कितना मीठा है यह अहसास
सुमन कुमार घईप्रिय मित्रो,
पिछले कुछ दिनों से सुबह बाहर जब बग़ीचे में निकलता हूँ, तो हवा में आने वाली ऋतु का आभास होने लगा है, हल्की ठंडक है, ताज़गी है।
ऋतु बदलने की तैयारी में है; उमस समाप्त हो चुकी है। कल मैंने ऋतु के दो नन्हे शिशु देखे। एक छोटा सा “सीगल” हवा में तिरता हुआ गाड़ी के आगे से निकल गया और घर के समीप पहुँचने से थोड़ी दूर पहले एक छोटी सी गिलहरी को फुदकते हुए सड़क पार करते देखा तो स्वतः पैर ब्रेक पर चला गया। इन बच्चों को देखते हुए कार की पिछली सीट पर बेबी-सीट में बैठे अपने पौत्र की ओर ध्यान केन्द्रित होने लगा।
युवान बाईस महीने का हो गया है। नन्ही-नन्ही शरारतें करने लगा है। सुबह अपने बेटे के घर जाकर उसे ले आता हूँ। सारा दिन हम दोनों उसे अपने पास रखते हैं और शाम को वापिस छोड़ आते हैं। दिनचर्या का निर्धारण नन्हे युवान पर निर्भर है। ड्राईव-वे में कार पार्क करते ही, वह चहक उठता है कि दादी-माँ का घर आ गया। अभी थोड़ा-थोड़ा बोलने लगा है। कार का पिछला दरवाज़ा खोल कर जब उसकी सीट-बेल्ट खोलता हूँ तो अपनी गर्दन उठा कर मेरी आँखों में देखता हुआ मुस्कुराता है और उँगली उठा कर कार में दरवाज़े के ऊपर जली लाईट को दिखाता है। जानता हूँ कि यह मुझे अपनी अगली माँग के लिए बहला रहा है। हम भी तो इसका ध्यान बँटाने के लिए बहलाते रहे हैं। बेल्ट खोलता हूँ तो झपट कर उसको पकड़ कर “हम्म–हम्म” बोलने लगता है। आँखों में शरारत नाचने लगती है। वह स्वयं बेल्ट को फिर से लगाना चाहता है। अभी यह समझ नहीं पाया हूँ कि वह हिन्दी का “हम” कह रहा है या अँग्रेज़ी का “आई एम”। यहाँ पर सभी प्रवासियों के बच्चे जीवन के पहले कुछ वर्षों तक द्विभाषी ही होते हैं - हाँ बड़े होते-होते अँग्रेज़ी प्रधान हो जाती है।
युवान बेल्ट लगानी जानता है, परन्तु अगर पहली बार ही बेल्ट लगा ले तो खेल समाप्त हो जाएगा। अब वह चालाकी करता है कि जान-बूझ कर बेल्ट ग़लत लगा कर ज़ोर लगाता है और मेरी ओर देख कर मुस्कुराता है। मैं उसके नन्हे मोती से दाँतों को देखता हूँ, उसकी आँखों से झलकती उसकी चालाकी को देखता हूँ, मेरा मन भाव विभोर होने लगता है। भूल जाता हूँ कि अन्दर नीरा भी युवान के आने की प्रतीक्षा कर रही है। मैं युवान को एक-दो बार यही करने देता हूँ। उसकी नन्ही चालाकी से मूर्ख बनता हूँ, फिर उसे बाहर आना ही पड़ता है। ड्राईव-वे पर पाँव टिकते ही उसकी दृष्टि लॉन में लगे मेपल के वृक्ष की शाखाओं पर जा बैठती है। गर्दन ऊपर करते हुए, नीले आकाश की चौंधिहाट से उसकी एक आँख बंद हो जाती है, नाक सिकोड़ कर खुले मुँह से वह पक्षियों को खोजने लगता है। इस तरह से मेरा दिन आरम्भ होता है।
पिछले दो दिनों से युवान मोण्टेसरी स्कूल में जाने लगा है। सोचा था कि अब मेरे पास खाली समय होगा तो बहुत कुछ कर पाऊँगा। यह पता ही नहीं चला था कि मेरे जीवन की हर सुबह अब युवान के बिना अधूरी है। एक बार फिर से मुझे अपना आधार खोजना पड़ रहा है। निरुद्देश्य एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमता हूँ। मेरा कम्प्यूटर मेरी ओर ताकता है। अपने आप को फिर से व्यस्थित करने के लिए संघर्षरत हूँ। सम्पादकीय लिखने बैठ जाता हूँ और युवान चुपचाप मेरे लेखन पर छा जाता है। आज मुझे कम्प्यूटर के डेस्क्टॉप पर दो विंडोज़ नहीं खोलनी पड़ीं। प्रायः दादा और पोता डैस्कटॉप का विभाजन कर लेते हैं। वह अपनी विंडो में नर्सरी-गीत सुनता है और मैं साहित्य कुञ्ज में खो जाता हूँ। वह बगल में इतना चिपट कर बैठता है कि दायीं बाँह को हिलने में रुकावट पैदा होती है। अगर मैं किसी रचना में खो जाऊँ तो उसे गवारा नहीं होता और मेरी विंडो में घुसपैठ करने लगता है। और मैं अपनी सत्ता समेट कर कंप्यूटर की बाग-डोर उसके हवाले कर देता हूँ। आज… आज बगल खाली है। लिखने की पूरी स्वतन्त्रता है, किसी भी विषय पर लिख सकता हूँ; परन्तु युवान मेरे मस्तिष्क में घुसपैठ कर रहा है। कितना मीठा है यह अहसास, कितनी वांछनीय यह परतन्त्रता।
- आपका
सुमन कुमार घई
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- रचना समीक्षा
- कहानी
- कविता
- साहित्यिक आलेख
- पुस्तक समीक्षा
- पुस्तक चर्चा
- किशोर साहित्य कविता
- सम्पादकीय
-
- लघुकथा की त्रासदी
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- आवश्यकता है युवा साहित्य की
- उलझे से विचार
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- कितना मीठा है यह अहसास
- कैनेडा में सप्ताहांत की संस्कृति
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- नव वर्ष की लेखकीय संभावनाएँ, समस्याएँ और समाधान
- नींव के पत्थर
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- प्रथम संपादकीय
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- भाषा में शिष्टता
- मुख्यधारा से दूर होना वरदान
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- मेरी थकान
- मेरी प्राथमिकतायें
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- श्रेष्ठ प्रवासी साहित्य का प्रकाशन
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- साहित्य का व्यवसाय
- साहित्य कुंज को पुनर्जीवत करने का प्रयास
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- हिन्दी टाईपिंग रोमन या देवनागरी और वर्तनी
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं?
- हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? भाग - २
- हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? भाग - ३
- हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? भाग - ४
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- ग़ज़ल लेखन के बारे में
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- विडियो
- ऑडियो
-