सुबह साढ़े सात से पहले
सुमन कुमार घईवह साढ़े पाँच बजे से जाग रहा था। आदत है, बचपन से ही—चाह कर भी देर तक नहीं सो पाता। वह बार-बार नाईट टेबल पर पड़ी घड़ी की ओर देखता रहा। यह डिजटल घड़ियाँ उसे पसन्द नहीं थीं। समय एकदम बदल जाता है। कोई निरन्तर चलती सैकंड की सूई नहीं, जिसके पीछे-पीछे समय चलता है। देखने वाला साँस थाम कर रुचि से देखता रहता है कि अभी पचपन सैकंड हुए हैं और अब छप्पन और साठ पर होते ही खटक से मिनट की सूई अगले पड़ाव तक पहुँच जाएगी। डिजटल घड़ी के जलते हुए लाल अंक, अचानक बदल जाते हैं—समय पलट जाता है। डिजटल युग में समय भी बाइनरी के एक और ज़ीरो के अंकों में बँध गया है। लगने लगा है समय निरंतर जल की धारा की तरह नहीं बहता, घड़ी से ज़रा सी नज़र हटी और जब तक वापिस लौटी . . . जीवन का अगला अंक दिखाई देता है। निरंतर जीया नहीं बस झटके में समय निकल गया।
राजीव भोग चुका है इस डिजटल युग को—उसका समय भी अचानक ही बदल गया था बस एक से ज़ीरो हो गया। एक तरफ़ लेटे-लेटे उसका कंधा सुन्न होने लगा था। फिर समय देखा अभी पाँच चालीस ही हुए थे। कब जगाए साथ लेटी मीना को—रोज़ का यही प्रश्न और अपने से एक विवाद! धीरे से करवट ली और चैन की साँस आई। सुन्न हुए कंधे को गोल-गोल घुमाते हुए मुट्ठी को खोलता बंद करता रहा—ख़ून दौड़ने लगा।
सरकता हुआ उठा और बाथरूम का दरवाज़ा भी उसने धीमे बंद किया। अजीब सुनने की क्षमता है मीना की भी। सोती है तो चाहे नगाड़े बजाते रहो नहीं जागेगी, परन्तु अगर बाथरूम का नल ज़रा ज़्यादा खोल लिया तो जाग उठेगी। जब तक बाथरूम से बाहर निकला घड़ी पाँच पचपन दिखा रही थी। उसका दिन रेंगता हुआ निकलता है। उस धीमी गति से उसे कोई समस्या नहीं होती। पर यह सुबह का समय . . . वह मीना को जगाने के लिए क्यों उत्सुक रहता है, इसका उत्तर उसके पास भी नहीं है। शायद कुछ साझे पल . . . ठहरे समय में . . . दैनिक जीवन की भाग-दौड़ शुरू होने से पहले वह जीना चाहता है।
धीरे से वह फिर बिस्तर में सरक आया। अगली बार घड़ी देखी। छह बज गए थे। मीना को जगाने का समय हो गया। वह मुस्कुराया—क्योंकि अब रोज़ का सिलसिला शुरू होगा।
“मीना उठो! समय हो गया,” उसने धीमे से उसे हिलाते हुए कहा।
“ऊँहुं, समय तो होता रहता है, प्लीज़ कुछ मिनट और सोने दो न,” कहते हुए मीना ने उससे पीठ फेर ली। वह कुछ बोला नहीं, बस चुपचाप साँस थामे मीना की पीठ देखने लगा। उसकी नज़रें मीना की सुडौलता और बरसों के कसरती शरीर के कसाव को नाप रहीं थीं।
“घूरना बंद करो,” मीना ने उसकी ओर देखे बिना कहा।
“तुम्हें कैसे पता कि मैं तुम्हें देख रहा हूँ?”
“बीस साल से जानती हूँ तुम्हें—तुम्हारी हर हरकत से वाक़िफ़ हूँ।”
“तो फिर तो यह भी जानती होगी कि चाहता क्या हूँ।”
“बेकार बातों में न उलझाओ, चैन से सोने तो दो मिनट और।”
“दो मिनट में क्या हो जाएगा?”
“बंद नहीं करोगे अपनी झक-झक,” वह खीझ उठी। राजीव मुस्कुराया—वह जानता था कि यह खीझ, यह ग़ुस्सा सब बनावटी है। हर रोज़ का यही नाटक है। अगर किसी दिन वह मीना को न जगाए तो मीना को शिकायत होती है कि जगाया क्यों नहीं।
वह जवाब देता, “जगाता हूँ तो सुबह-सुबह तुम्हारी जली-कटी सुननी पड़ती है।”
“तो . . .?” मीना का यह प्रश्न वह कभी भी समझ नहीं पाया। जल-कटी सुनाना मीना का अधिकार है या आदत। वैसे उसकी आदत भी तो उसे जगाने की है।
छह बजकर पाँच मिनट हो गए थे। राजीव एक झटके से बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। वह जानता था कि मीना को इस पर काफ़ी आपत्ति है और शायद वह इसीलिए यह करता था। मीना ने आँखें खोलीं और एक कोहनी के बल उठते हुए उसकी तरफ़ झल्लाई नज़र से देखा और फिर बिस्तर पर गिर गई।
“बस दो मिनट चैन से मरने भी देते।”
“तुम्हें ही देर हो जाती है, रोज़ भागते-दौड़ते नाश्ता करती हो, गिरते-गिरते सैंडिल पहनती हो। ज़रा आराम से तैयार होना हो तो उठना तो पड़ेगा ही,” उसने दलील दी। कोई उत्तर नहीं मिला। वह जानता था मीना अपने को समेटने का प्रयत्न कर रही है। वह फिर बिस्तर में लौट आया—लेटा नहीं—हैडबोर्ड पर तकिया लगा कर आराम से बैठ गया। उसने मीना के कंधे को सहलाते हुए कहा, “पापा का फोन आया था।”
“क्यों?” मीना का प्रश्न हवा में लटक गया।
कुछ पल राजीव अपने शब्दों को तौलता रहा, “बस वही पुरानी बातें।”
“तुमने क्या कहा?”
“इस बार तो मैंने भी उन्हें चुप करा दिया।”
मीना अब उठ कर बैठ चुकी थी। उत्सुकता से भरी हल्की सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर खेल रही थी।
“पूरी बात बताओ।”
“वैसे ही तुम्हारे सामने तो ऐसा फोन नहीं करते, बाद में ज़रूर ताना कसने के लिए फोन करते हैं . . . कहने लगे ‘जानते हो शेर शिकार करके लाता है और शेरनी बैठ कर खाती है’।”
“तुमने क्या कहा?”
“मैंने कहा, पापा वास्तविकता तो इससे उलट है। शेरनी शिकार करती है और शेर उसपर अधिकार जमा लेता है। शेर को तो शेरनी मेटिंग के बाद भगा देती है। झुंड के किनारों पर ही शेर घूमते दिखाई देते हैं और झुंड की प्रधान तो शेरनी होती है।”
“तो फिर?”
“कुछ देर के बाद समझ आई मेरी बात उन्हें . . . कहने लगे शेर मेटिंग करता है तो बच्चे तो होते हैं न!”
मीना झटके से खड़ी हो गयी, “बूड्ढा, खूसट उसे कोई हक़ नहीं है तुम्हें ऐसा कहने का।”
राजीव मुस्कुराता हुआ मीना की प्रतिक्रिया देख रहा था। मीना का ग़ुस्सा अभी भी उफन रहा था, “सारा बचपन सहे हैं उस हरामी के ताने। अब तुम पर भी तानाकशी . . . मैं बर्दाश्त नहीं करूँगी।”
राजीव अभी भी विस्मय के साथ मीना को देख रहा था। मीना की नज़र जैसे ही राजीव से मिली तो एक दम शांत हो गई, “फिर आगे?”
“मैंने कहा पापा आपने तो चार बच्चे मम्मी को बाँधने के लिए पैदा किए, मैं भी क्या ऐसा ही करूँ?”
मीना की मुस्कुराहट अब हँसी को छू रही थी, “अच्छा किया। कहाँ से आई यह हिम्मत?”
“कब तक सहूँ तुम्हारे बाप की बातें। किसी दिन तो जवाब दूँगा ही।”
मीना ने झटके से राजीव को देखा, “तमीज़ से बात करो, ख़बरदार पापा को बाप कहा?”
“पर अभी तुम उसे बुड्ढा, हरामी और न जाने क्या-क्या कह रही थी?”
“मैं जो चाहूँ कहूँ, मैंने सहीं हैं सारा बचपन। मैंने देखा है मम्मी पर अत्याचार और उन्हें घुटते हुए। माँ का जीना दूभर किया हुआ है अभी तक . . . तुम क्यों अपने आपको गिराते हो। जैसे हो–वैसे ही बने रहो। मैंने तो तुम्हारी सादगी और शान्ति से प्यार किया है। तुम बदल जाओ . . . तुम्हें वह शख़्स बदल दे . . . मुझसे सहन नहीं होगा।”
“अच्छा अब पुरानी बातें मत दोहराना, उठो नहाओ मैं नाश्ते की तैयारी करता हूँ।”
मीना थकी-सी बिस्तर से उठी, क़दमों को घसीटते हुए बाथरूम की ओर चल दी—उसका बुड़बुड़ाना अभी भी चालू था।
राजीव न जाने कितनी बार पिछले बीस बरसों में मीना के दर्द से अच्छी तरह से परिचित हो चुका था। मीना के पिता डॉक्टर थे, समाज में आदर था परन्तु बाहर और घर के अंदर के जीवन में रात और दिन का अंतर था। मीना और उसके भाई-बहनों ने सहमा बचपन जीया था। कैनेडा में रहते हुए भी माँ कभी भी बाप के सामने न तो अपनी आवाज़ उठा पाई और न ही अपने अधिकारों के लिए लड़ पाई। घर में पैसे की कमी नहीं थी, कमी थी तो प्यार की—बाप के प्यार की। परिवार की बात बाहर निकले और समाज में उँगलियाँ उठने लगें, इसी दबाव ने माँ को अंदर ही अंदर घुटते रहने के लिए विवश कर दिया था। बल्कि जब बच्चे बड़े हुए तो उनके मुँह पर भी माँ ने ताला लगा दिया। मीना ने बचपन से ही स्वधारणा बना ली थी कि वह माँ जैसा जीवन नहीं जीयेगी। मीना को राजीव जैसा प्यार और आदर देने वाला ऐसा जीवन-साथी मिला, जिसने मीना के बचपन की कड़वाहट को अगर समाप्त नहीं किया तो बहुत गहरे दबा अवश्य दिया था। मीना ने बचपन में जो प्रताड़ना सही थी, शायद यह उसी का परिणाम था कि वह बच्चा पैदा करना ही नहीं चाहती थी।
राजीव को जीवन में बाप न बनने की कमी सदा खलती। उम्र बढ़ती जा रही थी। मीना टस से मस नहीं होती थी। मीना के पापा की समझ से बाहर था कि पत्नी माँ बनने से इन्कार करे और पति उसकी इच्छाओं का आदर करे? अपनी मर्दानगी की धौंस जमाने के लिए अक़्सर कहते, “औरत जब भी तंग करे बच्चा पैदा कर दो। मैंने चार-चार पैदा करके बाँध के रख दिया। अब बोल के दिखाए!”
बहुत अंतर होता है समय और देश का। कहाँ साठ के दशक का भारत और कहाँ अगली सदी के दूसरे दशक का कैनेडा। सामान्यता के भी मापदंड बदल जाते हैं। परन्तु मीना के बाप के मापदंड नहीं बदले थे। भारत में रहते हुए जैसा व्यवहार पत्नी और बच्चों के साथ किया था वह यहाँ आने के बाद भी जारी रहा था।
मीना और राजीव कैनेडा में पले और बड़े हुए थे। राजीव यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाटरलू से कंप्यूटर साईंसिज़ का ग्रैजुएट और मीना यॉर्क यूनिवर्सिटी के शुलिक स्कूल ऑफ़ बिज़िनेस की ग्रैजुएट थी। दोनों शिक्षा के मान्यता प्राप्त संस्थान हैं। उन दिनों नौकरी पाना कोई कठिन नहीं था। जब तक दोनों की शादी हुई, दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में जम चुके थे। नब्बे के दशक में इंटरनेट के विस्तार के साथ ही राजीव का करियर तेज़ी से आगे बढ़ने लगा। मीना भी एकाउंटिंग के क्षेत्र में काफ़ी आगे निकल चुकी थी।
फिर अचानक सन् दो हज़ार के मार्च और अप्रैल में ‘नैज़डैक मार्केट’ में आईटी के शेयर गिरने शुरू हुए तो बस गिरते चले गए। कुछ सप्ताहों में कंप्युटर से संबंधित कंपनियाँ बंद होने लगीं। राजीव भी इसकी चपेट में आ गया। राजीव एक बार बेकार हुआ तो बेकार ही रहा क्योंकि जब तक मार्केट सुधरी, तब तक सॉफ़्टवेयर की कंपनियाँ भारत जा चुकी थीं और हार्डवेयर की चीन। राजीव की पढ़ाई का अब कोई मूल्य नहीं था। अपने मित्रों की ओर देखता तो उसका मन और भी बुझ जाता। कोई टैक्सी चला रहा था तो कोई इंश्योरेंस एजेंट बन चुका था। वह भी सोच रहा था कि क्या करे? मीना से राजीव का बुझा चेहरा नहीं देखा जाता था। और फिर एक दिन मीना ने एक सुझाव दिया और जीवन के नियम ही बदल दिए।
उस दिन रात का खाना खाने के बाद भी देर तक वह टेबल पर ही बैठे रहे थे। राजीव प्लेट में बचे चावल के कुछ दानों के साथ खेल रहा था कि मीना बोली, “यह कहाँ का नियम है कि परिवार के दोनों वयस्क काम करें? पहले भी तो एक काम करता था और दूसरा घर सँभालता था।”
“सँभालता नहीं, सँभालती थी,” राजीव ने बिना ऊपर देखे कहा। राजीव प्रायः अपनी लाचारी पर खीझ उठता था। पत्नी की कमाई पर जीना उसे अच्छा नहीं लगता था। उसकी समझ में नहीं आया कि मीना यह बात केवल बोझिल समय को हल्का करने के लिए कह रही है कोई नई बहस शुरू कर रही है।
मीना फिर बोली, “जानती हूँ और यही तो कह रही हूँ। यह तो समय के बनाए हुए नियम हैं कि पत्नी घर बैठ बच्चों को पाले, गृहस्थी सँभाले और पति कमाए। आज के समय में यह उलटा भी तो हो सकता है।”
राजीव ने मीना की ओर देखा। राजीव के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लटक रहा और मीना के चेहरे पर उत्साह की किरण।
“देखो राजीव, मेरी नौकरी इतनी अच्छी है और इतना तो कमा ही लेती हूँ कि तुम्हें कोई चिंता होनी ही नहीं चाहिए। आराम से घर रहो—आज के बाद तुम घरेलू पति और मैं कमाऊ पत्नी!” कहते हुए मीना मुस्कुराने लगी।
राजीव ने भी हँस के टाल दिया और प्लेटें उठा कर सिंक में रखने लगा।
“न, न,” मीना हँसी, “सिंक में नहीं, धो कर डिश वाशर में लगाइये जनाब। अभी से आपका नया करियर शुरू हो रहा है।”
राजीव ने प्लेटें धोईं और डिश वाशर में लगा दीं।
बाद में टीवी देखते हुए मीना राजीव के पास सरक आई। घुटने छाती से लगा कर राजीव के सीने पर सिर रखते हुए बोली, “मैं मज़ाक नहीं कर रही, सीरियस हूँ।”
“किस बात के लिए,” राजीव नहीं जानता था कि मीना के दिमाग़ में क्या चल रहा है।
“यही आज के बाद तुम्हें नौकरी ढूँढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। बस आज से तुम केवल मेरे पति और घरेलू पति—यही तुम्हारी नौकरी और यही तुम्हारी पहचान।”
“क्या उलटा–सीधा बोले जा रही हो, ऐसा होता है क्या?”
“क्यों नहीं हो सकता, समाज ही तो नियम बनाता है और समाज तोड़ता है। नई सदी है–नया नियम।”
राजीव बहस में नहीं पड़ना चाहता था। नौकरी न मिलने का भार, कौन-सा नया काम किया जाए उसका भार, पुरानी प्रतिष्ठा की यादों का भार—थक चुका था। बहस करने की भी हिम्मत खो चुका था।
अगले दिन सुबह उठा और नीचे किचन में मीना के आने से पहले चाय और टोस्ट बनाने लग गया। मीना सीढ़ियाँ उतरी और ब्रेकफ़ास्ट टेबल पर आ बैठी।
“देखा इसमें बुरा क्या है, वैसे भी तो काम में मेरा हाथ बँटाते ही हो—सच पूछो तो आजकल यह काम तो कर ही रहे हो। घर साफ़ रखते हो, मेरे घर पहुँचने से पहले खाना बना रखते हो। बस हम इसे नाम ही तो दे रहे हैं।”
“पर काम तो ढूँढ़ना ही है, क्या तुम भी मुझे बेकार समझने लगी हो?”
“बिल्कुल नहीं, तुम्हारे मन पर जो बोझ है उसे हटा रही हूँ।”
“पर तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे? पापा तो अभी से कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं।”
“उनकी परवाह मत करो, रही पापा की बात—उनके बारे में तो जानते ही हो। उनका मुँह बंद करना मुश्किल है। बस उनकी बात सुनना बंद कर दो।”
राजीव ने तो नहीं, मीना ने अपने पापा की बात सुननी बंद कर दी थी। पापा अक़्सर मीना के द्वारा राजीव पर दबाव डालने की कोशिश करते। फिर एक दिन मीना ने पापा से बात करनी ही बंद कर दी। अब मीना ने जो कुछ भी कहना होता वह राजीव ही उन तक पहुँचाता।
राजीव ने बात को टालते हुए कहा, “चलो तुम नाश्ता करो, बताओ आज क्या पहन के जा रही हो . . . निकाल देता हूँ।”
“कहते हैं आज गरमी होने वाली है, डाऊन-टाऊन में वैसे भी उमस हो जाती है, कुछ भी हल्का-सा निकाल दो।”
राजीव ने न जाने कब से यह काम भी सँभाल लिया था। मीना ने कब क्या पहनना है उसके बारे में मीना नहीं, राजीव सोचता और इस्तरी करके तैयार रखता था।
“तुम तो कह रही थी आज बोर्ड के सामने तुम्हारी प्रेज़ेंटेशन है—हल्का पहना हुआ ठीक लगेगा क्या? स्कर्ट और जैकेट निकाल देता हूँ।”
“गरमी में मरूँगी।”
“नहीं, बूढ़ों के सामने बूढ़ों वाले कपड़े पहनोगी तो ही तुम्हारी बात गंभीरता से समझेंगे। एक औरत उनको कंपनी के भविष्य के बारे में बताये . . . यही उनसे हज़म नहीं होता।” राजीव कह तो सही रहा था। पश्चिमी समाज में भी नारी की एक ऊपरी सीमा है . . . उसके बाद मर्द ही आगे बढ़ता है।
मीना नाश्ता करने लगी और राजीव मीना के कपड़ों की तैयारी करने में व्यस्त हो गया। बिना कुछ कहे कितनी आसानी से राजीव जीवन से समझौता कर लिया था।
जब तक मीना ने नाश्ता समाप्त किया, उसके कपड़े तैयार थे।
राजीव ने घड़ी देखी, साढ़े सात बज रहे थे।
उसने धीमे से कहा, “ठीक समय है।”
किचन की दीवार पर लगे क्लॉक की ओर देखकर उसे संतोष हुआ कि यह डिजटल नहीं है।
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सामाजिक मनोविज्ञान की स्वभाविक कसौटी पर खड़ी परिवारिक यथार्थपरक कथा।
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एक सशक्त,लीक से हट कर कहानी। साधुवाद... यह कहानी एक दर्शन भी है जहां पति पत्नी एक दूसरे के पूरक हैं... कोई किसी से कमतर नहीं... हालात बदल चुके हैं दोनों व्यावसायिक और पारिवारिक परिस्थितियों में कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं... पर यह कहानी रोल रिवर्सल की है जो सहज जनमानस में सामान्य परिस्थिति नहीं है.. कहानी के पात्रों में मीना की सोच मजबूत है , शायद बचपन के अनुभवों से विद्रोह भी , राजीव एक सुलझा ,पात्र है... व्यावहारिक स्तर पर इस सोच को आत्मसात करना थोड़ा कठिन है पर शायद समय इस सोच को भी सहज रूप में लेने को तैयार कर रहा है... बहुत बहुत बधाई सर।
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आधुनिक समाज की तस्वीर है। भारतीय समाज में पत्नी के विचारों का आदर करना,उसके करियर में सहायता करना, घरकाम में जुट जाना,उसके मायके के प्रति सम्मानजनक बर्ताव रखना आज भी बहुत दूर की कौड़ी है। परिवार विघटन के पीछे यह भावना भी पनप रही है। नारी सम्मान का प्रश्न हर जाति धर्म,देश विदेश में अबतक अनसुलझा है। आपकी कथा विचार की दिशा पलट देनेवाली है।हार्दिक बधाई,सुमन जी
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सदियों से माना जाता रहा है कि घर संभालना सिर्फ स्त्रियों का कार्यक्षेत्र है, लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर पुरुष भी यह जिम्मेदारी बहुत अच्छी तरह निभाते हैं,और आज के यांत्रिक युग में तो जरूरी भी है। जब दोनों मिलकर घर बाहर का कार्य करते हैं तो जीवन आसान हो जाता है। लेकिन जब स्त्री कमा रही हो और पुरुष घर बैठा हो तो हमारा समाज उसे हीन दृष्टि से देखता है, जो कि बहुत ग़लत है, आपने इस विषय को उठाया आपको साधुवाद। महोदय इस कहानी से मेरा जुड़ाव इसलिए भी हो गया कि मैंने भी कोरोनाकाल में ऐसी ही एक कहानी लिखी थी अपनी डायरी में, लेकिन आलसवश टाइप नहीं किया अब तक। भविष्य में साहित्य कुंज को अवश्य प्रेषित करूंगी। हार्दिक बधाई आपको।
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गृहस्थ जीवन की सच्चाई जताती कहानी आपकी!सादर नमन!
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