मज़दूर
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
मूल कहानी: उस्ता; मूल लेखक: उत्किर हासीमोव; हिन्दी में अनुवाद: ‘मज़दूर’-डॉ. मनीष कुमार मिश्र
अनुवाद सहायक: राउफोवा शाहजोदा बहज़ोद किज़ी
उज़बेकों का अवकाश या तो घर बनाने में गुज़रता है, या शादी करने में। पिछले साल हमने आँगन के किनारे मेहमानख़ाना और बरामदा बनाने का फ़ैसला किया। इमारत बनाने की परेशानी वही जानता है जिसने इसे झेला हो। अगर लकड़ी हो तो ईंट नहीं, अगर ईंट हो तो टिन नहीं, अगर टिन मिल जाए तो पेंट नहीं . . . ख़ैर, अभी बात यह नहीं है।
दीवार बनने के बाद अब्दुजब्बार नाम का मज़दूर नौकरी करने में लग गया। बिल्कुल भोला भाला, मगर हुनरमंद आदमी। बीम रखना हो, खंभे खड़े करना हो, फ़र्श बिछाना हो—हर काम बेहतरीन करता है। ईमानदारी से काम करता है। मगर एक ही क़ुसूर है—पीता है, रोज़ पीता है। दोपहर तक किसी तरह सहता, मगर दोपहर के समय उससे रहा नहीं जाता।
“अरे भाई, वह ‘सफ़ेद पानी’ ले आओ!” गला सूखकर दिल से ग़ज़ल निकल पड़ी!
जो भी हो, वह एक मेहमान है, मैं कुछ नहीं कह सकता। माँ को पता न चले, इसलिए चुपचाप एक प्याला भरकर दे देता। उसका यह कहना है कि वह उसे अपने ‘ज़हर’ में गटकता और गाना ज़ोर से शुरू करके काम में लग जाता:
“बाग़ से गुज़रता हूँ,
गुलशन से गुज़रता हूँ . . .”
माँ समझ जाती कि उसने फिर पी ली है और मुझे डाँटने लगतीं, “बच्चों वाले आदमी को शराबी बना रहे हो? रोज़ पिलाने में तुम्हें शर्म नहीं आती?”
अब्दुजब्बार ऊपर से चिल्लाकर कहता, “मैंने नहीं पी, अम्मा! मैंने नहीं पी! अगर पिया हो तो एक चम्मच पानी में डूबकर मर जाऊँ! आप मुझे नशे में समझ रही हैं? देखिए, मैं तो एक टाँग पर खड़ा होकर दिखा सकता हूँ!”
फिर वह बीम पर एक टाँग से खड़ा होकर दिखाता कि वह ‘नशे में नहीं।’
मेरी माँ और भी ज़ोर से चीख पड़तीं, “अरे, संभलो! गिर जाओगे!”
. . . जब छत ढालने की बारी आई, तो माँ ने मुझे किनारे बुलाकर सख़्त आदेश दिया, “अगर अब से इस लड़के को शराब पिलाओगे, तो मैं तुमसे नाराज़ हो जाऊँगी! कल गिरने ही वाला था। किसी का बेटा अपाहिज हो जाए, तो ख़ुदा क्या कहेगा?”
उस दिन दोपहर में मैंने अब्दुजब्बार को कड़ाई से समझाया, “भाई, बुरा मत मानो, मगर अब से दोपहर में मत पिया करो।”
मज़दूर ने इधर-उधर की बातें कीं, मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। आख़िरकार, उसका चेहरा उतर गया और वह चुपचाप छत पर चढ़ गया। न गाना, न बातें . . . तीन-चार दिन तक यही हाल रहा। फिर मैं भी अपने काम में व्यस्त हो गया।
एक दिन दोपहर बाद हाल-चाल लेने आया, तो दूर से ही मज़दूर की ज़ोर की आवाज़ सुनाई देने लगी। वह टीन को दो बार ज़ोर से बजाता है, फिर अपनी ठुड्डी दाईं ओर खींचकर ज़ोर से चिल्लाता:
“बाग़ से गुज़रता हूँ . . .”
फिर हथौड़ा दो बार बजाकर, इस बार ठुड्डी बाईं ओर खींचकर दोहराता:
“गुलशन से गुज़रता हूँ . . .”
माँ चाय उबाल रही होती, माँ के पास पहुँचा।
“फिर से यह ‘बाग़ से गुज़रना’ शुरू हो गया, किसने पिलाया?”
माँ बिना मेरी तरफ़ देखे बोलीं, “मुझे नहीं पता। लगता है, नहीं पी है।”
शायद अब्दुजब्बार ने हमारी बात सुन ली, छत से ही चिल्लाया, “क्या कह रहे हो, ओ भाई! अगर पी हो, तो मेरे क़दमों के छाप पीछे रह जाएँ! क्या मैं इतना डरपोक हूँ कि पीकर भी आपसे छुपाऊँ? क्या मैं अम्मा के सामने पीकर पागल हो गया हूँ? अच्छा, बस एक ‘सफेद पानी’ मँगवा दीजिए! रात को दिल हल्का करेंगे . . .”
किसी पर झूठा इल्ज़ाम लगाने का मन नहीं था, इसलिए चुप रहा। फिर ये बातें भुला दी गईं।
इन दिनों में जब मैं घर में बैठा काम कर रहा था, तो अब्दुजब्बार आ गया। कपड़े सजे-धजे, टोपी सिर पर तिरछी रखी हुई, दाढ़ी साफ़-मुंडा . . .
“कैसे हैं, भाई! काग़ज़ में स्याही उतार रहे हैं क्या?” वह ऊँची आवाज़ में बोला, “हमारे लिए कोई सेवा-विवा नहीं?”
मज़ेदार बात यह थी कि उसकी ऊँची आवाज़, सादगी से ‘भाई’ कहने का तरीक़ा उस पर ख़ूब फबता है। हमने गले मिलकर मुलाक़ात की।
“ज़रा लोगे?” मैंने हँसते हुए पूछा। “तब तो पाँच–दस दिन तुम्हारी हालत ख़राब कर दी थी। अब उधार चुका दूँ?”
“नहीं!” अब्दुजब्बार ने सख़्ती से सिर हिला दिया, “मैं अपना उधार चुकाने आया हूँ।”
फिर उसने अपनी पतलून की जेब टटोलकर दस सोम का नोट निकाला और मेज़ पर रख दिया, “यह लें।”
“यह क्या?”
“उधार,” उसने कुछ उदास स्वर में कहा। मुझे कुछ समझ नहीं आया।
“तुम पर मेरा कोई उधार नहीं!”
“आप का नहीं, अम्मा से लिया था।”
उसका चेहरा अचानक उदास हो गया, जो उस पर जँच नहीं रहा था। माँ को याद कर मैं भी उदास हो गया।
“अगर लिया था, तो ठीक है,” मैंने धीरे से कहा, “इसमें सोचने की क्या बात है?”
“नहीं!” अब्दुजब्बार ने फिर सख़्ती से सिर हिलाया, “मैंने अलग तरीक़े से लिया था।” किसी वजह से झुँझला गया।
“आख़िर बात क्या है?”
“यह सब एक-एक करके सुनाऊँ?” अब्दुजब्बार ने ऐसे मुँह बनाया जैसे वह ख़ुद से और मुझसे भी नफ़रत कर रहा हो, फिर बड़बड़ाते हुए बोलने लगा, “ऐसा हुआ। उस दिन, जब मैं छत रख रहा था, घर पहुँचा तो देखा कि पड़ोस में शादी हो रही थी। पीते गए, पीते गए, आख़िर में ऐसा हाल हुआ कि बस थोड़ा ही बाक़ी था कि होश ही उड़ गए। सुबह उठा तो सिर दर्द से फटा जा रहा था! दरवाज़ा किधर है, खिड़की किधर है—कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था! और ऊपर से बीवी ने ताने मारने शुरू कर दिए। औरतों को जानते ही हैं!” वह मेरी तरफ़ देखकर बोला, जैसे मुझसे सहमति चाहता हो। “अगर वे कुछ कहें तो उनका कहना पूरा करके उन्हें पैसे ला दो, उनके कपड़े-लत्ते का इंतज़ाम कर दो, तो आदमी अच्छा है। लेकिन अगर नहीं कर सको तो वे झगड़ालू कहेंगी—‘जाओ, भागो यहाँ से’! बस और थोड़ी देर बैठूँ, फिर झगड़ा शुरू हो जाता है। मैंने कुर्ता कंधे पर डाला और घर से बाहर निकल आया। लेकिन कम्बख़्त वह मेरी जेब भी ख़ाली कर चुकी थी! जब यहाँ आया तो आप घर पर नहीं थे। मैंने अपनी हालत अम्मा को बताई। ‘ऐसी-ऐसी बात है, तबीयत बहुत ख़राब हो रही है। थोड़ा सा न पीऊँ तो जान निकल जाएगी,’ कहा। लेकिन वे सुनने को तैयार नहीं थीं। मैंने मनाने की बहुत कोशिश की। ‘अम्मा जी, अगर अभी न पिया तो मर जाऊँगा! गुनाहगार न बनें, बस पाँच सोम दे दें!’ मानने का नाम ही नहीं ले रहीं! उल्टे डाँटने लगीं—‘ख़ुद तुम्हें शराब देकर पाप में फँसने की मेरी इच्छा नहीं है, उसकी जगह तुम्हारे लिए गरमा गरम मस्तवा बना देती हूँ!’ क़सम से, खड़े रहने की भी ताक़त नहीं थी! सिर पकड़कर बैठा रहा। देख रहा हूँ कि वे बार-बार मेरी ओर देख रही हैं। मुझे पता था कि उन्हें मुझ पर तरस आ रहा है, लेकिन फिर भी नहीं मानीं। आख़िरकार कोई चारा नहीं बचा। छत पर किसी तरह जाकर काम में लग गया, लेकिन सिर भला मेरा नहीं था। तभी अचानक उन्होंने आवाज़ लगाई: ‘मस्तवा तैयार है!’ मस्तवा का मैं क्या करूँ? हज़ार कटोरी मस्तवा से तो अच्छा है कि बस सौ ग्राम ‘सफेद पानी’ मिल जाए! बहुत बुलाने के बाद आख़िरकार नीचे आया। जैसे ही नीचे देखा, तो सीढ़ियों के पास एक मुड़ा-तुड़ा पाँच सोम का नोट पड़ा था। मेरी आँखें जल गईं। उठाया पर हाथ काँपने लगा।”
“यह किसका है?” मैंने ज़ोर से पूछा।
अम्मा खाना परोसने में व्यस्त थीं। मैं दौड़कर उनके पास गया।
“यह किसका है?” मैंने नोट दिखाते हुए फिर पूछा।
अम्मा को ग़ुस्सा आ गया।
“जब तूने इसे पाया है, तो तेरा ही होगा! और इतना चिल्लाने की क्या ज़रूरत है?” उन्होंने डाँटते हुए कहा।
अब्दुजब्बार चुप हो गया। वह एक ही जगह टकटकी लगाए बैठा रहा। उसकी आँखों में हमेशा की तरह जोश नहीं था, बल्कि गहरी सोच झलक रही थी।
“फिर एक बार, जब मेरी हालत बहुत ख़राब हो गई थी, अम्मा ने फिर से पाँच सोम ‘गिरा’ दिए थे,” उसने धीरे से कहा, “मैंने उठा लिया।”
कमरे में गहरी चुप्पी छा गई। अब्दुजब्बार टकटकी लगाए बैठा रहा, उसका चेहरा उदास था।
“यह वही दस सोम हैं!” उसने पैसे मेरी ओर बढ़ाए।
“रहने दो,” मैंने ईमानदारी से कहा, “मेरी माँ तुमसे राज़ी होकर गई हैं।”
“अगर आपने यह पैसा न लिया, तो मैं अपने पिता का बेटा नहीं!” अब्दुजब्बार झटके से खड़ा हो गया। दरवाज़े तक पहुँचा, फिर अचानक मुड़कर मेरी ओर देखा, “एक दिन मैं अम्मा की क़ब्र पर जाने निकला था,” उसकी आवाज़ भारी थी, “लेकिन क़ब्रिस्तान के दरवाज़े से ही लौट आया . . . मैंने पी रखी थी।” वह कुछ पल ज़मीन की ओर देखता रहा, फिर धीरे से बोला, “आज गुरुवार है . . . मैं जाना चाहता हूँ। तीन दिनों से नहीं पी है।”
बिना मेरा जवाब सुने, वह दरवाज़ा बंद कर बाहर चला गया।
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