हम अगर कोई भाषा हो पाते
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
भाषाओं के इतिहास में
भाषाओं का ही
परिमल, विमल प्रवाह है ।
वह
ख़ुद को माँजती
ख़ुद से ही जूझती
तमाम साँचों को
झुठलाती और तोड़ती है
वह
इस रूप में शुद्ध रही कि
शुद्धताओं के आग्रहों को
धता बताती हुई
बस नदी सी
बहती रही
बिगड़ते हुए बनती रही है
और
बनते हुए बिगड़ती भी है ।
दरअसल वह
कुछ होने न होने से परे
रहती है
अपनी शर्तों पर
अपने समय, समाज और संस्कृति की
थाती बनकर ।
उसकी अनवरत यात्रा में
शब्द ईंधन हैं
और अर्थ बोध ऊर्जा
हम अगर
कोई भाषा हो पाते
तो हम
बहुद हद तक
मानवीय होते ।
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