एक दिन यक़ीनन

01-04-2024

एक दिन यक़ीनन

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)



(बहर मुक्त ग़ज़ल)
 
चलते चलते जब एक रोज़ थक जाऊँगा
उजाले बाँटकर मैं भी कहीं ढल जाऊँगा। 
 
होना तो हम सभी के साथ यही होना है
कि कोई आज चला गया मैं कल जाऊँगा। 
 
माना कि बहुत सारी ख़ामियाँ हैं मुझ में
पर किसी खोटे सिक्के सा चल जाऊँगा। 
 
मौत की आशिक़ी से इनकार कब किया
ज़िन्दगी जितना छल सकूँगा छल जाऊँगा। 
 
ये बाज़ार बहलाता फुसलाता है कुछ ऐसे
गोया मासूम सा बच्चा हूँ कि बहल जाऊँगा। 

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