एक दिन यक़ीनन
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
(बहर मुक्त ग़ज़ल)
चलते चलते जब एक रोज़ थक जाऊँगा
उजाले बाँटकर मैं भी कहीं ढल जाऊँगा।
होना तो हम सभी के साथ यही होना है
कि कोई आज चला गया मैं कल जाऊँगा।
माना कि बहुत सारी ख़ामियाँ हैं मुझ में
पर किसी खोटे सिक्के सा चल जाऊँगा।
मौत की आशिक़ी से इनकार कब किया
ज़िन्दगी जितना छल सकूँगा छल जाऊँगा।
ये बाज़ार बहलाता फुसलाता है कुछ ऐसे
गोया मासूम सा बच्चा हूँ कि बहल जाऊँगा।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कविता
-
- आज अचानक हुई बारिश में
- आजकल इन पहाड़ों के रास्ते
- आठ मार्च, विश्व महिला दिवस मनाते हुए
- इन पहाड़ों मेँ आकर
- इन रास्तों का अकेलापन
- इस महामारी में
- उतरे हुए रंग की तरह उदास
- उस ख़्वाब के जैसा
- उसने कहा
- एक वैसी ही लड़की
- काश तुम मिलती तो बताता
- चाँदनी पीते हुए
- चाय का कप
- जब कोई किसी को याद करता है
- जीवन के तीस बसंत के बाद
- जो भूलती ही नहीं
- ताशकंद
- ताशकंद शहर
- तुमसे बात करना
- दीपावली – हर देहरी, हर द्वार
- नए साल से कह दो कि
- निषेध के व्याकरण
- नेल पालिश
- बनारस 01 - बनारस के घाट
- बनारस 02 - बनारस साधारण तरीके का असाधारण शहर
- बनारस 03 - यह जो बनारस है
- बनारस 04 - काशी में शिव संग
- ब्रूउट्स यू टू
- मैंने कुछ गालियाँ सीखी हैं
- मोबाईल
- युद्ध में
- वह सारा उजाला
- वो मौसम
- शायद किसी दिन
- शास्त्री कोचासी, ताशकंद
- शिकायत सब से है लेकिन
- हम अगर कोई भाषा हो पाते
- हर घर तिरंगा
- हिंदी दिवस मनाने का भाव
- सजल
- नज़्म
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- ग़ज़ल
- पुस्तक समीक्षा
- पुस्तक चर्चा
- सांस्कृतिक आलेख
- सिनेमा और साहित्य
- कहानी
- शोध निबन्ध
- सामाजिक आलेख
- कविता - क्षणिका
- विडियो
-
- ऑडियो
-