किशोरावस्था, किशोर साहित्य और संदर्भ: अद्‌भुत संन्यासी – 01

01-02-2022

किशोरावस्था, किशोर साहित्य और संदर्भ: अद्‌भुत संन्यासी – 01

सुमन कुमार घई (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

गत दिनों में डॉ. आरती स्मित का किशोर साहित्य का उपन्यास ’अद्‌भुत संन्यासी’ पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। स्वामी विवेकानन्द पर अनेक पुस्तकें अनेक विधाओं में लिखी जा चुकी हैं। परन्तु किशोर-साहित्य में उपन्यास अपने-आप में एक अनूठा प्रयोग है। इसे प्रयोग इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि हिन्दी साहित्य में किशोर साहित्य न के बराबर है। यह एक ऐसी महत्वपूर्ण विधा है जिसकी अच्छी पुस्तकें सहज उपलब्ध नहीं होतीं। डॉ. आरती स्मित विशेषरूप से बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने इस विधा की नींव का पत्थर रखा। 

आधुनिक भारत विश्व पटल पर हर क्षेत्र में अपना स्थान बना रहा है। वर्तमान युग में भारत के लिए आर्थिक समृद्धता चाहे नई परिस्थिति हो परन्तु बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर भारतवर्ष की संस्कृति आदिकाल से ही समृद्ध रही है। समय-समय पर भारतभूमि पर किसी ऐसे व्यक्ति का जन्म होता है जो इसकी चेतना जन-जन में जागृत करता है। ऐसे ही महापुरुष थे स्वामी विवेकानन्द! 

स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व बहुत विशाल है। उसे एक परिचर्चा में बाँध पाना दुरूह कार्य है। ’अद्‌भुत संन्यासी’ की चर्चा करते हुए मैं अपने आप को  “सच्चे गुरु की खोज” अध्याय तक ही सीमित रख रहा हूँ। शेष अध्यायों की चर्चा भविष्य में करूँगा।

इस उपन्यास की चर्चा करने से पहले यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम समझें, किशोर साहित्य क्या है और इसका महत्त्व क्या है? किशोर साहित्य को मैंने ’महत्त्वपूर्ण’ विधा कहा है। इसके कई कारण हैं। किशोरावस्था व्यक्ति के व्यस्क जीवन के आरम्भ का सोपान है। इसी अवस्था में जीवन-दिशा का चयन होता है। इस चयन को समझने के लिए पहले किशोर-मानसिकता को समझना अनिवार्य है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) के अनुसार किशोरावस्था १० से १९ वर्ष मानी जाती है। प्रायः हम लोग किशोरावस्था १३ से १९ के बीच मानते हैं जिसे पश्चिमी जगत में ’टीनएज’ कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने संभवतः १० वर्ष से इसका आरम्भ इसलिए माना क्योंकि १० वर्ष का बच्चा बाल्यावस्था से निकल कर किशोरावस्था में पदार्पण करना आरम्भ करता है। मानसिक विकास की प्रक्रिया और शारीरिक विकास की प्रक्रियाएँ अलग-अलग होते हुए भी समानान्तर चलती हैं। मानसिक विकास में साहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण रहती है। 

दस वर्ष की आयु तक आते-आते बच्चा बाल-साहित्य की बड़े-बड़े रंगीन चित्रों और कम शब्दों वाली पुस्तकों से आगे बढ़ चुका होता है। इस अवस्था में उसे रोमांचक साहित्य की आवश्यकता होती है जो उसकी कल्पनाशक्ति को जागृत करे। वह उनमें अपने नायक खोजता है। ऐतिहासिक कहानियों की पुस्तकें उसे अच्छी लगने लगती हैं। 

किशोरावस्था तक पहुँचते हुए उसके मन में प्रतिक्रियाएँ जन्म लेने लगती हैं। वह मुखर होने लगता है। जैसे वय थोड़ा और आगे बढ़ती है तो विद्रोह की भावना, कुछ कर गुज़रने की भावना भी पैदा होने लगती है। नैतिकता की समझ भी आने लगती है। अगर उसे सही मार्गदर्शन न मिले तो यहीं पर नैतिक और अनैतिक की दूरी भी समाप्त हो जाती है। 

इस अवस्था में मानसिक विकास को सही दिशा देने की आवश्यकता होती है; अतः किशोर साहित्य सहायक हो सकता है। किशोरावस्था में व्यक्ति सामाजिक परिस्थितियों को समझने लगता और कुछ-कुछ राजनैतिक परिस्थितियों की समझ पैदा होने लगती है। मानसिक विकास होने के कारण व्यक्तिगत रुचियों, सामाजिक दायित्व इत्यादि की भी समझ आने लगती है। इसलिए हमें किशोर मानसिकता पर विचार करते हुए समझना होगा कि किशोरों को कैसी पुस्तकें पढ़नी अच्छी लगती हैं? 

इसके लिए हमें पश्चिमी जगत की ओर देखना चाहिए क्योंकि विदेशों में किशोर साहित्य लोकप्रिय भी और विकसित भी है। यहाँ पर पश्चिमी जगत की वास्तविकता या उस पर हुए अध्ययनों की, भारत के किशोरों के साथ तुलना नहीं कर रहा हूँ। यह तुलना वैसे भी कठिन होगी क्योंकि जैसा कि पहले कह चुका हूँ किशोरावस्था में बालक अपने आसपास देखने लगता है और उसे समझने लगता है। इस कारण से उसकी मानसिक और बौद्धिक विकास पर समाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। क्योंकि भारतीय और पश्चिमी देशों की सामाजिक परिस्थितियाँ और समाज की मान्यताएँ अलग हैं, इसलिए इन समाजों के किशोरों की मान्यताएँ  और आचरण भी, स्वाभाविक है, भिन्न ही होंगे। फिर भी हम यह नहीं भूल सकते कि बाल्यावस्था से किशोरावस्था का परिवर्तन एक सामाजिक प्रक्रिया नहीं है, यह प्राकृतिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की दिशा शारीरिक विकास या शरीर में सक्रीय ग्रंथियों के अंतःस्राव (हारमोंज़) से नियन्त्रित होती है। विभिन्न समाजों के किशोरों का सामाजिक आचरण अलग हो सकता है परन्तु आन्तरिक विकास जो कि अन्य शब्दों शारीरिक और बौद्धिक विकास है—वह समान ही होता है। इन्हीं कारणों से मैं पश्चिमी जगत में प्रचलित किशोर साहित्य की चर्चा करना चाहता हूँ। पश्चिमी जगत की ओर देखना और उसे समझना वर्तमान के भारत के लिए बहुत आवश्यक है।

सबसे पहले हमें देखना चाहिए कि पश्चिमी जगत में किशोर साहित्य की कौन-कौन सी विधाएँ लोकप्रिय हैं। इनमें से कुछ हैं—वैज्ञानिक साहित्य/ अन्य जगत (साई-फ़ाई ); अपराध/ रहस्य (क्राईम, मिस्ट्री); रोमांच/ भय (थ्रीलर, हॉरर); कल्पना-लोक (फ़ैंटसी); रोमांस; ऐतिहासिक; आधुनिक या समसामयिक सामाजिक साहित्य (Contemporary) इत्यादि।

इस सूची में, कुछ शुद्ध मनोरंजन की विधाएँ हैं और कुछ अन्य का सामाजिक और नैतिक महत्व भी हो सकता है।

पश्चिमी देशों के किशोरों के लिए उपलब्ध साहित्य को समझने की आवश्यकता के अन्य कारण भी हैं। हम सभी जानते हैं कि वर्तमान का भारत अब आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले का भारत नहीं है। आज जब बच्चों के हाथों में मोबाइल और इंटरनेट है; वह अब विश्व से जुड़ा हुआ है, एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर रहा। उसे मालूम है कि पश्चिमी जगत में उसके लिए क्या उपलब्ध है? जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। हम यह भी जानते हैं कि पश्चिमी जगत में किशोरों के लिए अच्छा-बुरा सबकुछ उपलब्ध है, क्योंकि पश्चिमी व्यवसायिक जगत किशोर मानसिकता, किशोर रुचियों और आकर्षणों को समझता है। इस समझ को पैदा करने के लिए बाज़ार मनोविज्ञान की सहायता लेता है और इसीलिए सफल भी है। भारतीय किशोर भी इसीलिए उस ओर उन्मुख है और उन आकर्षणों को प्राप्त करना चाहता है। यह भारत के समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। भारत में भी बाज़ार पश्चिमी बाज़ार का ही अनुसरण कर रहा है। इस बाज़ारवाद की प्रक्रिया को रोक पाना या पलट पाना असम्भव है। 

बाज़ार भी एक सिक्के की तरह है कि इसके भी दो पक्ष हैं। बाज़ारवाद हमेशा अच्छा नहीं होता और हमेशा बुरा भी नहीं होता। आवश्यकता है कि भारत के लेखक बाज़ारवाद का लाभ अपनी चतुराई से उठाएँ। किशोरों की मानसिकता को समझते हुए, अपने साहित्य की विषयवस्तु वह रखें जो उनका पाठकवर्ग यानी किशोर पढ़ना चाहता है। किशोर साहित्य के लेखक को यह समझना भी आवश्यक है कि वह सपाट भाषा में किशोरों को उपदेश नहीं दे सकते। इस उपदेश को कथानक में बुनना होगा। मत भूलिए कि किशोरावस्था विद्रोह की होती है। इस अवस्था में बालक स्थापित नियमों को चुनौती देता है। आप उससे बहस नहीं कर सकते। आपको किशोर तर्कों को मानते हुए उन तर्कों को सही दिशा देनी चाहिए। 

उपर्युक्त चर्चा को समझते हुए आज के भारत में डॉ. आरती स्मित के किशोर साहित्य के उपन्यास “अद्‌भुत संन्यासी” का महत्व बहुत बढ़ जाता है। आधुनिक भारत में भारतीय किशोरों द्वारा अंधाधुंध पश्चिमी किशोरों का अनुसरण चिंताजनक है। इस अनुसरण के कई कारण हैं। उनमें से एक है कि भारतीय संस्कृति और दर्शन के नायकों का इतिहास आज के भारतीय किशोरों तक नहीं पहुँच पा रहा। 

असहमति का एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि भारतीय संस्कृति में श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे आदर्श नायक सदा रहे हैं। तर्क सही है, परन्तु यह नायक सहस्रों वर्ष पुराने हैं। यह मिथक का भाग बन चुके हैं या बना दिए गए हैं जोकि एक अलग विषय है। आधुनिक युवा उनकी पूजा तो कर सकता है—क्योंकि वह भगवान हैं, परन्तु वह पुरुष भी थे—इस बात को समझाना कठिन हो जाता है। यह तब और भी कठिन हो जाता है जब हम इन दोनों नायकों की परालौकिक शक्तियों की चर्चा करने लगते हैं। इन दोनों नायकों को केवल कुशल प्रशासक या वीर पुरुष के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया। यह अवतार थे, ऐसा कहा जाता है, इसलिए इन दोनों की उपलब्धियाँ प्रारब्ध थीं, पूर्व निर्धारित थीं। ऐसा ही तो कहानियों में कहा जाता है। इन उपलब्धियों को पाने के लिए जो भी संघर्ष इन्होंने किए वह भी पूर्व निर्धारित ही थे। प्रत्येक संघर्ष का एक पूर्व निर्धारित प्रयोजन था। ऐसे में किशोर से आशा करना कि वह इन महानायकों को अपने जीवन में, अपने व्यक्तिगत मानव नायक के रूप में स्वीकार कर लेगा; असंभव सा लगता है। वह इन्हें अपना इष्ट देव तो मान सकता है पर आदर्श नायक स्वीकार करने में समस्या होती है।

यहाँ पर “अद्‌भुत संन्यासी” जैसा किशोर-उपन्यास और भी अधिक सार्थक हो जाता है।

भारतीय संस्कृति के काल के संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द तो अभी कल के नायक थे। यहाँ तक कि स्व. डॉ. नरेन्द्र कोहली ने भी “तोड़ो कारा” पुस्तक की रचना के संदर्भ में बात करते हुए एक बार कहा था कि उन्हें “महासमर” की अपेक्षा स्वामी विवेकानन्द पर लिखने में अधिक कठिनाई हुई। क्योंकि, उनके अनुसार, यह कल का इतिहास है। कल के इतिहास के साथ अधिक छेड़-छाड़ नहीं कि जा सकती।

क्योंकि यह कल का इतिहास है, इसलिए किशोरों द्वारा ऐसे नायक को अपना आदर्श मानना अधिक स्वाभाविक लगता है।

अब इस परिचर्चा में कथानक के साथ चलते-चलते हम किशोर उपन्यास के तत्वों की चर्चा करते चलेंगे।

अद्‌भुत संन्यासी बालक नरेन्द्रनाथ के जन्म से आरम्भ होता है। बच्चे का नामकरण पति-पत्नी की स्वाभाविक बातचीत से होता है। पिता उसे नरेन्द्रनाथ कहते हैं तो माँ प्यार उसे “बिले” का नाम दे देती है:

“मैं चाहता हूँ कि मेरा बेटा श्रेष्ठ मनुष्य बने, इसलिए बेटे का नाम सोचा था ’नरेन्द्र—नरेन्द्रनाथ दत्त। मगर तुम वीरेश्वर ही रख लो।”

“अरे नहीं! आपका सोचा हुआ नाम अधिक अच्छा है। मगर मैं इसे बीरे, बिले ही पुकारूँगी। मेरा बिले!” वह झुकी और शिशु को चूम लिया। (पृष्ठ 2)

आरम्भिक दिनों में नरेन्द्रनाथ का पालन-पोषण संयुक्त परिवार में हुआ। पिता का परिवार समृद्ध था क्योंकि पिता कलकत्ता के नामी वकील थे। एक ओर सामान्य बाल-सुलभ आचरण को भी बहुत सुन्दरता से इस उपन्यास में दर्शाया गया है और दूसरी ओर बालक के आध्यात्मिक रुझान, प्रवृत्ति को भी व्यक्त करते हुए लेखिका लिखती हैं:

“आपने ग़ौर किया, नरेन संन्यासियों की आवाज़ सुनकर रुक नहीं पाता, तुरंत बाहर दौड़ लगाता है।”

“इसमें बुराई क्या है? मैंने हमेशा द्वार पर आए साधु-संन्यासी का स्वागत किया है।” (पृष्ठ 9)

संन्यासियों की ओर आकर्षित होना बालक के लिए स्वाभाविक था परन्तु परिवार के संस्कार भी इस प्रवृति को पोषित करते हैं। 

जब बालक नरेन्द्र अपनी नई धोती उतार कर संन्यासी को भिक्षा में दे देता है तो माँ खिन्न होती है। परन्तु पिता का दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न है। वह कहते हैं:

“बच्चा है। समझा दो या उसके सामने तुम कुछ दे दो। यह कोई अपराध नहीं कि दान देने के लिए उसे डाँटा जाए।” (पृष्ठ 11)

यहाँ पर बाल्यवस्था की मानसिकता को भी दर्शाया गया है और दूसरी ओर संस्कारों के संपोषण को भी पुनः पुष्ट किया गया है। यह चरित्र निर्माण की नींव है।

परिचर्चा के आरम्भ में मैंने लिखा है कि बाल्यवस्था में बच्चों को ऐतिहासिक कहानियाँ सुनना अच्छा लगता है। प्रायः भारत में महापुरुषों की जीवन-कथाओं में रामायण या महाभारत की कहानियों को सुनाने का संदर्भ आता है। यह वास्तव में होता भी है। बच्चों को माता-पिता, दादा-दादी या नाना-नानी यह कहानियाँ सुनाते हैं। ऐसा ही बालक नरेन्द्र के साथ भी होता है:

“नरेन! तुम यहाँ बैठोगे?”

“हाँ! ठाकुर माँ!”

“तंग तो नहीं करोगे?”

“मुझे माँ से और माँ के साथ बैठकर रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनना अच्छा लगता है।” (पृष्ठ १२)

आप कहेंगे कि इस वार्तालाप में क्या विशेषता है। ऐसा प्रायः पढ़ने को मिलता है। मेरा मत है कि यह विशेष इसलिए है क्योंकि लेखिका ने लिखा है “मुझे माँ से और माँ के साथ बैठकर”; माँ से साथ बैठकर कहानियाँ सुनना बालक को अच्छा लगता है—यह विशेष है। डॉ. आरती स्मित ने बिना कहे ही बाल मनोविज्ञान का एक तथ्य कहानी में बुन दिया। मनोवैज्ञानिक प्रायः कहते हैं कि माता-पिता को बच्चों के साथ बैठ कर टीवी देखना चाहिए ताकि वह स्क्रीन पर दर्शायी कहानी को बच्चों को समझा सकें। माता ही शिशु की प्रथम गुरु भी होती है।

अब बालक बड़ा होता है। अपनी बालबुद्धि से वह अपने समाज को समझने का प्रयास करने लगता है। इस समझ को वह स्पष्ट व्यक्त नहीं कर सकता परन्तु आरती स्मित संवादों द्वारा इसे व्यक्त करती हैं:

“मैं कोचवान बनूँगा। तुम्हारे जैसा।”

“भला क्यों?”

“कोचवान बड़े रुतबे वाला होता है, तभी तो पगड़ी पहनकर गाड़ी के आगे बैठता है और घोड़े को फटकारता है।”

उसकी बातें सुनकर कोचवान दिनभर की थकान भूलकर हँसने लगा। (पृष्ठ १३)

बिले को समझ आने लगता है कि जो कुछ बड़े कहते हैं, वह सदा सच नहीं होता:

एक दिन, रामकथा सुनाने कथावाचक को बुलाया गया। नरेन को रामकथा सुनना बहुत पसंद था। वह चुपचाप सुनता रहा। कथा के बीच में कथावाचक ने नरेन को बहलाते हुए कह दिया, “हनुमानजी केले के पेड़ पर रहते हैं।” दूसरे दिन सुबह नरेन चुपचाप पास वाले केले के बागान में चला गया। दोपहर हो गई। उसे भूख लग आई। माँ भी याद आई, मगर फिर भी केले के पेड़ के नीचे लंबे समय तक खड़ा रहा कि रामभक्त अनुमान यहाँ ज़रूर आएँगे। उधर उसकी माँ खोज-खोज कर परेशान हो गई। शाम हो गई, अँधेरा घिरने लगा तो दुखी मन से वह घर लौटा। उसकी आँखों में आँसू थे। माँ ने उसे उदास देखा तो पूछ बैठी, “क्या हुआ बिले? और आज दिन भर कहाँ था? तुमने खाना भी नहीं खाया, सब तुझे खोज-खोज कर परेशान हो गए।”

“माँ कथावाचक भी झूठ बोलते हैं? वे तो राम की कथा सुनाते हैं फिर भी झूठ बोलते हैं! उन्होंने कहा था, हनुमान जी को केले पसंद हैं और वे केला बागान में ही आकर आराम करते हैं। मैं दिन भर इंतज़ार करता रहा।”

वह सुबकने लगा। माँ समझ गई कि कथावाचक की ठिठोली को बिले सच मान बैठा और इसलिए आज उसके नन्हे मन को ठेस लगी है। (पृष्ठ ११)

इसी तरह पहली बार नरेन्द्र जात-पात, छुआ-छूत से परिचित होता है: 

“एक दिन नरेन खेलते खेलते बैठक में घुस गया। वह अपने घर में कई लोगों को अलग-अलग वेशभूषा में आते-जाते देखता था। पिता सभी को आदरपूर्वक बिठाते और उनके सम्मान में हुक्का पेश करते। उस समय वहाँ सिवाय नौकर के कोई न था। वह हुक्के में तंबाकू, चिलम आदि भर कर तैयार कर रहा था। पहले तो नरेन चुपचाप देखता रहा, फिर पूछ बैठा,

“बाबा इतने हुक्के से पीते हैं?”

“आपके बाबा नहीं पीते, जो लोग बाबा से मिलने आते हैं, वे सब एक जाति के थोड़े ही न होते हैं। तो अलग-अलग जाति के लोगों को अलग-अलग हुक्क़ा दिया जाता है।”

“ लेकिन क्यों? अगर जाति के लोग एक ही हुक्क़ा से पिएँगे तो क्या हो जाएगा?”

“जाति भ्रष्ट हो जाएगी बिले बाबू”

“जाति भ्रष्ट हो जाएगी तो क्या होगा?”

“कैसी बात करते हो! जाति भ्रष्ट हो जाएगी तो बचेगा क्या?” नौकर नन्हे नरेन के सवालों से थकने लगा, मगर नरेन कहाँ मानने वाला था। उसने फिर पूछा “जाति नहीं रहेगी तो क्या होगा? क्या वे मर जाएँगे? क्या उनके सिर पर छत टूट पड़ेगी या आसमान टूट पड़ेगा।"

“समझ लो आसमान ही टूट पड़ेगा।” (पृष्ठ १४) 

इस दृषांत में लेखिका ने तत्काली सामाजिक व्यवस्था, जातिवाद  पर न केवल चोट की है, बल्कि किशोर की विकसित अवधारणाओं को भी व्यक्त किया है। नरेन प्रचलित व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाता है ’जाति नहीं रहेगी तो क्या होगा? क्या वे मर जाएँगे? क्या उनके सिर पर छत टूट पड़ेगी या आसमान टूट पड़ेगा’। इस सम्वाद की सतह के नीचे नरेन का व्यवस्था के प्रति विरोध और रोष दोनों को स्वर मिलता प्रतीत होता है।

ऐसे कई दृष्टांत हैं, जिनमें बालक नरेन स्थापित सामाजिक व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

बिले को स्कूल दाख़िल करवा दिया जाता है। अब उसका सामाजिक वृत्त बढ़ जाता है तो सामान्य सी बात है कि बाहर की भाषा का प्रभाव उस पर भी पड़ता है:

“बिले तुमने हरि को गाली दी?”

“गाली?” बिले बाबा का मुँह देखने लगा।

X    X    X

“स्कूल में सभी बोलते हैं। मास्टर भी” (पृष्ठ १५)

इसके पश्चात्‌ बिले को पढ़ाने के लिए घर पर ही शिक्षक आने लगते हैं। यहाँ पर नरेन अपनी विलक्षण बुद्धि से शिक्षकों और  अड़ोस-पड़ोस अचम्भित करता है:

“गजब है बिले की बुद्धि भी तभी तो संस्कृत श्लोक के गलत उच्चारण पर उसने गायक को टोक दिया। मेरी मानो बोदी तो बिले के लिए कोई संस्कृत विद्वान शिक्षक तलाश करो” पड़ोसन बोली।” (पृष्ठ १४)

बिले सात वर्ष का होता है और उसका दाख़िला अब महानगर मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्युशन में करवा दिया जाता है। इस अवस्था में मानसिक विकास होने लगता है। नरेन की प्रतिभा विकसित होने लगती है। सदाचार का जो पाठ वह यहाँ पढ़ता है वह कभी नहीं भूल पाया।

उसकी मित्र मंडली बनती है। क्योंकि किशोरापूर्वास्था में बालक गिरोह में रहना पसन्द करते हैं। 

नरेन असाधारण बालक है, इसको यह घटना स्थापित करती है: 

“नरेन ने कहानी सुनानी शुरू की तो सुनने वाले बच्चे भी भूल गए कि वे कक्षा में हैं। शिक्षक आए और उन्होंने पाठ पढ़ाना शुरू किया। आधी कहानी बीच में कैसे छोड़ी जाती। नरेन कहानी सुनाता रहा। शिक्षक ने नरेन को साथियों से बात करते देख लिया।

“नरेन खड़े हो और अभी मैंने जो पढ़ाया वह पाठ सुनाओ।”

नरेन ने पाठ दोहरा दिया।

“तुम लोग भी पाठ सुनाओ,” शिक्षक बाक़ी बच्चों से बोले, मगर बाक़ी सब चुप रहे।(पृष्ठ१८)

पूरी कक्षा को सज़ा मिलती है। अध्यापक नरेन को सज़ा नहीं देते तो स्वयं साथियों के साथ खड़ा हो जाता है और स्वीकार करता है कि उसकी ग़लती के कारण ही सबको सज़ा मिल रही है।  अध्यापक कहते हैं: 

“मगर तुमने कक्षा में पढ़ाया पाठ सुना दिया।”

“मैं एक साथ कई काम कर सकता हूँ। ये नहीं कर सकते। इसलिए मैं खड़ा ही रहूँगा।” नरेन ने कहा तो शिक्षक हैरान रह गए। (पृष्ठ१८)

यह बालक का विलक्षण आचरण है। यह दिखलाता है कि वह कैसा युवक बनेगा। डॉ. आरती स्मित ने नरेन के पात्र को विकसित करते हुए उसे आध्यात्मिक विकास को भी अपने शब्द चित्रों में बाँधा है। खेल-खेल में नरेन अपने साथियों के साथ बाज़ार से मूर्ति ख़रीद लाता है:

“दूसरे दिन, बाज़ार से मूर्ति लाकर उसे बिठाकर बिले ने कुछ फूल चढ़ाए और साथियों से आँख बंद करके ध्यान लगाने को कहा। उसके साथी ज़रा देर में ही आँख खोलकर इधर-उधर देखने लगे।, मगर वह ईश्वर ध्यान में लीन हो गया। उसे इस खेल में मज़ा आया। अब वह अकेल भी ध्यान लगाने बैठ जाता।” (पृष्ठ २१)

मेधावी छात्र नरेन्द्रनाथ दत्त को अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए चुना जाता है। इस दृष्टांत में लेखिका नरेद्रनाथ की भारतीय भाषा, संस्कृति से प्रेम और समझ के महत्त्व को दर्शाते हुए लिखती हैं:

“मगर मुझे अभी अंग्रेज़ी नहीं पढ़नी!”नरेन ने शिक्षक को टोका।

“क्या आपको नहीं लगता कि बिना अपनी भाषा को पूरी तरह जाने-समझे हमें विदेशी भाषा पढ़नी चाहिए,” उसने फिर कहा।

अध्यापक से बहस होती है तो नरेन्द्रनाथ तर्क देता है:

“गुरु महाशय! आप समझ नहीं रहे या समझना चाह नहीं रहे कि अंग्रेज़ी में शिक्षा आरम्भ होने पर धीरे-धीरे बांग्ला और संस्कृति ग्रंथ हमसे छूटते चले जाएँगे। जब अपनी भाषा के साहित्य से हम दूर होंगे तो अपने समाज से भी दूर होते जाएँगे। आप मुझे अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए विवश नहीं कर सकते।” (पृष्ठ २०)

उपन्यास के अगले अध्याय ’सच्चे गुरु की खोज’ में नरेन्द्रनाथ से स्वामी विविदिशानन्द तक बनने की यात्रा है।

हमें स्वामी विवेकानन्द के जीवन के बारे में एक तथ्य और समझना चाहिए। उनका जन्म तो निःस्संदेह समृद्ध परिवार में हुआ परन्तु आर्थिक परिस्थितियाँ बदलीं। पिता की मृत्यु से पहले ही आर्थिक विघटन आरम्भ हो चुका था। पिता की मृत्यु के पश्चात आर्थिक परिस्थिति बहुत कठिन हो गई। इन परिस्थितियों में नरेन्द्रनाथ की मानसिक संघर्ष का चित्रण भी मार्मिक है:

“यह बुरा वक़्त है। कुछ दोस्तों का चरित्र समझ पा रहा हूँ। कल तक ये ही मेरे आगे पीछे डोलते थे। आज . . .!” नरेन सोचता चला गया।

’बड़ा बेटा होने के नाते परिवार की ज़िम्मेदारी मेरे कंधे पर आ गई। घर में दोनों समय का खाना जुटाना भी मुश्किल होने लगा है।’  (पृष्ट ३८)

“अद्‌भुत संन्यासी” उपन्यास में ऐसे कई दृष्टांत हैं जो नरेन्द्रनाथ कि गुरु के पास ले जाते हैं। नरेन्द्रनाथ ने गुरु की खोज में छह वर्ष बिताए:

“श्रीरामकृष्ण पहले की ही तरह अपनी उसी छोटी चौकी पर किसी भाव में खोए-से अकेले बैठे थे। नरेन को देखकर वे बहुत खुश हुए; नरेन को अपने पास बिठाया और कुछ बुदबुदाते हुए उसकी ओर खिसकने लगे। उनके चरण के स्पर्श-मात्र से नरेन को सब घूमता नज़र आने लगा। वह सुध-बुध खोने लगा और चिल्ला पड़ा” (पृष्ठ ३७)

उस समय नरेन्द्रदत्त की आयु लगभग सत्तरह वर्ष की थी। हालाँकि वह अपनी किशोरावस्था के अंतिम चरण में थे, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नरेन्द्र दत्त का मानसिक विकास अपनी आयु से कहीं अधिक था। यहाँ पर किशोर मानसिकता कि सिद्धांत लागू नहीं हो सकते। 

“अद्‌भुत संन्यासी” में स्वामी विवेकानन्द की कथा यहीं समाप्त नहीं होती। दीक्षा प्राप्त करने की चाह और पारिवारिक दायित्वों का आत्म संघर्ष सोने को कुंदन बनाने की प्रक्रिया अभी शेष है। उसके बाद स्वामी जी की विदेश यात्राएँ और विभिन्न संस्थानों की स्थापना का इतिहास अभी बाक़ी है। आप यह भूल जाएँ कि आप व्यस्क  हैं। एक किशोर की मानसिकता के साथ आप इसे पढ़ें। मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि एक बार पढ़ना आरम्भ करने के बाद समाप्त होने तक आप इसे छोड़ नहीं पाएँगे। 

इस परिचर्चा का उद्देश्य “किशोर साहित्य का महत्त्व ’अद्‌भुत संन्यासी’ के संदर्भ में” था। इसलिए मैं इस परिचर्चा को यहीं विराम देता हूँ साथ यह भी संकल्प करता हूँ कि परिचर्चा भविष्य में इसीं संदर्भ में आगे बढ़ेगी।

डॉ. आरती स्मित के उपन्यास “अद्‌भुत संन्यासी” नरेन्द्र दत्त के जन्म से लेकर उसके स्वामी विवेकानन्द बन जाने की यात्रा है। उपन्यास एक विशिष्ट शैली में लिखा गया है। छोटी-छोटी घटनाओं को अलग कथाओं की तरह स्पष्ट सरल भाषा में लिखा गया है। किशोर पाठक या किशोरापूर्वावस्था यानी दस से तेरह वर्ष के बालकों के लिए पढ़ना  और इसे समझ पाना बहुत आसान है। लगता है लेखिका ने इस शैली को जान-बूझ को अपनाया है। इसका अर्थ यह भी है कि वह अपने पाठकवर्ग को भली-भाँति समझती हैं।

एक बार पुनः उन्हें इस महत्त्वपूर्ण किशोर उपन्यास पर प्रकाशन पर बधाई।

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