रायगाँ नहीं हूँ मैं – एक नज़र

01-05-2006

रायगाँ नहीं हूँ मैं – एक नज़र

सुमन कुमार घई

पुस्तक: रायगाँ नहीं हूँ मैं
लेखिका: अनन्त कौर
प्रकाशक: प्रिन्टवैल, अमृतसर
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ई-मेल: anant_kaur@yahoo.com

कभी-कभी कोई ऐसा लेखक सामने आता है जो कि सीधी-सपाट भाषा में दिल की गहराइयों को छूती हुई बात भोलेपन से कह जाता है। अनन्त कौर भी ऐसी ही शायरा हैं। अनन्त कौर पंजाब (भारत) में जन्मी शायरा हैं जो कि यू.एस.ए. में रहती हैं। स्वयं को वह मुहब्बत की शायरा मानती हैं। उनका कहना है – “मुहब्बत ने ही मुझे सब कुछ अता किया है। इसलिये मैं मुहब्बत को बहुत बड़ा मानती हूँ और मुहब्बत ही को ज़मीन की बुनियाद तसलीम करती हूँ।” लेखक चाहे किसी भी भाव को प्रधानता दे परन्तु जीवन के अनुभव, परिवेश और उसका अपना व्यक्तित्व उसके लेखन में उतर आता है। उसकी रचनाएँ उसीका दर्पण होती हैं। “रायगाँ नहीं हूँ मैं” पढ़ने के बाद मैंने भी यही अनुभव किया।

अनन्त कौर की शायरी में मुहब्बत, ज़िन्दगी का संघर्ष, समाज को चुनौती देती औरत की आवाज़, पंजाब की मीठी याद और रोज़मर्रा की बारीकियों की समझ– सभी है:

तू मुस्कुराती हुई ज़िंदगी ग़नीमत जान
वगर्ना लोग तो आँसू बहा के जीते हैं

शायरा तो कह जाती है–

“मैं अपना आप कहीं और छोड़ आई हूँ
जहाँ पे रहती हूँ शायद वहाँ नहीं हूँ मैं”

यह प्रवासी की पीड़ा की हूक है या प्रेमी बिछुड़ने की हताशा - तो इसी ग़ज़ल के दूसरे शेर में कहती हैं–

“ये सोचती हूँ तो दिल को तसल्ली होती है
किसी के हिज्र में हूँ रायगाँ नहीं हूँ मैं”

दो अलग अलग भावों को समेट लेती है यह ग़ज़ल।

लेखक जिस परिवेश में पल कर बड़ा होता है उस माटी की सुगन्ध चाहे–अनचाहे उसे लेखन में अवश्य होती है। यही रचनाओं में एक नयापन या विशेषता पैदा करती है। जैसे अमृता प्रीतम की हिन्दी कविताओं और कहानियों में हिन्दी के शब्दों में पंजाबी का पुट देखने को मिलता है वैसा ही कुछ अनन्त की शायरी में भी है–

समझती हूँ तुझे मैं अपने मन का पीर वे बुल्लेया
कभी तू देख तो आके मिरी तकदीर वे बुल्लेया
 
उलझती जा रही हूँ मैं तिरे चर्खे के चक्करों में
कोई तो राह दिखला कोई कर तदबीर वे बुल्लेया

“चरखा” पंजाबी साहित्य व लोक गीतों में विशेष स्थान रखता है। पहले गाँवों में औरतें दोपहर के खाने से निपटने के बाद एक समूह में बैठ चरखा कातती थीं। इसे त्रिंजण कहा जाता है। नवयुवतियाँ अपने दहेज का सूत और गृहणियाँ अपनी गृहस्थी की आवश्यकता पूर्ति के लिये चरखा कातती थीं। सूत की हर तार में जहाँ नवयुवतियाँ अपने पिया का प्रेम देखती थीं या अपने परिवार या सखियों से बिछुड़ने की पीड़ा वहाँ गृहणियाँ उसी तार में जीवन का संघर्ष देखतीं। इसलिये पंजाबी साहित्य में चरखा एक बहुत ही महत्वपूर्ण रूपक है।  अनन्त कौर का यह शेर पढ़ने के बाद न जाने मेरे अन्तर्मन के किस स्तर पर वह पुरानी छवियाँ उभर आईं जो कि दशकों पहले पंजाब में छोड़ आया हूँ। शायरा की यही सफलता है।

ऐसे ही पंजाबी “क़िस्सों” की छवि उनके इन शेरों में भी देखने को मिलती है, सन्दर्भ “हीर-राँझा” का है–

तिरे ही साथ रहना चाहती हूँ ज़िंदगी भर मैं
मिरी तक़दीर लेकिन राँझणा! कुछ और कहती है
 
नी माये अपने हाथों से मरुँगी सुन रही है तू
मिरे हाथों की बे-बर्कत हिना कुछ और कहती है

अनन्त जी के लेखन में बेबस औरत का चेहरा नहीं अपितु एक स्वतन्त्र, सशक्त नारी की पहचान बार-बार सामने आ खड़ी होती है–

तिरे ख़्याल के साँचे में ढलने वाली नहीं
मैं ख़ुशबुओं की तरह अब बिखरने वाली नहीं
 
तू मुझको मोम समझता है पर ये ध्यान रहे
मैं एक शमा हूँ लेकिन पिघलने वाली नहीं
 
तिरे लिए मैं ज़माने से लड़ तो सकती हूँ?
तिरी तलाश में घर से निकलने वाली नहीं

मैं अपने वास्ते भी ज़िन्दा रहना चाहती हूँ
सती हूँ पर मैं तेरे साथ जलने वाली नहीं
 
हरेक ग़म को मैं हँस कर गुज़ार देती हूँ अब
कि ज़िंदगी की सज़ाओं से डरने वाली नहीं

ऐसी सशक्त नारी की आवाज़, उसका विद्रोह – इस कोमलता के साथ कहने की क्षमता किसी-किसी लेखक में ही होती है।

हाथ उठा कर तिरी आवाज़ पे आमीन कहा
लोग अब मेरी दुआओं में असर देखेंगे
 
हम परिंदों की तरह आये तेरी दुनिया में
हमको अपनों की तरह सिर्फ़ शजर देखेंगे

परमात्मा को चुनौती देती हुई पंक्तियाँ– मुहब्बत के मीठे भावों को अभिव्यक्त करने वाली शायरा ही ने लिखीं हैं?

दूसरी ओर देखें भावों की कोमलता को–

ज़िंदगी भैरवी में ढल जाये
वो अगर मुझको गुनगुनाये तो
 
चाँद भी देखने को रुक जाये
अपनी चिलमन को वो हटायें तो

शायरा मुहब्बत की बेबसी को लिखती है–

तुम मिरी आँखों को छोड़ो इनको तो
सिर्फ़ रोने का बहाना चाहिये
 
वो मिरे ग़म में अगर ख़ुश है तो फिर
ग़म मुझे कुछ और ज़्यादा चाहिये
 
चाँद तारे लाने से पहले ‘अनन्त’
पूछते मुझसे मुझे क्या चाहिये

ऐसे ही कुछ भाव दूसरी एक ग़ज़ल में हैं–

तुम को जाना था गर बता देते
नींद में थी मुझे जगा देते
 
दिल का कुछ तो ग़ुबार कम होता
जाते जाते मुझे रुला देते
 
ये भी मुमकिन था मैं भी जल जाती
तुम अगर ख़त मिरे जला देते

“रायगाँ नहीं हूँ मैं” के हर पन्ने पर ऐसे ही अपने भावों के मोतियों को पिरोती हैं अनन्त! कहीं प्रेम में सराबोर है, कहीं प्रेमिका की विरह है, स्वदेश से बिछुड़ने की पीड़ा है, समाज को बदलने की चुनौती है–

सितारे तोड़ने वालो!
तुम्हें मालूम है मैं चाँद तारों की तमन्ना ही नहीं करती
मुझे तो अनगिनत सदियों की मारी
इस ज़मीन-ए-कर्ब के मौसम समझने हैं
मुझे माथे पे लिखी वक़्त की तहरीर पढ़ना है
मुक़द्दर को बदलना है
सितारे तोड़ने वालो!

अन्त में यही कहूँगा कि उत्तरी अमेरिका की भूमि पर रचित शायरी की पुस्तकों में से एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। भाषा सरल है, भावों में गहनता है और दिल की गहराईयों को छूती है। शायरा अनन्त कौर को “रायगाँ नहीं हूँ मैं” के प्रकाशन पर बधाई।

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