चाँदनी पीते हुए
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
सामान्य सी
कितनी ही बातें
असामान्य होती हैं
तब जब कि
उनके पीछे
एक सूक्ष्म दृष्टि होती है।
तुम्हारे साथ
जो बीत गया
जिसमें
मैं पूरा रीत गया
वह समय
शहद, घटा, चाँदनी वाला।
याद आता है
कि कैसे
उलझती गयी
ज़िन्दगी
तुमसे मिलने के बाद।
तुम्हारे नाज़ुक
कानों के
नुकीले टोप्स
अपने नौसिखिये
हाँथों से
निकालते हुए
मैं सावधान रहता
और तुम
लापरवाही के साथ
मुस्कुराती।
यह
तुम्हारे भरोसे
और
मेरे बढ़ते अधिकारों की
एक सहज
यात्रा थी।
मेरी हथेली में
तुम्हारी हथेली को
खिड़कियों से निहारता
बाहर खड़ा
देवदार
और फिर
अपनी हरीतिमा में
सिमट जाता
पहाड़ों पर बिखरी
चाँदनी पीते हुए।
तुम्हारे बालों में
घूमती
मेरी उँगलियाँ
निकल जातीं
सम्मोहन की
किसी लंबी यात्रा पर।
फिर
तुम्हारी आँखों में
डूबी हुई
मेरी निष्पाप आँखें
उन स्याह रातों में
ठंड और कोहरे की उपस्थिति के बीच
प्रेम से लबालब होकर
लुढ़ककर
फैल जातीं
तुम्हारी चेहरे की लाली में
और
शरबती ओंठों की
मीठी सी
किसी गाली में।
भोर की बेला
जब दुबकी रहती तुम
अपनी रजाई में
तो तुम्हें
अधकचरी नींद से उठाता
चाय के
गर्म प्याले
और दुलार के साथ।
थोड़ी ना-नुकुर के बाद
तुम्हारी आँखें
जब मुस्कुरा देतीं
तब मेरे
एक सार्थक दिन की
हो पाती शुरूआत।
फिर दिनभर
तुम्हारी उजली मुस्कान के लिए
जद्दोजेहद के बाद
कोहरे से ढके
उन सुनसान
पहाड़ी रास्तों पर
तुम्हारे साथ
मीलों पैदल चलते हुए
तुम्हें
गुनगुनाते हुए सुनना।
तुम्हें सुनते हुए
महसूस करना
तुम्हारी साँसों की धुनी
स्वरों का
उतार-चढ़ाव
आँखों का बाँकपन
ओंठों पर आती /छाती
अनायास सी हँसी
और
इन सब के बीच
तलाशता
ख़ुद का
ठौर-ठिकाना।
चलते-चलते
तुम्हारे हाथों को
थाम लेता
अपनी हथेली में
देते हुए
तुम्हारी नज़रों को झाँसा।
फिर
उस स्पर्श को
उन दर्रों-पहाड़ों से छुपाकर
जमा करता
अपने अंतर्मन की
गहरी खोह में।
उन स्याह रातों की
नीलिमा का
बहुत एहसान है
मेरे सौम्य, निष्प्रभ
प्रेम के स्थापत्य से अनजान
भोले से
इस मन पर।
और तुम
अब जहाँ भी हो
जैसी भी हो
अपनी गरिमा और
ऊर्जा के ताब के साथ
सुनो!
तुम अविस्मरणीय रहोगी
मेरे होने के
आख़िरी सोपान तक
क्योंकि
मैंने
जमा किया था
तुम्हारे स्पर्श को
अपने अंतर्मन की
गहरी खोह में।
जहाँ से तुम
मेरी सर्जनात्मक शक्ति की
आराध्या बन
रिसती रहोगी
मिलती रहोगी
उसी लालिमा
और आत्मीयता के साथ।
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