ताशकंद

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

ताशकंद को पहली बार
फरवरी की सर्द हवाओं में
बर्फ़ से लिपटे हुए देखा 
बर्फ़ का झरना
बर्फ़ का जमना
और बर्फ़ का आँखों में बसना
जितना दिलकश था
उतना ही ख़तरनाक भी
लेकिन दिलकश नज़ारों के लिए
ख़तरे उठाने की 
पुरानी आदत रही है
और आदतन
मैं उन मौसमी जलवों का
तलबगार हो गया। 
 
ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी से
याकुब अली रोड पर स्थित
मेरे बसेरे की दूरी
तीसरी डनहिल सिगरेट के
लगभग
आख़िरी कश तक की थी
उसके बाद 
डोमसियां की गरमा गर्म कॉफ़ी
उन गर्म साँसों-सी लगती
जो मुझसे दूर होकर भी
मेरे अंदर ही कहीं
बसी रहती हैं। 
 
दिलशेर नवाई, बाबर
और फ़ातिमा की काव्य पंक्तियों को पढ़ते हुए
कबीर, टैगोर, शमशेर
और अमृता प्रीतम याद आते रहे 
मैं कविता की इस आपसदारी से ख़ुश हूँ
सरहदों के पार
बेरोक टोक सी
शब्दों की ऐसी यात्राएँ
कितनी मानवीय हैं!! 

डॉ मनीष कुमार मिश्रा
विजिटिंग प्रोफ़ेसर (ICCR हिंदी चेयर) 
ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ ओरिएंटल स्टडीज
ताशकंद, उज़्बेकिस्तान। 

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