भाषण देने वालों को भाषण देने दें
सुमन कुमार घईप्रिय मित्रो,
आज हिन्दी दिवस है - आप सभी हिन्दी साहित्य प्रेमियों को शुभकामनाएँ! लगभग पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से हिन्दी दिवस के बारे में जानने लगा हूँ; सच पूछो तो पहले इसके बारे में सुना भी नहीं था। शायद दैनिक जीवन में इतना व्यस्त था कि हिन्दी पढ़ने, साहित्य कुंज का संपादन/प्रकाशन करने, हिन्दी चेतना त्रैमासिक अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका का सह सम्पादन करने या कैनेडा में साहित्यिक मित्रों डॉ. शैलजा सक्सेना और श्री विजय विक्रान्त के साथ मिल कर हिन्दी राइटर्स गिल्ड की स्थापना और परिचालन से अवकाश ही नहीं मिला कि वर्ष में केवल एक बार हिन्दी दिवस भी मनाएँ। मंच सजाएँ और उस पर आरूढ़ होकर लम्बे-लम्बे भाषण दें, हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र भाषा बना देने की शपथ लें इत्यादि-इत्यादि। अगर आप ऊपर की पंक्तियों में एक कुंठा या कटाक्ष देखते हैं तो सम्भवतः आपके विचार भी मेरे विचारों जैसे ही हैं।
प्रत्येक वर्ष राजनैतिक नेता या हिन्दी की राजनीति के खिलाड़ी ऐसे ही मंचों का संगठन कर, ऐसे ही भाषण देते हैं। अगर वर्षों से यह किए हुए संकल्प आंशिक रूप से भी पूरे हुए होते तो आज हिन्दी की दशा यह न होती जो आज है। इन मंचों से दिये गए सुझाव उतने ही हास्यास्पद लगने लगे हैं जितने कि यह मंच और उनके परिचालक। प्रायः कहा जाता है “हिन्दी में हस्ताक्षर कीजिए”, “संस्थानों (व्यवसायिक और अव्यवसायिक) के नाम पट्ट (साइन बोर्ड) केवल हिन्दी में लिखिए”, “बच्चों को हिन्दी सिखाइए” इत्यादि। क्या यह सब करने से हिन्दी बच जाएगी? स्थिति इस समय हिन्दी को राष्ट्र भाषा या संयुक्त राष्ट्रभाषा बनाने की नहीं है - इसे बचाने और मन में बसाने के विषय पर चिन्ता करने की है। मैं स्वयं बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने में विश्वास नहीं करता। छोटी-छोटी ईंटों से ही बड़े भवन बनते हैं। हिन्दी के सच्चे प्रेमियों के द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर लिए हुए निर्णय ही भाषा को बचा सकते हैं और लोकप्रिय बना सकते हैं। भाषा मानव की मौलिक आवश्यकता है। इसे कोई राजसी संरक्षण की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। पहले भी कई बार कह चुका हूँ और लिख चुका हूँ कि हिन्दी जिस दिन मनोरंजन और “फ़ैशनेबल” लोगों की भाषा बन जाएगी उस दिन हिन्दी के बारे में भाषण देने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।
वास्तविकता चाहे हमें प्रिय लगे या अप्रिय, है तो यही कि अँग्रेज़ी व्यवसाय, तकनीकी, विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय संपर्क की भाषा बन चुकी है। हमें अपनी शक्ति का उपयोग इसे उखाड़ फेंकने में नहीं बल्कि हिन्दी को फिर से जन-जन के हृदय में बसाने के प्रयासों के लिए करना चाहिए। द्विभाषी या बहुभाषी होने को अपनाइये इससे विमुख मत हों। अपने व्यक्तिगत स्तर पर हिन्दी में सोचना बन्द मत करें, सपनों की भाषा भी हिन्दी ही रखिए। हिन्दी साहित्य को भी पढ़िये और इसे भी ख़रीद कर गर्व के साथ अपने मित्रों के साथ कर साझा कीजिए। भाषा की शुद्धता पर न केवल आप स्वयं ध्यान दें बल्कि इसकी माँग भी करें। शुद्धता का अर्थ यह नहीं कि मैं ऐसी भाषा की वकालत कर रहा हूँ जो अधिकतर लोगों को समझ ही नहीं आती। मैं यह कहना चाहता हूँ कि अगर आपने मित्रों के साथ बात करते हुए आकाश का रंग ब्लू न कह कर नीला कह दिया तो आपने हिन्दी भाषा को बचाने के भाषण देने वालों से अधिक काम कर लिया।
किसी भी समाज में कला का महत्व बहुत बड़ा होता है। सामाजिक संवेदना की वाहक कला ही होती है। इन ललित कलाओं में लेखन का दायित्व और भी अधिक हो जाता है। संगीत, चित्रकला, नृत्य इत्यादि को भाषा की न तो चिंता होती है और न ही आवश्यकता। लेखन तो लिखित भाषा के बिना हो ही नहीं सकता। लेखकों से निवेदन है कि कृपया भाषा का आदर करें। जिस भाषा में लिख रहे हैं, उसकी व्याकरण को समझें। उसकी वर्तनी को समझें। अपनी शब्दावलि को विकसित करें परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि छाँट-छाँट कर उन शब्दों का प्रयोग करें जिनको समझने के लिए शब्दकोश की आवश्यकता हो। अगर हम दैनिक जीवन में सहज भाषा में अपनी संवेदना को प्रकट कर सकते हैं तो लेखन में इस संवेदना को सहज भाषा में सम्प्रेषित करना असाध्य नहीं है। निरंतर अपने लेखन को सुधारने का प्रयास करते रहें। हिन्दी के पुराने लेखकों की लेखन शैली का आँख मूँद कर अनुसरण न करें बल्कि उसे समझें और उनके लेखन की सूक्ष्मताओं का संश्लेषण करके अपने आधुनिक लेखन में उतारें। लिखते हुए यह मत भूलें कि आपके पाठक वर्तमान में जी रहे हैं। मानवीय संवेदनाएँ हर युग में वही रही हैं परन्तु उनकी अभिव्यक्ति यह युग में अलग होती, और कालानुसार होती है।
संपादकों से निवेदन है कि कृपया लेखकों के साथ सम्वाद निरंतर बनाए रखें। अगर कोई लेखक प्रयास करके कोई भी रचना लिख कर आपको भेज रहा है तो इस प्रयास का आदर करें। यह जानता हूँ कि हर अस्वीकार की हुई रचना के बारे में लेखक को सूचित करना कई बार कठिन हो जाता है, परन्तु अगर लेखक पुनः आपसे पूछता है कि रचना अस्वीकार क्यों हुई तो कृपया अस्वीकृति के कारणों से उसे अवगत करवाते हुए उस संशोधन का मार्ग भी दिखायें। विश्वास कीजिए संपादक कोई भगवान नहीं होता कि उसे अपने निर्णयों के बारे में किसी को बताने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का और उसे मनोरंजन की भाषा बनाने का दायित्व लेखकों का ही होता है। नाटक, फ़िल्म भी लेखन की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। अन्त में अपने लेखक और संपादक मित्रों से यही अनुरोध करूँगा का कि आपके कंधों पर ही भाषा टिकी है। कृपया इसे बचाए रखने के लिए निःशब्द प्रयास करते रहें। भाषण देने वालों को भाषण देने दें - कम से कम वह कुछ लोगों को अपने शोर से जगा तो रहे हैं - चाहे वर्ष में केवल एक दिन के लिए ही हो - उपयोगिता उनकी भी है!
- आपका
सुमन कुमार घई
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