सूत
रूठी हुई नींदों को
कहानियाँ सुनाता है
इस उम्मीद में कि
उसका हस्तक्षेप दर्ज होगा
लेकिन
अँधेरा बहुत ही घना है
ज़हरीली हवा
शिकार तलाश रही है
सत्ताओं का क्या?
उनकी दबी हुई आँख को
ऐसे मंज़र बहुत पसंद आते हैं।
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