वह लावारिस नहीं थी
सुमन कुमार घई
पिछले सप्ताह जो लावारिस लाश सख़्त कंक्रीट के फ़ुटपाथ पर मिली थी, आज इस फ़्युनरल होम के एक हाल में, शव पेटिका में नर्म गद्दे पर पड़ी थी। लावारिस . . . सगे-संबंधियों से घिरी; तलाक़शुदा . . . सुहागन सी सजी! विरोधाभास और विडम्बना से क्षत शरीर अंतिम यात्रा के लिए तैयार–फ़ुटपाथ से अनंत की ओर।
अभी अधिक लोग आए नहीं थे। शव पेटिका खुली थी और उसके सामने पहली पंक्ति में सोफ़ों पर परिवार-जन और निकट संबंधी बैठे थे। हाल में हल्की सी रोशनी थी। धीमी सी राम-धुन बज रही थी। जगह-जगह पर आँसू पोंछने के लिए टिश्यू-पेपर के डिब्बे रखे थे। रह-रह कर मृतिका की माँ के सुबकने का स्वर गूँज उठता था। सोफ़ों पर मृतिका की माँ, पिता, नरेन्द्र की दूसरी पत्नी और उसके साथ मृतिका का बेटा बेचैन-से थे। माँ की आँखों के सिवाय सब की आँखें सूखी थीं।
नरेन्द्र का ध्यान अचानक शव पेटिका के पीछे दीवार पर लटके क्रॉस की ओर गया। वह एकदम उठा—अरे! बात तो ॐ की हुई थी और यहाँ क्रॉस! हाल में जगह-जगह पर फ़्युनरल डायरेक्टर सहायता और प्रबन्ध देखने के लिए चेहरे पर उदास मुस्कान लटकाये खड़े थे। एक की नज़र नरेन्द्र से मिली। नरेन्द्र ने दूर से ही आँखों से इशारा किया–फ़्युनरल डायरेक्टर भी तुरंत समझ गया। उसने अपने सामने बँधे हाथों से ही उत्तर दिया कि अभी देखते हैं। नरेन्द्र ने पलट कर पीछे देखा–अधिकतर कुर्सियाँ ख़ाली थीं। बस अंतिम पंक्ति में सुबह सैर पर जाने वाले ग्रुप के लोग बैठे थे; जिन्हें लाश मिली थी। अभी तक तो नरेन्द्र की उम्मीद से कम लोग ही आए थे। चिंता की एक रेखा उसके चेहरे पर खिंच गई और वह बाहर की ओर चल दिया।
उसके मन में था कि एक बार सभी इंतज़ाम स्वयं देख ले। फ़्युनरल होम के साथ हुए कॉन्ट्रेक्ट में शवपेटिका के मॉडल, गुलदस्तों की गिनती, फूलों के रंग-क़िस्म से लेकर गुलदानों तक को लिखा गया था। हाल के अन्दर और लॉबी में घूमते फ़्युनरल डायरेक्टरों को नरेन्द्र ने गिना। फिर एक छोटे हाल में जाकर नाश्ते की सजी मेज़ों पर नज़र डाली। एक गर्म पानी की कैटल और उसके साथ ट्रे में रखे के चाय के बैग देखे। कॉफ़ी का अर्न भी था और साथ ही मसाला-चाय की कैटल भी थी। दूसरी ओर के मेज़ पर मफ़्फ़िन, ब्रेड और मक्खन इत्यादि भी सजे थे। नरेन्द्र को सब सही लगा। वह फिर हाल में लौट आया।
कोई कमी तो नहीं रह गई। हाल की अंतिम कुर्सियों की पंक्ति के पीछे खड़े होकर उसने देखा। शवपेटिका का आधा ढक्कन खुला था। आधे बंद हिस्से पर फूलों का बड़ा गुच्छा रखा था। आसपास रखे दो मेज़ों पर गुलदस्ते थे और एक स्टैण्ड पर मृतिका की एक बड़ी फोटो पर फूलों का हार चढ़ा दिया गया था। हाल के एक कोने के मेज़ पर छोटी बेंत की टोकरियों में गुलाब की पत्तियाँ और अगरबत्तियाँ पड़ी थीं। जब पंडित जी कहेंगे तो अंतिम दर्शन करते हुए लोग इन्हें मृतिका पर चढ़ाएँगे। क्रॉस की जगह अब ॐ लटक गया था। “सब ठीक है” नरेन्द्र बुदबुदाया और फिर बाहर लॉबी की ओर चल दिया।
लॉबी में जगह-जगह पर सोफ़े रखे थे। हाल के दरवाज़े के दोनों ओर दो महिला फ़्युनरल डायरेक्टर तैनात थीं और एक फ़्युनरल होम के मुख्य दरवाज़े पर। दो जन अल्पाहार वाले कमरे का प्रबंध देख रहे थे। नरेन्द्र ने चैन की साँस ली कि कॉन्ट्रेक्ट के अनुसार सब सही था।
लॉबी में उसे दो वृद्ध आते दिखाई दिए। वह उन्हें पहचानता नहीं था। उसने सोचा शायद सीनियर सिटिज़न क्लब से होंगे। पिता जी ने बुलाया होगा। वृद्ध, लॉबी में आने के बाद बीच में ही रुक कर लॉबी का बड़ी बारीक़ी से मुआयना करने लगे; छत से लेकर कार्पेट तक; दीवारों की सज्जा से लेकर खिड़कियों पर लटके पर्दों तक। आश्चर्य से उनके मुँह खुले थे।
“यार! यह तो बैंक्युएट हाल जैसा ही लग रहा है। मरों के लिए ऐसा शानदार इंतज़ाम!” स्पष्ट था कि वह पहली बार फ़्युनरल होम आया था। दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। उनकी आँखें हर छोटी-छोटी चीज़ पर अटकतीं और विस्मय उनके चेहरे पर फैल जाता। हाल के दरवाज़े के पास पहुँचते-पहुँचते उन्हें मसाला चाय की ख़ुश्बू आने लगी। उन्होंने हाल के अन्दर झाँका पर अन्दर नहीं गए। एक ने पलट कर धीमे स्वर में कहा, “चाय-पानी का भी इंतज़ाम है। चल पहले कुछ खा-पी लें। बाद में एक बार ही बैठेंगे।”
“हाँ ठीक है। एक बार रोना-धोना शुरू हो गया तो बीच में से उठा नहीं जाएगा, ” दूसरे ने हामी भरी। और दोनों अल्पाहार वाले कमरे में पहुँच गए। दोनों ने अपनी-अपनी प्लेट सजाई। कपों में मसाला चाय भरी और मेज़ पर बैठ कर सुबह के दूसरे नाश्ते का आनंद लेने लगे।
थोड़ी देर बाद एक के मन में प्रश्न उठा।
“सुन, बन्दे ने . . . पैसा तो बहुत ख़र्चा लगता है।”
“बन्दा कौन?”
“वही नरेन्द्र का ससुर।”
“ले! वह कहाँ से ख़र्चेगा? कंगाल . . . उसकी हालत मैं जानता हूँ।”
“तो फिर?” ख़र्च हुए पैसे के बारे में जानना शायद पहले के लिए बहुत आवश्यक था।
“नरेन्द्र ने ख़र्चा होगा, “दूसरे ने बात को समाप्त करते हुए कहा और चाय सुड़ुकने लगा।
पहले वाले ने थोड़ी देर के लिए सोचा, संतोष नहीं मिला, “बता . . . नरेन्द्र क्यों ख़र्चेगा? उसने तो यह लड़की छोड़ रखी थी।”
दूसरा अब तक थोड़ा खीज चुका था, “तुझे क्या लेना-देना; जो इतनी खोद-खोद कर बात कर रहा है। चाय-नाश्ता कर और अन्दर हाल में अपना मुँह दिखा; हाज़िरी लगवा।”
पहला चुप तो कर गया पर अभी भी उसके मन में हिसाब-किताब चल रहा था। अगर नरेन्द्र ने ख़र्च किया है तो हो न हो ज़रूर कुछ इंश्योरेंस का चक्कर होगा। इंश्योरेंस वाले सब जोड़-तोड़ कर लेते हैं।
दोनों की चाय समाप्त हो चुकी थी और वह लॉबी में लौट चुके थे। सामने से नरेन्द्र आता दिखाई दिया। उसने औपचारिकता निभाते हुए सर झुका कर हाथ जोड़े। पहले ने आगे बढ़ कर नरेन्द्र के जुड़े हाथों को अपने हाथों में भर लिया और धीमे, सधे हुए स्वर में अफ़सोस किया पर हाथ नहीं छोड़े। नरेन्द्र की आँखों में झाँकते हुए कहा, “बेटा तुमने इंतज़ाम तो बहुत बढ़िया किया है।”
नरेन्द्र इसके लिए तैयार नहीं था। वह कुछ बुदबुदाया, जिसे सुनने का प्रयास वृद्ध ने नहीं किया पर एक प्रश्न और दाग दिया, “बेटा, ख़र्च तो बहुत हुआ होगा?”
भला नरेन्द्र क्या उत्तर देता इस समय! बूढ़ा बाल की खाल उतारने पर तुला था।
“बता, भला इस क्रिया-कर्म की भी इंश्योरेंस होती है क्या?”
इस अप्रत्याशित प्रश्न से नरेन्द्र की आँखों में चमक आ गई। उसने अपनी जेब से अपना बिज़नेस कार्ड निकाल कर दोनों बुज़ुर्गों को थमा दिया, “अंकल जी बाद में मुझे फोन कर लेना। सब समझा दूँगा। बहुत अच्छी पॉलिसी है। आप तो अपने हैं . . . देख लूँगा,” नरेन्द्र ने पहले की कोहनी को छू कर विदा ली और आगे बढ़ गया।
नरेन्द्र के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी। वह सोच रहा था कि दो सम्भावित ग्राहक तो मिले। अब वह अपनी पत्नी के सामने दी दलील को सच्चा साबित करके दिखा सकता है।
जब से उसने मृतिका के अंतिम संस्कार की बात घर में उठाई थी, उसकी पत्नी ने आफ़त उठा दी थी।
"हम क्यों करेंगे? तुम्हारी अब वो क्या लगती है? माँ-बाप नहीं हैं क्या? पैसा कौन देगा?” और भी न जाने क्या-क्या कह डाला था उसने। उसे शान्त करने के लिए नरेन्द्र ने बीमा पॉलिसी का बताया था। जिसकी वह अभी तक किश्त भरता रहा था। इस रहस्योद्घाटन ने आग में घी का काम किया था। उसकी बीवी और भड़क उठी थी। अब प्रश्न दीवारों से टकरा कर उछल रहे थे, “और कहाँ और किस-किस पर मुझ से छिपा कर पैसे ख़र्च कर रहे हो? क्यों भर रहे थे किश्तें? क्या लगती थी तुम्हारी? तुम्हारी बीवी . . .? तो फिर मैं कौन हूँ . . .?” और भी न जाने क्या-क्या नहीं कहा था उसने। दूसरी तरफ़ नरेन्द्र तूफ़ान के थमने का इंतज़ार कर रहा था। सब दलीलें उसने तैयार कर रखी थीं। बस बोलने का अवसर नहीं मिल रहा था। उसे अपनी पत्नी से इसी तरह की प्रतिक्रिया की आशा थी। उसे समझ आ गया कि यह तूफ़ान तब तक नहीं थमेगा जब तक वह अपनी पत्नी की आँखों के आगे रहेगा। उसने अपनी पत्नी की आँखों के आगे से हट जाना ही बेहतर समझा और बाहर निकल गया।
जब तक वह वापिस घर लौटा, पत्नी की क्रोधाग्नि सुलग रही थी–धधक नहीं रही थी। बात उसी ने आरम्भ की, “सुनो, तुम्हारे पास क्या इतने पैसे हैं कि उस औरत के फ़्युनरल बीमा की किश्तें भरते रहे हो–जिससे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है? मुश्किल से घर का गुज़ारा चलता है। छोटे को छोड़ कर मुझे शाम को ग्रोसरी स्टोर में नौकरी करनी पड़ रही है और तुम किश्तें भर रहे हो।” नरेन्द्र आँखें झुका कर सब सुन रहा था सोच रहा था ‘जब तक इसके मन का गुबार नहीं निकल जाता तक सुनने में ही भलाई है’।
कुछ मिनटों के बाद बीवी रुकी तो नरेन्द्र बोला, “तुम पूछती हो कि क्या यह ज़रूरी था? हाँ, ज़रूरी था।” बीवी ने सोचा था कि नरेन्द्र ऐसा उत्तर नहीं देगा। उसके मन की आग को फिर हवा मिलने लगी थी, परन्तु इससे पहले यह आग लावा बनकर फूटे, नरेन्द्र ने अपनी दलीलों का पानी डालना आरम्भ कर दिया।
“जिसे अपना बेटा कह कर छाती से लगाए फिरती हो, वह उसी बदक़िस्मत का बेटा है। लाख कह लो, उसके दिमाग़ में भर दो कि तुम उसकी असली माँ हो, बड़े होने पर उसे पूरी कहानी पता चल ही जाएगी। तो क्या जवाब दोगी? जिस लड़की को मैंने पागल बना दिया, उसकी लाश को ठिकाने पुलिस ने लगाया!” उसको अपने शब्द ही तीर की तरह चुभे। पर यह आवश्यक थे। वह अपने शब्दों से ही बीवी को झकझोर देना चाहता था। उसकी बीवी की दुखती रग, उसका बाँझ होना था। नारी की ममता तो संतान चाहती है। मृतिका का बेटा उसकी इसी ज़रूरत को पूरा कर रहा था। उसकी ममता भूल जाती थी कि बेटा उसका नहीं है। नरेन्द्र की बीवी शांत हो चुकी थी।
“पर पैसे की तंगी में यह सब कैसे करेंगे हम?”
“उसकी फ़िक्र मत करो। यह इंश्योरेंस मैंने इसीलिए ले रखी थी।”
“तो क्या तुम्हें पता था कि वह लड़की इसी तरह मरेगी?”
“नहीं, यह उम्मीद तो नहीं थी। पर यह जानता कि जिस तरह का जीवन वह जी रही थी, मरेगी ज़रूर और समय से पहले।”
उसकी पत्नी भीतर तक काँप उठी थी। कितना कठोर हृदय था उसका पति! सब रिश्तों का क्या इसी तरह ठंडे दिल से हिसाब लगता है? प्यार की उष्णता है ही नहीं इसके रिश्तों में? तो मैं कौन हूँ इसके लिए? केवल एक जिस्म? मेरे लिए भी क्या इसने ऐसी कोई पॉलिसी ख़रीद रखी है? दोनों के बीच मौन की उस दिन जो खाई फैली आज यहाँ फ़्युनरल होम में भी उपस्थित थी।
नरेन्द्र हाल में लौट आया। अब कुछ भीड़ बढ़ने लगी थी। उसने जेब में हाथ डाल कर बिज़नेस कार्डों की गिनती का अनुमान लगाया–पर्याप्त थे। जिससे भी नज़र मिली, सिर झुका कर मौन अभिवादन करते हुए बिना रुके आगे बढ़ता गया। पहली पंक्ति में अपनी पत्नी की बग़ल में बैठने के लिए जैसे ही मुड़ा उसकी नज़र मृतिका के पिता से मिली। उनके चेहरे पर एक ही क्षण में क्रोध और घृणा की लकीरें खिंच गईं। नरेन्द्र इस नकारात्मक ऊर्जा को सह नहीं सका।
पिता की एक नज़र ने ही अपने मन का सारा विष नरेन्द्र में उड़ेल दिया था। जनखा कहीं का! एक लड़की को सँभाल नहीं पाया। कितना समझाया था कि बिगड़ी घोड़ी को लगाम डालने के लिए उसे तोड़ना पड़ता है। नामर्द! क्या मजाल थी इस लड़की की कि किसी के आगे मुँह खोल पाती! जब तक मेरे क़ाबू में थी एक दिन भी आँख उठाने नहीं दी मैंने। और इसने एक रात में ही उसे बग़ावती बन जाने दिया। औरत . . . और आदमी को जवाब दे! मुझे ही, अपने पिता को ही गालियाँ देने लगी थी सुहागरात से अगली सुबह! मैं तो झापड़ जड़ देता उसी समय अगर इस नामर्द ने मेरे हाथ न पकड़े होते। पिता ने पलट कर मृतिका की ओर देखा। उसे खुली शव पेटिका में अपनी बेटी दिखी ही नहीं। उसकी आँखों पर पड़ा, मर्दानगी के ग़ुस्से का काला पर्दा उठा ही नहीं! उसे तो एक ही अफ़सोस था कि अगर शादी की अगली सुबह उसने बेटी के एक-दो लगा दी होतीं तो यह दिन नहीं देखना पड़ता। नरेन्द्र को लगा कि एक अँधेरा छा रहा है। जिसके बोझ को वह उठा नहीं पाएगा और वह बैठ गया।
अब पिता मृतिका की माँ को अपनी मर्दानगी का निशाना बना रहा था। माँ ने अपने पति की आँखों में झाँका। उनमें अपनी बेटी की मौत का कोई दुःख नहीं दिखाई दिया। दिखाई दिया तो केवल दोष जो माँ के माथे मढ़ा जा रहा था। मैं क्या करती? मैं ही बेटी की मौत की गुनाहगार हूँ? वह पल्लू मुँह में ठूँस फूट-फूट कर रो पड़ी। उसने पूरा जीवन रोते-रोते ही बिताया था। निःशब्द रोती रही थी अभी तक। आवाज़ निकालने की इजाज़त नहीं थी–रोते हुए भी नहीं। हँसी तो उस घर में थी ही नहीं। एक आतंक, एक भय की बदली छायी रहती थी–न जाने किस पर और कब बरस जाए। नरेन्द्र से बेटी के विवाह का कितना विरोध किया था उसने। इस जल्लाद ने एक नहीं सुनी थी। कितना कहा था उसने कि फूल सी बच्ची की अभी उम्र ही क्या है? वह भोली नहीं समझ पाएगी कि जिसे वह हर वर्ष राखी बाँधती है अचानक एक दिन उसका पति बन जाए। तुमने उसे लाख बन्दी बनाकर रखा हो, आख़िर पली-बढ़ी तो कैनेडा के माहौल में है। वह कैसे समझती कि कुछ रिश्तों में शादियाँ हो सकती हैं। ऐसा जल्लाद बाप कौन होगा इस दुनिया में जो बेटी की सुहागरात को जँवाई के कान में गुरु मंत्र फूँके कि औरत पर तब तक सवारी करो जब तक वह टूट न जाए। और मेरी बच्ची रात भर चीख़ती रही थी। अपने कानों पर हाथ धरने के बाद भी वह बेटी की चीख़ें सुनती रही थी। सुबह तक वह काँच की गुड़िया-सी बेटी ऐसी टूटी थी कि उसकी किरचें आज तक चुभ रही हैं। पर यह कठोर, पत्थर दिल अभी भी मर्द बने घूम रहा है। माँ का रोना अब क्रोध में बदलने लगा था–पर बेटी तो मर चुकी थी। वह निढाल हो सोफ़े में धँस गई। पल्लू से अभी भी होंठ ढँके थे, ख़ाली सी नज़रों से वह शव पेटिका को देख रही थी। उसका पति हाल से बाहर जा चुका था।
माँ ने पलट कर नरेन्द्र की ओर देखा। नरेन्द्र के चेहरे पर सहानुभूति खोजने का वह प्रयास कर रही थी। जितने साल वह घर रहा, वह उसे पिता से बचा तो नहीं पाया था पर सहानुभूति हमेशा दिखाता था। शायद दिखाता ही था। अगर संवेदनशील होता तो क्या केवल इमीग्रेशन पाने के लिए शादी के लिए मानता? रिश्तेदारी की ही सही, पर थी तो बहन ही। स्वार्थी कहीं का! और फिर जब बेटी की तबीयत बिगड़ी तो तलाक़ देकर बेघर कर दिया उसे। बेटा तक छीन लिया उससे। निष्ठुर! कमीना! पागल कहलवा दिया डॉक्टरों से। प्यार से किस बीमारी का इलाज नहीं हो जाता। मेरी बेटी के तो, बस दिल पर बोझ था। दिया होता सहारा, बना होता पति कभी। मेरी एक भी सुनी कभी? सुनी तो केवल उस जल्लाद की जिसने एक मांस का टुकड़ा तुम्हें सौंप दिया ताकि तुम मांस के बाप के ग़ुलाम बनकर बुढ़ापे में उसकी सेवा करते रहो। बेटी में तो कोई जान नहीं होती न! और न ही उसकी कोई इच्छाएँ होती हैं! क्या वह सोच नहीं सकती . . . क्या वह इंसान नहीं होती? क्या उसका दिल नहीं धड़कता? क्या उसने कभी अपने पति की कल्पना नहीं की होती? उतरते खरे उसकी कल्पना पर। कुछ दिन इंतज़ार किया होता, समझे होते उसे। तुमने मानी तो जल्लाद की बात। पहली रात प्रेम की होती है बलात्कार की नहीं। तुम बलात्कारी के अलावा कुछ हो ही नहीं। लाख ढोंग कर लो इस ताम-झाम का पर मेरी बेटी की मौत के तुम्हीं ज़िम्मेदार हो। माँ की नज़रें शांत हो गईं।
नरेन्द्र सिर झुका कर बैठ गया। अनकहा दोषारोपण उसकी सहनशक्ति से बाहर हो रहा था। उसने अपनी पीठ पर पत्नी की सहानुभूति का हाथ महसूस किया। उसने सर उठा कर पत्नी की ओर देखा और फिर अपने बेटे की ओर। बेटा डरा-सा माँ की गोद का सहारा लेकर खड़ा था। वह बेचैन-सा अपने भार को एक पाँव से दूसरे पर निरन्तर डाल रहा था। छह-सात साल का बच्चा अवसर की गम्भीरता को तो समझ रहा था पर कारण उसकी समझ से बाहर था। उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि आने वाले लोग पहले नानी के आगे सिर झुका कर या झप्पी डाल कर क्यों फुसफुसाते हैं। फिर माँ के आगे भी सर झुकाते हैं पर माँ से गले क्यों नहीं मिलते? कुछ कहते क्यों नहीं? और फिर मेरे सिर पर हर आने वाला हाथ क्यों फेरता है। बार-बार लोग उसे झप्पी डालें–उसे अच्छा नहीं लग रहा। उसने पापा की ओर देखा। पापा इतने उदास क्यों हैं? कोई मुझे कुछ बताता क्यों नहीं? उस बूढ़ी आंटी ने जब मुझे झप्पी डाल कर उस . . . उस ओर उँगली उठा कर कहा था, “बेटा वो तेरी माँ है।” तो मम्मी ने क्यों मेरी बाँह पकड़ कर खींच लिया था। कितना दर्द हुआ था मेरे कंधे में। बूढ़ी आंटी ने पलट कर देखा था और चल दी थी। माँ से तो वह भी नहीं बोली थी। माँ ग़ुस्सा क्यों है? वह उदास क्यों नहीं? और पापा और मम्मी आपस में बात क्यों नहीं कर रहे? उसे अच्छा नहीं लग रहा। वह बाहर बड़े हाल में भागना चाहता है। मम्मी हाथ नहीं छोड़ रही। कितनी ज़ोर से पकड़ा है मुझे कि मैं कहीं खो न जाऊँ।
नरेन्द्र ने बेटे को अपनी गोद में ले लिया। और अपनी गाल उसके सर से सटा ली। दोनों को अच्छा लगा। पंडित जी आ चुके थे और सामने एक ओर लगी गद्दी पर आसीन हो चुके थे। वह बोलने लगे–वही बातें जो पंडित जी न जाने कितनी बार इसी फ़्युनरल होम में ही दोहरा चुके हैं।
नरेन्द्र को सब अर्थहीन लग रहा था। बच्चे को अच्छा लग रहा था कि वह पापा की गोदी में है। नरेन्द्र की पत्नी अपने आपको अकेला अनुभव कर रही थी। माँ अपराधबोध से दबी जा रही थी। बाप अभी भी ग़ुस्से से तप रहा था। मृतिका का कौन सोच रहा था?
पंडित जी का संबोधन समाप्त हुआ। उन्होंने नरेन्द्र को पूजा के लिए आगे बुलाया।
नरेन्द्र उठा और पलट कर उसने एक बार पत्नी की ओर देखा। वहाँ कुछ भी नहीं था।
नरेन्द्र ने एक क़दम शव-पेटिका की ओर उठाया। न जाने क्या सोच कर वह पलटा और उसने अपने बेटे का हाथ थामा और उसे लेकर आगे पंडित जी की ओर चल दिया।
हाल की अंतिम पंक्ति में अपने सुबह सैर करने वाले साथियों के साथ बैठे शर्मा जी बोल उठे, “बेटी लावारिस नहीं है!”
6 टिप्पणियाँ
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एक सांस में पढ़ गये। कुछ अंशों को सोचने तक का मन नहीं कर पा रहा .. मौन हाहाकार जैसा महसूस हो रहा था। उफ़... ऐसे रिश्तों से तो अच्छा ही है लावारिस होना। नमन आपकी संवेदनशीलता को ... प्रणाम सर।
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भोजपुरी में एक कहावत है। "जिनगी में जूता लात मरला पर दूध भात" हिन्दी भावार्थ- जीवन में कष्ट देना और मर जाने पर पूजनीय बनाकर सम्मान देना। कहानी का दुसरा भाग इस कहावत को चरितार्थ करता है। कहानी में नरेंद्र एक अद्भुत चरित्र है। परित्यक्ता पत्नी के अंतिम क्रिया के लिए बीमा का किश्त भर रहा था। उसकी मंशा को प्रेम कहा जाए या क्रूरता यह तय करना कठिन है। नैतिकता कहती है शत्रु के मौत की भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। नरेंद्र अपनी ब्याहता के मौत की प्रतीक्षा कर रहा था। वह जानता था कि एक दिन उसकी ब्याहता पत्नी ( ज्ञात हो कि ब्याहता सिर्फ पहली पत्नी हीं कहलाती है। दुसरी और दुसरी के बाद की पत्नियाँ पत्नी अवश्य होती है मगर वे ब्याहता नहीं सौत कहलाती है) लावारिस और बेमौत मरेगी और उस दिन की तैयारी भी कर रहा था कि वह उस दिन सामने आकर दुनिया को यह दिखायेगा कि वह लावारिस मिली जरुर है पर लावारिस नहीं है। मेरा अनुमान है कि विश्व कहानी में नरेंद्र शायद अपने तरह का अकेला पात्र है। कहानी समाज के कठोर सत्य का पोल खोलती है। विश्व की कहानी में भले हीं ऐसे पात्र कम मिले मगर यथार्थ की दुनिया में ऐसे करोड़ों पात्र है जो अपनों से जीते जी उनके जीवन की खुशियाँ छीन लेते हैं मगर उसके मरने पर अपनी झूठी प्रतिष्ठा का खूब दिखाबा करते हैं।
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घरेलू हिंसा से पीड़ित एक बेटी और उसकी मां की पीड़ा इतनी संवेदनशीलता से लिखना एक पुरुष लेखक की संवेदना का परिचायक है । अत्यन्त जीवंत , मार्मिक एवं सफल कहानी के लेखक आदरणीय सुमन कुमार घई जी को साधुवाद।
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सघन अनुभूति मानवीय रिश्तों के परिपेक्ष्य में. ....
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माननीय सुमन जी, नाम के अनुकूल ही आपकी कोमलता और संवेदनशीलता है, । पुरुष मानसिकता का अनुभव होना तो स्वाभाविक है। लेकिन स्त्री के मन के हर कोने तक आपकी दृष्टि और लेखनी पहुँच गयी है। कितने कम शब्दों में कितनी अनुभूतियों को समेटा है आपने। मनुष्य के स्वभाव की बारीकियों का गहरा अन्वेषण और अनुभव हर शब्द से ध्वनित होता है। मृतिका, मृत होकर भी अपने दुःख से पाठकों का हृदय विदीर्ण कर देती है। आपकी लेखनी को शत शत नमन।
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सुना है कि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री का दुख समझ सकती है, लेकिन लेखक ने पुरुष होते हुए भी घरेलू हिंसा (domestic violence) से पीड़ित एक बेटी के साथ-साथ उसकी माँ का दर्द अपनी लेखनी द्वारा प्रस्तुत कर पाठकों के हृदय को चीर कर रख दिया है। साधुवाद।
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