उसकी ख़ुशबू
सुमन कुमार घईघर का दरवाज़ा खोलते ही एक ख़ुशबू का झोंका विनय के अन्तर्मन तक उतर गया। वह धीरे से बुदबुदाया यह ख़ुशबू मैं पहचानता हूँ। हॉलवे में एक हाथ से दीवार का सहारा लेते हुए, सदा की तरह दूसरे हाथ से जूते के तसमे को खींचते हुए एक बार फिर पर ज़रा ऊँचे स्वर में वह बोला, “यह ख़ुशबू मैं पहचानता हूँ।”
अपने पिता का स्वर सुन, तरुण अपने कमरे से बाहर आया।
“क्या कहा आपने?”
विनय ने तुरंत सामने देखा और विस्मित होते हुए पूछा, “तरुण तुम! इस समय घर में? स्कूल से जल्दी लौट आए क्या।”
“हाँ पापा।” तरुण ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और उसके स्वर में ऐसी झिझक थी कि मानो वह कोई ग़लत काम करते हुए पकड़ा गया हो और अब उसे ऐसे ही कितने प्रश्नों के उत्तर देने पड़ेंगे और तब कहीं जाकर पीछा छूटेगा।
विनय का तसमे वाला हाथ वहीं का वहीं रुक गया।
“सब ठीक तो है न?”
“हाँ पापा, सब ठीक है। बस आज स्कूल में आख़िरी पीरियड में कुछ भी होने वाला नहीं था। रिप्लेसमेंट टीचर था सो सारी की सारी कक्षा घर भाग गई।”
“यह तो ठीक नहीं है। माना कि नियमित अध्यापक नहीं पर नया अध्यापक कुछ तो पढ़ाता है। ऐसा ही करते रहोगे तो विश्वविद्यालय में दाख़िले के नम्बर भी नहीं पा सकोगे।” बिना तसमा खोले ही विनय ने एक छोटा सा भाषण दे डाला। एक पाँव पर खड़े-खड़े विनय को थोड़ी सी कठिनाई अनुभव हुई तो उसने फिर से जूता उतारने का उपक्रम आरम्भ किया। अभी तक उसका एक भी जूता नहीं उतरा था। अचानक फिर उसे वही ख़ुशबू याद हो आई और नीचे अपने जूते की और देखते हुए पुनः बोला, “यह ख़ुशबू मैं पहचानता हूँ। क्यों तरुण?”
अपने पिता की प्रश्नातमक, विस्मय से भरी हुई नज़र ने उसके अपने ही अपराध बोध को कचोट दिया। यद्यपि अब उसके पापा फिर से जूते का तसमा खोलने में व्यस्त हो चुके थे, परन्तु तरुण को अभी भी लग रहा था कि बात का उत्तर दिए बिना टाला नहीं जा सकेगा।
“हाँ पापा, आज वो आई थी।”
विनय ने एकदम झटके से सिर ऊपर कर तरुण को ग़ुस्से से डाँटा, “क्या कहा? वो आई थी! कह नहीं सकते की मम्मी आईं थीं। माँ है तुम्हारी! ‘वो’ नहीं।”
विनय का तसमा बुरी तरह से उलझ चुका था। अब और अधिक देर तक दीवार का सहारा लेकर एक टाँग पर खड़े रहना उसको लगभग असम्भव ही लग रहा था।
“देख क्या रहा है। बैठने के लिए कुछ दे,” विनय के स्वर में अभी भी तीखापन था।
तरुण ब्रेकफ़ास्ट टेबल से कुर्सी उठाने जा चुका था। विनय के मन में अनेकों प्रश्न उठ रहे थे। अचानक तीन साल के बाद बिना किसी पूर्व सूचना के कैसे वो चली आई? अब क्या चाहती है वह? क्यों? क्या कारण रहा होगा उसके यहाँ आने का? और वह भी उसकी अनुपस्थिति में। कहीं तरुण को. . .। एक डर सा उसके मन पर अधिकार जमाने लगा। उसने तुरंत ही उसे नकार दिया। नहीं ऐसा नहीं हो सकता। तरुण सब समझता है; तभी तो जब जज ने उससे पूछा था कि माता-पिता के तलाक़ के बाद किसके साथ रहना चाहोगे तो तरुण ने निःसंकोच विनय का ही तो नाम लिया था। मीरा भौंचक्की रह गई थी। अनजाने में कही गईं उसकी बातें इस बालक के निर्बोध मन को न जाने कितने वर्षों से सालती रहीं थीं। इसका भान तो उसे तभी हुआ था, परन्तु अपनी प्रकृतिवश इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाई थी। उसका अपना ही हाड़-मांस उसीको ठुकरा देगा और सबके सामने अपने पापा के साथ रहना चुनेगा. . .? क्षणिक अपमान को सदा की तरह मीरा ने नकार दिया था। और झूठी ख़ुशी दिखाते हुए तरुण के चयन को स्वीकृति दे दी थी।
तरुण ने कुर्सी लाकर हॉलवे के कोने पर रख दी। विनय ने उस पर बैठते हुए, वातावरण में अकस्मात छाये भारीपन को हल्का करने के लिए कुछ व्यंगात्मक ढंग से कहा, “जानते हो अगर इस समय तुम्हारी मम्मी यहाँ होती तो अब तक दो-तीन बार मुझे डाँट पड़ चुकी होती।”
“हाँ जानता हूँ पापा,” तरुण ने भी वातावरण की दिशा बदलने का अवसर नहीं गँवाया। “पहले तो आपने दीवार पर हाथ का सहारा लिया, दूसरे आपकी कुर्सी बेशक हॉलवे में है, पर आपके पाँव लिविंग रूम में हैं। मम्मी को ऐसी बातें बिल्कुल पसन्द नहीं थीं।”
अपने उतरे जूतों को सहेज कर रखने की बजाये वहीं से जूतों की शेल्फ़ की तरफ फेंकते हुए, विनय चहका, “हाँ तभी तो! इसी स्वतन्त्रता का जश्न हम हर रोज़ मनाते हैं।”
“वो तो है, पर पापा हम दिन में कई बार किसी भी बहाने से मम्मी को याद भी तो करते हैं।”
बेटे के इस वाक्य ने विनय के अन्दर, समय की कई परतों के नीचे सहेज कर छिपाई हुई पीड़ा को उघाड़ दिया। कई बार, हाँ दिन में ही कई बार. . .! कभी मीरा का मज़ाक उड़ाते हैं, कई बार उसकी कही बातों पर अपनी खीझ प्रदर्शित करते हैं। हालाँकि उसकी याद के पीछे एक व्यंग्य या रोष की भावना रहती है, पर सच तो यह है कि दोनों ही मीरा का यहाँ न होना अभी तक भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। हों भी कैसे. . .? मीरा ही उन दोनों को छोड़ गई थी। उन्होंने तो अभी तक उसे नहीं छोड़ा था। तलाक़ उसने दिया था, उन्होंने नहीं। तलाक़ को उसने स्वीकार भी मीरा की ख़ुशी के लिए ही किया था। कितनी अचरज की बात है कि अपने जीवन-साथी की प्रसन्नता के लिए संबन्ध-विच्छेद भी स्वीकार्य हो जाता है।
पिता को विचारों में खोये देख, तरुण ने बात शुरू की; वह नहीं चाहता था कि सोचते-सोचते विनय फिर से उदासी की गहराइयों में उतर जाए। ऐसा आगे भी कई बार हो चुका था।
“पापा, चाय बनाऊँ?”
“हाँ, चल पानी तो रख ही दे। तब तक कपड़े बदल लूँ,” विनय का स्वर कहीं दूर से आता हुआ लगा। तरुण की तरफ़ देखे बिना वह बेडरूम में चला गया।
तरुण ने स्टोव पर पानी रखा और फिर से टीवी के आगे जम गया। थोड़े समय के बाद विनय भी टीवी के सामने सोफ़े पर आ बैठा। उदासी के बादल अभी भी छाये थे। वातावरण अभी भी गंभीर था। तरुण ने फिर से प्रयास किया, “बीबीसी न्यूज़ लगाऊँ क्या?”
“नहीं रहने दे, जो तू देख रहा है वही देख लेते हैं।”
तरुण को लगा कि आज यह उदासी के बादल आसानी से नहीं छँटने वाले। वर्ना उसके पापा तो कभी भी, किसी भी समय समाचार देखने या पढ़ने से इंकार नहीं करते। मम्मी भी प्रायः खीज उठती थी पापा की इस आदत पर, “सुबह से शाम तक वही ख़बर न जाने कितनी बार सुनते हो। क्या आवश्यकता है? क्या एक बार में समझ नहीं आता?” मीरा की खीज का अन्त सदा ही एक आक्षेप के साथ होता था। विनय कभी उसे सह जाता और कभी-कभी भड़क उठता। फिर वही बहस या फिर वही झगड़ा।
मीरा की खीज का मूल उसकी कुंठा थी। उसकी पूरी न हुई अपेक्षाओं की कुंठा! जो विवाहित जीवन के असम्भव, अव्यवहारिक सपने मीरा ने बचपन से देखे थे, वही अब विनय के जीवन में एक काँटे की तरह चुभते थे। दोनों में झगड़े का कोई भी कारण नहीं था। न ससुराल की दख़लन्दाज़ी, न पैसे की समस्या। न पति का अनुचित व्यवहार या पत्नी का फूहड़पन। कुछ भी तो कारण नहीं था। विदेश में दोनों का एक छोटा सा घर और दोनों का बाँधता उनका प्रेम-सूत्र - तरुण।
विवाह के लिए जब विनय भारत लौटा था तो उसने अपने माता-पिता को कह दिया था कि वह किसी स्वतन्त्र विचारों वाली लड़की से ही शादी करेगा। वह ऐसी पत्नी चाहता था जो उसके बराबर क़दम मिला कर चले न कि एक क़दम पीछे। मीरा ठीक वैसी ही थी। विनय के चाचा ने उसे कॉलेज में पढ़ाया था। सब कुछ जानते थे मीरा के विषय में। दबी ज़ुबान में उन्होंने कहा भी था अपने बड़े भाई को, “भाई साहिब, लड़की में सभी गुण हैं जो कि हमारे परिवार की बहू में होने चाहियें, पर एक ही बात खलती है कि मेरे से बहसती बहुत है।”
विनय के पिता ने हँस के अपने छोटे भाई की चेतावनी को टाल दिया था, “बता तेरे से बहसता कौन नहीं? एम.ए. की छात्रा है; जब विषय पर बातचीत होगी तो यह अवश्य नहीं कि जो किताब में लिखा है सभी उससे सहमत हों। यह बहस मीरा की बुद्धिमत्ता का लक्षण है।”
चाचा ने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा और चुप्पी धार कर इस सम्बन्ध को अपनी स्वीकृति दे दी।
विवाह के कुछ सप्ताह के बाद विनय वापिस लौट आया और मीरा को भारत में अपने ससुराल में ही रहना पड़ा। यहाँ आते ही विनय मीरा के प्रवास सम्बन्धी और अपने काम में व्यस्त हो गया। मीरा का ससुराल में रहना एक तरह से अच्छा ही था। हर पत्र में विनय की माँ अपनी बहू की प्रशंसा करते नहीं अघाती थीं। “बहू बहुत ही समझदार है। आज उसने यह पकाया, आज वह हमें यहाँ ले गई, आज वह आग्रह कर तुम्हारे पिता को डाक्टर के पास ले गई। तुम तो जानते ही हो कि तुम्हारे पिता अपने स्वास्थ्य के विषय में कितने लापरवाह हैं. . .” इत्यादि। यह सब पढ़ कर विनय को अच्छा लगता और मीरा के प्रति प्रेम उमड़ आता। लगता कि कुछ ही समय में मीरा ने कैसे इस नए परिवार को बिल्कुल अपना परिवार ही स्वीकार कर लिया है। उसे लगा कि सच में ही मीरा उसकी जीवन-साथी है। मीरा की प्रवास सम्बन्धी सरकारी कार्यवाही को जितना समय लगना था सो लगा। यह समय विनय के लिए बहुत भारी था। अन्त में मीरा यहाँ आ ही गई।
मीरा की कार्यनिपुणता हर क्षेत्र में स्पष्ट थी। नये देश में नये परिवेश के अनुसार स्वयं को ढालने में कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई। पहले दिन से ही मीरा ने विनय को बिना कुछ कहे ही स्पष्ट कर दिया था कि अब से विनय का अपार्टमेण्ट मीरा का है - विनय को, अब से मीरा की अनुमति के बिना, कुछ भी करने की स्वतन्त्रता नहीं है। मीरा ने पूरे अपार्टमेण्ट की व्यवस्था बदल डाली। सभी चीज़ें सलीक़े से टिकाईं। रसोईघर में ऊपर से लेकर नीचे तक सफ़ाई की। अजीब दृश्य था वह भी! सिर पर स्कार्फ़ बाँधे, धोती के पल्लू को कमर में खोंसे मीरा सफ़ई करते हुए लगातार बोलती जा रही थी। धाराप्रवाह विनय को नये तौर-तरीक़े सिखाये जा रहे थे, चेतावनियाँ दी जा रहीं थीं। पर विनय को बुरा कुछ भी नहीं लग रहा था। वह तो बस मीरा को ही देखे जा रहा था। उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कुराहट देख मीरा अचानक सब कुछ छोड़ कर खड़ी हो गई, “क्या है? ऐसे क्यों देख रहे हो?”
“वैसे ही. . . यह स्कार्फ़ क्यों बाँध रखा है सिर पर?”
“आदत है. . . ऐसे ही सफ़ाई करती हूँ?”
“क्या धूल उड़ रही है यहाँ पर? अच्छा नहीं लगता यह स्कार्फ़? बिल्कुल ‘मेड’ लगती हो।”
“तुम्हें क्या अच्छा लगता है क्या अच्छा नहीं लगता, इस समय मुझे सोचने सुनने की फ़ुर्सत नहीं है। दूर बैठे यूँ ही फबतियाँ कसने की बजाय थोड़ा हाथ बँटाओ।”
“क्या करूँ. . . मेरे मुताबिक़ तो सब कुछ ठीक ही था। यह छेड़खानी तुम्हीं ने शुरू की थी तो तुम्हीं निपटाओ,” विनय ने अपना पल्ला झाड़ना चाहा। पर वह अभी तक मीरा को जान नहीं पाया था। मीरा कहाँ उसे इतनी आसानी से बचने दे सकती थी। विनय को न चाहते हुए भी मीरा का हाथ बँटाना पड़ा। काम करने में तो विनय को कोई समस्या नहीं थी; परन्तु काम करते हुए निरन्तर मीरा का भाषण सुनने में उसे परेशानी अवश्य थी। मीरा बार-बार कहे जा रही थी - “अब से मेरे घर में ऐसे नहीं चलेगा। सलीक़े से रहना होगा।” विनय को रह-रहकर अपने पापा की बात याद आ रही थी। वह अक्सर कहा करते थे कि बेटे याद रखना अगर घर में शान्ति चाहते हो तो यह समझ लो “घर - घरवाली का होता है। आदमी तो उसकी दया पर ही उसमें रह पाता है।” आज उनकी हँसी-मज़ाक में कही बात उसे इस समय जीवन का निचोड़ प्रतीत हो रही थी।
धीरे-धीरे समय बीतता गया। मीरा का व्यक्तित्व एक पुस्तक की तरह, हर रोज़ एक नये पन्ने की तरह खुलता। नये देश में फिर से नया जीवन शुरू करने की समस्यायें। अपनी शिक्षा को फिर से नई मान्यता दिलवाओ, नये वातावरण में जीने का नया सलीक़ा, नये समाज के नये नियम; बहुत सी बातें मीरा को परेशान करतीं। बहुतों को तो वह हँस कर स्वीकार कर लेती पर जहाँ किसी दूसरे के बनाये नियमों का प्रश्न उठता, वहाँ उसका स्वतन्त्र व्यक्तिव बग़ावत कर उठता। जहाँ वह बाहर वालों के साथ झगड़ नहीं सकती थी वहाँ विनय की शामत आ जाती। मीरा को एक ऑफ़िस में अच्छी नौकरी मिल गई। उसने अपनी कार भी ख़रीद ली। विनय परिवार शुरू करना चाहता था. . . चाहता था कि उनके भी कोई सन्तान हो। परन्तु मीरा को अभी बहुत कुछ देखने लेने की शीघ्रता थी, अभी उसने बहुत कुछ करना था। अन्त में प्रकृति व्यक्तित्व से जीत गई और एक दिन मीरा भी माँ बन गई।
वही मीरा, जो किसी भी हालत में औलाद के जंजाल में फँसना नहीं चाहती थी, पुत्र के गर्भ में आते ही बदल गई। अब आने वाला ही उसके जीवन का केन्द्र बन गया। विनय तो अब पराया हो गया था। बस एक आवश्यकता। जो समय आने पर सहायता कर सकता था। उसका भी इस बच्चे के सम्बन्ध है, इसकी मान्यता मीरा नहीं देती थी।
“मैं इसे पेट में पाल रही हूँ - बस यह मेरा है।” कह कर मीरा मुस्कुरा देती।
विनय ने भी एक दिन हँस कर कह ही दिया- “क्या मायके से लेकर आई हो? मेरा भी तो कुछ योगदान है?”
“तुम्हें क्या मालूम. . . हो सकता है न भी हो।” मीरा के होंठों पर रहस्यमयी शरारती मुस्कुराहट थी। विनय हँस कर बात टाल गया। क्योंकि वह अब तक जान चुका था कि मीरा बहस में कभी भी अपनी हार स्वीकार नहीं करती थी।
तरुण के पैदा होते ही दोनों की दिनचर्या, बस तरुण की दिनचर्या पर ही निर्भर थी। जब वह सोता तो दोनों सोते, वह जागता तो वह दोनों जागते। विनय को अच्छी तरह से याद है कि अभी तरुण कुछ सप्ताह का ही था कि एक दिन मीरा ने रात को उसे विनय की छाती पर रख कर कहा था - “आज से यह तुम्हारा है, तुम्हीं सँभालो। मैं तो थक गई।”
“मैं कब इनकार करता हूँ। तुम मुझे कुछ करने तो दो। यह हम दोनों का है और हम दोनों ही मिल कर इसे पालेंगे। यह कोई तुम्हारी बचपन की गुड़िया नहीं कि जब जैसा चाहा खेला और जब मन भर गया तो उठा कर रख दिया,” विनय ने समझाने की चेष्टा की।
“बस मेरे से नहीं होता अब और! इन्सान बच्चे पैदा ही क्यों करता है?” मीरा हताश थी।
“मीरा इसी को ‘पोस्टपार्टम सिन्ड्रम’ कहते हैं। यह निराशा बच्चा पैदा होने के कुछ समय के बाद माँ में आ जाना स्वाभाविक है। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। यूँ ही अपना मन ख़राब न करो।”
और ऐसे ही तरुण समय के साथ घर में भागने-दौड़ने लगा। तरुण की हर नई उपलब्धि से मीरा ख़ुश होती परन्तु किसी भी क्षेत्र में तरुण की असफलता वह सह नहीं पाती। उसका बच्चा कभी भी, किसी समय भी, कहीं भी सर्वश्रेष्ठ ही होना चाहिए। इसके लिए मीरा स्वयं तो परिश्रम करती, परन्तु विनय और तरुण को भी समय मिलते ही भाषण देती रहती। बस यह भाषण ही अब विनय की सहनशक्ति से बाहर हो चुके थे। तरुण की अवस्था आठ वर्ष की रही होगी जिस दिन उसने पहली बार अपनी माँ के आगे पहला विद्रोह किया था।
तरुण को अपने स्कूल की पढ़ाई के साथ तैरना, पियानो सीखने जाना पड़ता। बेसबाल की टीम में खेलना उसे स्वयं अच्छा लगता था। जब उसकी माँ ने उसे ‘जैज डांस‘ की कक्षा में भरती करवाना चाहा तो वह बालक विद्रोह कर उठा था। “लड़के डांस नहीं सीखते” उसके बालमन की धारणा थी। ज़िद्दीपन में उसमें भी अपनी माँ का अंश था। अब दोनों माँ बेटे का माथा कई दिनों तक भिड़ा रहा। मीरा पीछे नहीं हटना चाहती थी और बेटा आगे बढ़ना नहीं चाहता था। माँ डाँटती तो तरुण ज़ोर-ज़ोर से रोता। माँ प्यार से मनाती तो तरुण बहसता। माँ प्रलोभन देती तो बेटा उनके लिए ज़िद्द शुरू कर देता पर डाँस सीखने के नाम पर उन्हें भी त्याग देता। मीरा अगर उसके साथ बोलना बंद करती तो तरुण भी उसकी तरफ पीठ करके बैठ जाता और खाने के लिए भी बड़ी कठिनाई से अपने कमरे से बाहर आता।
विनय कई दिन तो यह तमाशा देखता रहा। वह जानता था कि अगर उसने इस विषय में कुछ भी कहा तो सारा दोष उसीके माथे मढ़ा जाएगा। पर आख़िर कब तक चुप रह पाता। एक दिन उसने मीरा को समझाने की चेष्टा की-
“देखो मीरा, तरुण की बात समझने की कोशिश तो करो।”
“हाँ. . . हाँ अब तुम भी मुझे ही समझाओ! इस बिगड़े हुए बच्चे को कुछ भी न कहो,” मीरा की तड़पन उभर कर बाहर आने लगी।
“बिगड़ा हुआ कहाँ है। आठ साल का तो है। और फिर उसे कितना व्यस्त कर दिया है हम दोनों ने। दो शामें उसकी तैरना सीखने में लग जाती हैं। दो दिन बेसबाल में तो एक पयानो में। ऊपर से स्कूल का काम! अब तुम उसके बचे-खुचे समय में डाँस की कक्षा में भरती करवाना चाहती हो तो उस बेचारे पर कितना भार हो जाएगा।”
“यही तो समय है कुछ सीखने का। हम सीखना चाहते थे तो सीखने की सुविधायें नहीं थी या सामर्थ्य नहीं था। इसको अब सब मिल रहा है तो जनाब सीखना नहीं चाहते,” मीरा ने विनय की बात अनसुनी करके फिर अपना पुराना राग अलापना आरम्भ कर दिया। विनय ने फिर से चेष्टा की-
“मीरा मेरी बात सुन रही हो क्या? कभी-कभी माँ-बाप को बच्चे की बात भी माननी पड़ती है; चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो।”
बस विनय का यह कहना था कि मीरा एक ज्वालामुखी तरह फट पड़ी। मीरा और कोई उसे कोई हार स्वीकार करने की बात कहे!
“तुम्हीं ने तरुण को सिर चढ़ा रखा है। मैं तो उसे एक दिन में ठीक करके रख दूँ। बस तुम्हीं आड़े आते हो। तुम्हारी शह पर ही तो वह मेरे सामने बोलता है। तुम उसे डाँटने की बजाय हँसते हो. . .” और भी मीरा न जाने क्या-क्या बोलती रही थी। विनय जानता था कि आज सारा दिन यह सब कुछ सुनना ही पड़ेगा। बस यही रास्ता था इस गतिरोध को तोड़ने का जो कि इस परिवार की दिनचर्या में डाँस के कारण आ गया था। ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिए बलि का बकरा बनने की अब उसे आदत हो चुकी थी।
तरुण बड़ा होता गया। स्वतन्त्र व्यक्तित्व उसे अपनी माँ से मिला था। वह किसी पर भी भार नहीं था। अपने कपड़े स्वयं धोता, इस्तरी करता और अपनी मर्ज़ी से ख़रीदता। हालाँकि मीरा को बहुत परेशानी होती तरुण की स्वतन्त्रता से पर वह भी जान चुकी थी; माँ-बेटा दोनों एक ही मिट्टी के बने हैं।
और फिर एक दिन उनके जीवन में एक और चरित्र उभरने लगा। जैनी - मीरा की सहेली। हर बात पर मीरा जैनी के उदाहरण देती। जब वह किसी बात पर उखड़ती - जो कि प्रायः होता, जैनी की बात से ही शुरू होकर जैनी पर ही अन्त होता। मीरा के अनुसार जैनी का जीवन एक आदर्श जीवन था। जब चाहती, जहाँ चाहती जैनी अपना ‘बैकपैक’ उठा कर चल देती। कोई उससे प्रश्न करने वाला नहीं था। कोई बन्धन नहीं था। पूर्ण स्वतन्त्रता. . . यही मीरा चाहती थी। पति और बेटा तो समय की आवश्यकता थी। उन दोनों से ही उसका मन अब ऊब चुका था। दोनों ही उसे बन्धन लगने लगे थे। मन ही मन विनय भी जैनी से ईर्ष्या करने लगा था। उसका नाम सुनते ही जल-भुन जाता। एक दिन उसने मीरा को समझाने की ग़लती कर दी।
“मीरा, हम भारतीय इन लोगों का अनुसरण नहीं कर सकते। इनकी कोई मूल नहीं, बिन-पैंदे के लौटे होते हैं ये लोग। जैनी भी तो उन्हीं में से है। कभी उसके मुँह से उसके माँ-बाप की बात सुनी है। न जाने कैसा चरित्र होगा उसका जो तुम जानती भी नहीं होगी।”
मीरा आगबबूला हो उठी- “कितनी ओछी बात कह दी तुमने सहजता से! क्या तुम उसको जानते भी हो? बिना जाने ही चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हो! तुम तो यह भी नहीं जानते कि कितनी धार्मिक विचारों वाली है - बौद्ध है - कई वर्ष पैगोडा में ही रह चुकी है। शुद्ध शाकाहारी है- पीती तक नहीं वो! और तुम उसके चरित्र की बात कर रहे हो!”
विनय भी भड़क उठा था, “तुम उसको इतने ऊँचे आसन पर क्यों बैठाती हो। बौद्ध होने से या शाकाहारी होने से कोई आदर्श इन्सान तो नहीं हो जाता। उसके आगे-पीछे भी कोई है क्या? अपने सात वर्ष छोटे प्रेमी के साथ रह रही है वो। वो क्या जाने परिवार की क्या मर्यादा होती है? कोई औलाद नहीं है उसके -क्या वह जानती है कि बच्चे का मोह क्या होता है? उसके प्रति माँ का क्या दायित्त्व होता है? बस तलाक़ देने बाद एक प्रेमी रख लिया और जब चाहा वह भी बदल डाला! तुम इसी जैनी को चरित्रवान कहती हो! उन लोगों की ‘चरित्रवान’ की परिभाषा हमारी तो नहीं हो सकती।”
मीरा और नहीं सुन सकी जैनी के विषय में। बस उठ कर चल दी कमरे से। दरवाज़े पर खड़े होकर पलट कर देखा उसने विनय की तरफ़। विनय ने ऐसी घृणा के भाव आज तक मीरा के चेहरे पर नहीं देखे थे। अपने पति के प्रति घृणा. . . अपने पुत्र के प्रति घृणा. . . अपने मूल. . . अपने अस्तित्व के प्रति घृणा!
“शायद मुझे भी तलाक़शुदा और जैनी की तरह ही चरित्रहीन जीवन चाहिए!”
मीरा के स्वर में ऐसी ठंडक थी कि विनय की अन्तर्रात्मा काँप उठी। आने वाले समय के घटनाक्रम के सन्देह से वह भयभीत हो गया। हुआ भी वही। अगले दिन जब तरुण और विनय घर लौटे मीरा जा चुकी थी। उसी शाम को मीरा का फोन आ गया कि वह जैनी के साथ रहेगी और शीघ्र ही तलाक़ भी ले लेगी। मीरा के स्वर में इतना परायापन था कि विनय उसे कुछ भी समझाने का साहस नहीं कर पाया।
और फिर तलाक़ भी हो गया। तरुण ने पिता के साथ रहना चुना। मीरा अब पूर्ण रूप से स्वतन्त्र थी। अपने मन की हर इच्छा को बिना झिझक या अपराध-बोध के पूरा कर रही थी या बस विनय ही यह सोचता था। विनय तो मीरा के जीवन से निकल चुका था पर मीरा के जीवन से तरुण नहीं निकल पाया था। दूरी होते ही, सन्तान के प्रति जो दायित्त्व उसे बुरे लगते थे वहीं उनका न होना उसे सताने लगा था।
तरुण अब तक रसोईघर में चाय बना चुका था। उसने वहीं से आवाज़ दी -
“पापा, टीवी के सामने पियेंगे या टेबल पर?”
बेटे के प्रश्न से विनय की विचार तन्द्रा टूटी -
“टेबल पर ही रख दो। वहीं आता हूँ।”
विनय ने टीवी बन्द किया और टेबल पर बैठ चाय के कप के कोनों पर उँगली फेरने लगा। चाय की उष्णता उसे अच्छी लग रही थी। कितने ठंडे हो गए थे उसके हाथ-पाँव। मीरा का उसके जीवन से जाना कितना खालीपन भर गया था। मीरा का प्यार, खीझ, डाँट, कुण्ठाएँ, ज़िद्दीपन, शरारत और स्वतन्त्र व्यक्तित्व. . . सभी कुछ. . .। मीरा यहाँ होती तो. . .
“पापा, साथ में कुछ लेंगे क्या?"
“नहीं बस चाय ही ठीक है। अभी थोड़ी देर में खाना क्या पकाना है. . . सोचेंगे।”
“मुझे तो भूख नहीं है। मैं तो नहीं खाऊँगा।”
“क्यों?” विनय ने विस्मय से तरुण को देखते हुए पूछा।
“मम्मी चाईनीज़ नूडल बना के लाईं थीं,” तरुण ने मुस्कुराते हुए कहा।
“अच्छा! आख़िर तुम तो उसके बेटे हो. . . यह सम्बन्ध तो कोई भी नहीं तोड़ सकता। बस मैं ही पराया हो गया,” विनय के स्वर में उसके वियोग की पीड़ा की झलक थी।
“नहीं पापा आप लिए भी बनाके लाईं हैं मम्मी! फ्रिज में रखे हैं।”
विनय फिर से स्मृतियों में खो गया।
“तुम्हें किसी दिन छोड़ जाऊँगी। और तुम्हारे सामने वाले अपार्टमेण्ट में ही रहूँगी।”
“ऐसा क्यों?”
“तुम्हारा और तरुण का खाना कौन बनाएगा?”
“अगर इतनी ही चिन्ता करती हो तो जाओगी ही क्यों?”
“स्वतन्त्रता के लिए. . . बस खाना बनाने तक ही सम्बन्ध रहेगा. . . बस!”
मीरा के यह बेतुके तर्क विनय की समझ से बाहर थे। चाय के कप में विनय यूँ झाँक रहा था मानो अपनी परछाईं में मीरा का चेहरा देखना चाहता हो।
उफ़्फ़ यह ख़ुशबू . . .। सुगन्ध और स्मृतियाँ. . . कितना चोली-दामन का साथ है। मीरा जब भी परफ़्यूम लगाती तो विनय टोकता, “बाल्टी भर के क्यों उड़ेल लेती हो। मेरे नाक से पानी बहने लगता है।”
“मेरी तो हर चीज़ तुम्हें बुरी लगती है।” मीरा कहती और फिर से झगड़ा शुरू हो जाता।
आज वही ख़ुशबू विनय अपने अन्तर तक सोख लेना चाहता था। चाय पी चुका था। मेज़ से उठते हुए उसने लम्बी साँस ली।
“अगली बार मम्मी से बात हो तो कहना कि आती रहे अच्छा लगता है।”
1 टिप्पणियाँ
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मुझे 'उसकी खुशबू ' नामक यह कहानी बहुत अच्छी लगी | सुन्दर कथानक, भावपूर्ण अभिव्यक्ति के साथ कहानी में उत्सुकता बराबर बनी रहती है | कहानी लम्बी तो है पर अनावश्यक विस्तार कहीं भी नहीं है | ऎसी सुन्दर कहानी की रचना के लिए सुमनजी आप बधाई के पात्र हैं | -आशा बर्मन
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- हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? भाग - ३
- हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? भाग - ४
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