थप्पड़

01-02-2020

थप्पड़

सुमन कुमार घई (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

जैसे ही सूर्य की किरणों ने मलिक ठेकेदार के चेहरे पर अपने प्रकाश का पहला प्रहार किया वह सदा कि तरह बौखलाया सा जाग उठा। उसे देर तक सोने की आदत थी। अक्सर वह नशे से धुत्त होकर घर लौटता और आते ही अपनी सुन्दर कोमल सी पत्नी पर रौब झाड़ते टूट पड़ता। पेट तो उसका पहले से ही दारू के साथ मछली के पकौड़े खाने से भरा होता था, परन्तु घर पहुँच कर पत्नी को रसोई में व्यस्त कर देना उसका धर्म सा बन चुका था। कोई भी समय हो, रात कितनी भी बीत चुकी हो या उसकी पत्नी- मालती सारी रसोई सँभाल कर लेट चुकी हो, सर्दी हो या गर्मी, मलिक ठेकेदार को फिर से रसोई में ताज़ा पका कुछ न कुछ खाने को चाहिए, बस यही उसका कर्म था। मालती को भी अच्छी तरह से मालूम था कि उसे उठना तो पड़ेगा ही। न उठने के परिणाम पहले ही कई बार भुगत चुकी थी। मलिक ठेकेदार के लिए धर्मपत्नी पर हाथ उठाना उसकी मर्दानगी का प्रमाण व उसके पति होने का अधिकार मात्र था और वह किसी भी अवसर पर अपने इस अधिकार को खोता नहीं था। फिर अगर उसकी पत्नी उसकी सेवा करने का पत्नीधर्म न निभाए तो उसका अपने पति के हाथों पिटना, मलिक ठेकेदार के सिद्धांतों के अनुसार उचित और उपयुक्त दोनों ही था। वह कोमलांगी अर्द्धांगिनी प्राय: यह मार चुपचाप सह जाती। हालाँकि “चौधरी के हाते” के सभी परिवारों को इस अन्याय का ज्ञान था परन्तु मलिक ठेकेदार को कोई टोके, यह साहस किसी में भी नहीं था।

मलिक ठेकेदार ने करवट बदली और चादर से मुँह ढाँप लिया। पर अब तक नींद तो उसकी उखड़ ही चुकी थी। पड़ोसन मौसी के रेडियो पर भजन भी कुछ ऊँची ही आवाज़ में बज रहे थे। कुछ देर तो वह ऐसे ही लेटा रहा परन्तु अचानक उसे लगा कि कुछ असाधारण सा अवश्य है इस सुबह में। कुछ पल वह चौकन्ने कुत्ते की तरह सोचता रहा और उसके कानों में आने वाली हर ध्वनि का विश्लेषण करता रहा। आँख तो वो खोलना ही नहीं चाहता था। कल रात के नशे के कारण प्रकाश और स्वर दोनों ही तीखे लग रहे थे। उसने अपने मस्तिष्क पर लगे मकड़ी के जालों को उतारते हुए सोचना प्रारम्भ किया। मौसी का रेडियो चल रहा है, यह तो सामान्य है। सामने वाली भी हमेशा सुबह ही आँगन में कपड़ों को धोते हुए ज़ोर-ज़ोर से बोल रही है। बरामदे में “चौधरी के हाते” के बच्चे भी भाग-दौड़ कर रहे हैं। तो फिर उसका मन क्यों कहता है कि कुछ ठीक नहीं है? उसने मालती को आवाज़ दी पर उधर से कोई उत्तर नहीं आया। मलिक ठेकेदार एकदम अपनी कोहनियों के बल आधा उठ गया। इस बार उसने फिर ज़रा ज़ोर से मालती को पुकारा-

“मालती!” कोई उत्तर नहीं। अब तक मलिक ठेकेदार का पारा चढ़ने लग गया था, क्योंकि उसके पारे को ऊपर चढ़ने के लिए अधिक तापमान की आवश्यकता नहीं थी। खाट से उठते हुए और अपने पैरों से अपनी चप्पल टटोलते हुए मलिक बुदबुदा रहा था- “न जाने यह बहरी मेरी आवाज़ क्यों नहीं सुन रही है। अभी बताता हूँ इस हराम....।” अचानक उसका बुदबुदाना वहीं पर थम गया। उसने फिर से गर्दन उकड़ूँ करके और अपने कान उठा कर रसोई की तरफ़ देखा। उधर से कोई भी आवाज़ नहीं आ रही थी। न बर्तन मलने की और न ही नाश्ता बनाने की।

मलिक ने अपने मन को तसल्ली दी कि शायद मालती दूध या डबलरोटी लेने के लिए नुक्कड़ तक गयी होगी। वह कुछ आश्वस्त सा होकर अपनी लुंगी सँभालता हुआ कमरे से निकल कर बाहर बरामदे में आ गया। उसने देखा सभी कुछ तो सामान्य था “चौधरी के हाते” में। सामने वाली आँगन के बीचों-बीच लगे हैंड-पम्प पर बैठी कपड़े धो रही थी। पड़ोसन मौसी नाश्ता करने के बाद, पूजा करते हुए, रेडियो पर भजन सुन रही थी। बच्चे भाग-दौड़ कर रहे थे। उसकी दूसरी तरफ़ के पड़ोसी, इंजीनियर कुँवारे अपनी नौकरी पर जा चुके थे। यानी कि “चौधरी के हाते” का जन-जीवन सामान्य गति से ही चल रहा था, बस मालती यहाँ तक दूध या डबलरोटी ही लेने गयी थी। सब कुछ ठीक ही था। 

उसने एक लम्बी साँस भरी और फिर से लेटने के लिए चारपाई की तरफ़ चल दिया। पड़ोसन मौसी ने पूजा करते-करते एक आँख खोल कर मलिक की पीठ को देखा और मुस्कुरा दी। कपड़े धोती हुई पड़ोसन ने कपड़ों को पछाड़ना रोक दिया और गर्दन उठा कर मलिक को देखने लगी। सामने के बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे पण्डित जी ने भी उधर ही दृष्टिपात किया। इन सबको मलिक ने देखा तो नहीं पर न जाने उसे लगा कि उसकी पीठ में कुछ सुइयाँ सी चुभ रही हैं। 

“ना...कुछ भी तो नहीं है। मेरा वहम ही है। शायद मुझे कुछ थोड़ी ही पीनी चाहिए,” अपने आप से बातें करता हुआ फिर से वह अपनी चारपाई पर आ बैठा और रात के नशे के विषय में सोच कर पुन: उसका आनन्द लेने लगा। “चौधरी के हाते” के परिवार भी अपनी साँस रोक कर इस नाटक के अगले दृश्य की प्रतीक्षा करने लगे।

 

चौधरी साहब ने जब यह घर बनाना शुरू किया तो उन्होंने किसी से भी घर का नक़्शा बनवाने की चेष्टा तक नहीं की थी। बस दो “पोर्शन” ही बनवाये। बगल-बगल में दो कमरे और दो कमरों के साथ दो रसोइयाँ और स्नानघर। सब एक ही सीध में और किराये पर चढ़ा दिये। चौधरी के पास जैसे-जैसे पैसे आते गए वह ऐसे ही “पोर्शन” जोड़ता चला गया। करते-करते बीच में आँगन बन गया और चारों तरफ़ बरामदा। किरायेदार आकर बसते चले गये। छोटा सा क़स्बा था कुछ वर्ष पूर्व तक, परन्तु दिल्ली की निकटता के कारण क़स्बे को शहर में बदलते हुए देर नहीं लगी थी। जैसे-जैसे क़स्बा शहर में बदलता गया तैसे-तैसे चौधरी का घर बढ़ता चला गया। पहले-पहल तो लोग इसे चौधरी के आहाते के नाम से पुकारते थे परन्तु अब यह केवल “चौधरी का हाता” बन कर रह गया था।

 

मलिक को प्रतीक्षा करते करते लगभग बीस मिनट हो चुके थे और मालती का कोई नामो-निशान नहीं। इतनी देर तो नहीं लगती दूध लाने में। वैसे तो दूधवाला घर पर ही दूध देकर जाता है परन्तु अगर गर्मी के कारण दूध फट जाए तो उसकी “डेरी” तक भागना पड़ता है। शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा - मलिक ने सोचा और अपने चढ़ते हुए पारे को नीचा किया। मन शांत होते ही मलिक फिर से लेट गया। 

छत पर लटका पंखा घर्र-घर्र की आवाज़ से चल रहा था। यह पंखा कभी भी अपनी पूरी गति पर नहीं चलाया जाता था। अगर तेज़ चलाया जाता है तो असंतुलित होने के कारण बुरी तरह से डोलने लगता। मलिक ने सोचा कि कितनी समानता है इस पंखे की गति में और उसकी गृहस्थी में। वह पूर्ण गति से चल कर समाज के उच्च स्तर के लोगों में मिल जाना चाहता है। परन्तु यह मालती तो उसके गले से लटका एक पत्थर या उसके पाँवों की बेड़ी की तरह है। न ढंग का पहनना और न ढंग से उठना-बैठना। वही गँवार की गँवार...। मलिक फिर से खीज उठा। 

“कहाँ मर गई यह औरत। अभी तक लौटी नहीं।” - बुड़बुड़ाता हुआ मलिक उठ कर फिर से बरामदे में आ खड़ा हुआ।

पड़ोसन मौसी अपनी पूजा समाप्त कर चुकी थीं। रेडियो पर भजन अब भी चल रहे थे। मौसी ने अपनी रसोई में बैठे-बैठे गर्दन उठा कर मलिक को बरामदे में दरवाज़े पर खड़ा देखा और फिर से अपने काम में व्यस्त हो गयी। सामने पण्डित जी अभी भी अखबार पढ़ रहे थे उन्होंने भी समाचार पत्र के ऊपर से मलिक को देखा और फिर से समाचारपत्र के पीछे ओझल हो गए। सामने वाली अभी भी कपड़े ही धो रही थी। वह मलिक को देख कर मुस्कुरा दी। मलिक ने अपनी आँखें नीचे कर लीं। वह किसी के भी मुँह नहीं लगना चाहता था। परेशानी से उद्वेलित मलिक कभी आहाते के फाटक की दिशा में झाँकता तो कभी रसोई की खुले दरवाज़े की ओर। लाचार सा वह फिर से कमरे में आकर खाट पर लेट गया।

 

मालती से उसका विवाह हुए लगभग तीन वर्ष हो चुके हैं। मालती देखने में बहुत सुन्दर लगने वाली सुघड़ महिला है परन्तु मलिक न जाने क्यों उसमें सदा ही दोष देखता रहता है। सम्भवत: अपने दोषों पर पर्दा डालने के लिए मालती एक बहाना बन कर रह गई है। चौधरी के आहाते में रहने वाले सभी लोगों के साथ मालती के अच्छे सम्बन्ध हैं पर मलिक किसी से भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। उसकी दृष्टि में वह उन सबसे बेहतर है! यह तो कुछ समय का ही फेर है कि उसकी आर्थिक स्थिति उसकी मानसिक अलग स्तर पर चल रही है। वह तो शहर के दूसरी तरफ़ नई बनी कोठियों में रहना चाहता है, जहाँ ठेकेदारी के चक्कर में उसका आना जाना लगा रहता है। कई सपने देख डाले हैं उसने, पर यह मालती - उसकी बेड़ी, पीछा भी नहीं छूटता इस गँवार से - यह सोचते सोचते मलिक फिर से बौखला कर खाट पर उठ बैठा।

शादी के कुछ महीनों के बाद ही मलिक मालती पर, उसकी हरकतों पर खीजने लगा था। मालती एक बहुत ही सादे परिवार से आई थी, जिसमें लड़कियों को बहुत दबा कर रखा जाता था। न ठीक से पहनने दिया जाता था न ठीक से खाने दिया जाता था, बाहर स्वतन्त्रता से घूमने-फिरने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता था। ऐसे परिवार में पली-बढ़ी नवयुवती को अचानक परिवार से दूर के शहर में विवाह के तुरन्त बाद अलग से रहना पड़े और उससे उम्मीद रखी जाए कि वह गृहस्थी को सहजता से सँभाल पायेगी, मूर्खता ही होगी। परन्तु मलिक उन्हीं में से था जो सोचता कि पत्नी के रूप वेदों के अनुसार “माँ से लेकर अप्सरा तक” जैसा लिखा था, वैसे ही होने चाहिएँ। मालती को घर-गृहस्थी, किसी की भी समझ नहीं थी। मलिक अक्सर उस पर चीखता-चिल्लाता। “चौधरी के हाते” में कुछ भी गुप्त रह पाना कठिन था। जितनी पतली दीवारें थी उससे भी पतले लोगों के कान थे। रसोई में बर्तनों की खटपट से लेकर चारपाई की चरमराहट तक की ख़बर सभी को रहती। पड़ोसन मौसी भी निरह मालती की अवस्था देखती और ममता, दया से भर उठती।

फिर एक दिन उसने मलिक के चले जाने का बाद आकर मालती को सहारा दिया। मालती फूट-फूट कर रो पड़ी। इस अजनबी शहर में आख़िर कोई तो मिला उसका दर्द बाँटने वाला। मौसी ने भी उसे पुत्री की तरह घर-गृहस्थी की शिक्षा देनी आरम्भ कर दी।

मलिक का जीवन भी कुछ सुगम होने लगा था। समय पर धुले इस्तरी किए हुए कपड़े मिलते, शाम को घर आते ही चाय और ढंग का खाना मिलता। यह जानते हुए भी कि यह सब पड़ोसन मौसी की शिक्षा का परिणाम है, मलिक को मालती का मौसी से मिलना-जुलना पसन्द नहीं था। अजीबी शक्की आदमी था। सदा यही सोचता रहता कि मालती उसकी पीठ के पीछे न जाने क्या-क्या मौसी को उसकी बातें बताती रहती होगी। धीरे-धीरे यह शक क्रोध का रूप लेने लगा। मौसी को वैसे ही मलिक की हरकतें, उसकी शादी के पहले से ही पसन्द नहीं थीं। दोनों ने ही अपने निजी वैमनस्य का हथियार मालती को बना लिया। मलिक मालती पर मौसी के साथ मिलने-जुलने के लिए बरसता तो उधर मौसी मलिक से बदला लेने के लिए मालती को उकसाती, भड़काती रहती। “चौधरी के हाते” के अन्य परिवार या कुँवारे इस नित की उठा-पटक को मनोरंजन के रूप में देखते।

 

मलिक ने पुन: शराब पीकर देर से आना आरम्भ कर दिया। उसके लिए शादी पुरानी हो चुकी थी, सो जीवन का सामान्य गति पर आ जाना उसे तर्कसंगत ही लगता था या अपनी रुचियों की संगत बिठाने के लिए तर्क ढूँढ़ ही लेता। देर से यारों-दोस्तों के साथ बैठ कर दारू पीकर घर लौटना रोज़ का काम बन गया। मलिक को घर आते ही मालती और मौसी के सम्बन्ध अखरने लगते और ढंग-ढंग के बहाने ढूँढ़ कर मलिक मालती पर बरस पड़ता। धीरे-धीरे मालती ने भी अन्य पति-पीड़ित पत्नियों की तरह जीवन से समाझौता करना आरम्भ कर दिया। पहले की तरह अब वह मलिक से डाँट-फटकार खा कर रोती नहीं थी। मलिक की मार से बचने के ढंग भी वह धीरे-धीरे सीख गई। जिस दिन मलिक अधिक पीकर आता वह दिन मालती को अधिक भाता, क्योंकि उस दिन लाख चाहने पर भी मलिक उस पर निशाना नहीं साध पाता था। मालती मलिक के हर वार से बच निकलती और बौखला कर मलिक ठेकेदार चारपाई पर गिर पड़ता। उस दिन अगर मलिक घर आकर कुछ खाने की ज़िद भी करता तो मालती अपने पति को प्रसन्न करने का भी कोई प्रयत्न न करती। बस बात को टालने के लिए रसोई में जाकर बर्तन को उलटने-पलटने लगती। रसोई से आने वाली बर्तनों की टंकार मलिक के लिए लोरी का काम करती और वह कहीं पर भी लुढ़क जाता। मालती पड़ोसन मौसी की सहायता से कई बार ज़मीन से उठा कर चारपाई पर भी डालती और दुखी होने की बजाय मौसी के साथ मिलकर मलिक की खिल्ली उड़ाती। इस तरह से एक तो मालती को अपने मन की भड़ास निकालने का अवसर मिल जाता और साथ ही साथ मौसी को प्रसन्न करने का भी। मौसी को लगता कि उसकी मलिक के ख़िलाफ़ दी जाने वाली शिक्षा का प्रभाव हो रहा है। अब तो कई बार मलिक के नशे के स्तर को ताड़ते हुए मालती उस पर बरस भी पड़ती। यह सब वह पड़ोसियों को सुनाने के लिए करती ताकि वह उसे उतनी असहाय न समझें जितनी की वह थी। मालती अब तक जान चुकी थी कि मलिक जैसे नशेड़ी व्यक्ति को रात की घटनाओं की सुबह तक कोई स्मृति नहीं रह पाती, सो वह अब कई बार मलिक को गालियाँ देने का दु:साहस कर चुकी थी। मालती जान गई थी कि अधिक नशे की हालत में मलिक अगर मारने के लिए आगे बढ़ेगा भी तो अपने ही क्रोध के कारण लड़खड़ा कर गिर जाएगा, उस तक पहुँच नहीं पाएगा।

मालती का बढ़ता हुआ साहस और मलिक की बिगड़ती हुई दशा किसी से भी छिपी नहीं थी- मलिक ठेकेदार के कमरे के ठीक सामने दूसरी मंज़िल पर रहने वाले जसपाल सिंह की नज़र से भी। मालती की सुन्दरता, व्यर्थ जाते यौवन से लेकर रोज़ के झगड़े ने जसपाल के मन में मालती के प्रति प्रेम के बीज बो दिए थे। जसपाल बहुत ही भद्र नवयुवक था। मालती का विवाहित होना उसके लिए एक लक्ष्मण रेखा थी जिसे वह पार करने की सोच भी नहीं सकता था। जसपाल दोपहर के तीन-साढ़े तीन के क़रीब अपने काम पर जाता और रात ग्यारह के बाद घर लौटता। सुबह जब तक वह उठता तब तक “चौधरी के हाते” के मर्द अपने-अपने कामों पर जा चुके होते। वह अकेला हो जाता। कोई मित्र नहीं सिवाय उसके रेडियो के, जिसपर वह हमेशा ऊँची आवाज़ में गाने सुनता। अगर कभी मलिक ठेकेदार दिन के समय घर रहता तो उसे जसपाल के रेडियो से भी परेशानी हो जाती। पर जसपाल का डील-डौल देखने के बाद मलिक का साहस जवाब दे जाता कि वह उसे टोक सके।

इधर पिछले कुछ महीनों से जसपाल ने रेडियो पर गाने सुनने कम कर दिये थे और अपनी बालकनी में बैठकर “हीर” गानी शुरू कर दी थी। जसपाल की दिनचर्या में आए इस अन्तर को कुछ दिन पड़ोसन मौसी समझ नहीं पाई परन्तु एक दिन उसके मन में संशय हुआ कि कहीं जसपाल मालती को सुनाने के लिए तो गाने नहीं गा रहा? बस फिर क्या था, मौसी ने अपनी कल्पना में मालती और जसपाल के कई महल खड़े कर डाले। और हर कल्पना में उसे मलिक की दुर्दशा ही दिखाई देती जो कि उसे बहुत ही सुखद लगती। अब मौसी अवसर की तलाश में थी कि कब वह जसपाल से सामना करे और उससे उसके मन की बात उगलवाए। एक दिन अवसर मिल ही गया। 

जसपाल पानी भरने के लिए नीचे बाल्टी लेकर उतरा ही था कि मौसी ने देखा कि वहाँ पर जसपाल अकेला ही है कोई दूसरा नहीं। बस फिर क्या था, मौसी तुरन्त जसपाल के पास पहुँच गई।

“सुन जसपाल आजकल तू बहुत “हीर” गाने लगा है। क्यूँ कोई हीर का क़िस्सा तेरे साथ भी हुआ है क्या?” मौसी ने अपना पहला प्रश्न दागा।

जसपाल मुस्कुरा दिया, “नहीं मौसी, ऐसे ही.. आजकल मन कुछ बेचैन सा रहता है। “हीर” से दिल को थोड़ा चैन मिलता है।”

“अरे पगले हीर तो तेरी आँखों के आगे नित घूमती है, बस तू ही नहीं पहचानता,” मौसी ने अपना अगला पैंतरा चला। जसपाल समझ नहीं पाया मौसी का इशारा। उसके चेहरे का भाव मौसी ने समझते हुए कहा, “मेरे भोले, अपनी मालती की बात कर रही हूँ।”

जसपाल इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। वह भौंचक्का सा रह गया कि मौसी उसके दिल की बात कैसे ताड़ गई। फिर साहस करके उसने कहा, “पर मौसी मालती तो शादी-शुदा है। मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूँ।”

“ऐसी शादी भी कोई शादी है। बेचारी! दिन-रात अपना समय उस बेकार के मर्द पर बरबाद कर रही है। सुन जसपाल तू ही हिम्मत कर। तू ही मुक्ति दिला इस गाय सी बच्ची को उस राक्षस से।” कहते कहते मौसी का स्वर भर्रा गया। यह असली था या नक़ली यह तो मौसी ही जानती थी। जसपाल कुछ भी नहीं बोल पाया, बस चुपचाप नल से बाल्टी भरता रहा और फिर ऊपर लौट गया। मौसी की बातों ने उसके अन्दर तक झँझोड़ दिया था। क्या यह सम्भव है? मालती उसे अच्छी तो लगती थी। उसकी पीड़ा से उसके मन में टीस भी उठती थी परन्तु सदा ही वह अपने को मर्यादा को बन्धन में बाँधे रहता। अब मौसी ही उसे यह मर्यादा पार करने के लिए उकसा रही थी। क्या यह प्रेम उचित है? एक विवाहिता के साथ? ख़ैर अब प्रेम के रोपित बीज को मौसी के परोक्ष आशीर्वाद और सहमति ने सींच तो दिया था। अब दिन-रात जसपाल की आँखों में प्रेम के सपने ही नाचते, उठते-बैठते, सोते-जागते मालती की ही सलोनी सूरत उसकी आँखों में रहती।

इधर मालती को भी मौसी ने न जाने कौन सी और कैसी पट्टी पढ़ाई कि देखते-देखते जसपाल के पराँठे, मलिक ठेकेदार की रसोई में पकने लगे। अब यह नया प्रेमी जोड़ा बस मलिक के घर से निकलने की ताक में रहता। अड़ोसियों-पड़ोसियों की सहमति तो उन्हें मिली ही हुई थी, विशेषकर जिनका वह दोनों आदर करते थे। बाक़ी के आहाते लोगों के नीरस जीवन में एक नया मनोरंजन का साधन जुट गया था। विशेषता यह थी कि यह फ़िल्मी कहानी होकर भी पर्दे पर न थी - उनके जीवन का ही एक अंग थी। मालती भी अब कुछ अधिक ही प्रसन्न रहने लगी थी। वह अक्सर गुनगुनाती हुई, शीशे में अपने को निहारती, सँवारती। मालती को इस दशा में देखकर मौसी के सीने में ठण्डक पड़ती और वह अपने भगवान को धन्यवाद देती।

मलिक यह तो नहीं जान पाया कि क्या हो रहा है, परन्तु मालती का फिर से खिला चेहरा, मालती में बढ़ता चुलबुलापन, बढ़ती प्रसन्नता और रसोईघर में घटता हुआ राशन उसकी दृष्टि से छिपा नहीं था। यह सब क्या हो रहा है - क्यों हो रहा है, यह तो मलिक समझ नहीं पा रहा था - परन्तु उसे यह रास नहीं आ रहा था। मन में कई संशय उठते थे परन्तु उनको शान्त करने के लिये स्वयं ही तर्क भी ढूँढ़ लेता। यह परेशानी उसे घुन की तरह अन्दर ही अन्दर से खा रही थी। अभी तक तो वह यह मान चुका था कि मालती का सारा जीवन उसके ऊपर निर्भर है। जब चाहे उसे रुला दे, जब चाहे उसे हँसा दे। वह मानता था कि मालती का होना केवल उसकी सुविधाओं के लिए है। मालती, स्वयं अपने लिये नहीं जी सकती, उसका जीना-मरना सब मलिक ठेकेदार की अनुमति और सहमति पर निर्भर करता है। फिर अब मालती ने यह नया जीवन कहाँ से ढूँढ़ लिया? आजकल वह कैसे और क्यूँ गुनगुनाती है? यह सब बातें सोच कर मलिक खीज उठता। बिना बात के मालती पर बरसना तो उसका स्वयं-प्रदत्त अधिकार तो था ही परन्तु अब कुछ अधिक ही हिंसक रूप लेने लगा था। मालती ने भी यह सब अनुभव किया था किन्तु अब उसमें सहने की क्षमता या यूँ कहिए साहस बढ़ रहा था। मालती का यह नया विकसित होता हुआ चरित्र भी मलिक को काँटे की तरह खटकता।

 

पिछले सप्ताह तो दोनों के झगड़े ने कई सीमायें पार कर लीं। हुआ यूँ कि मलिक ठेकेदार सामान्य रूप से नशे में धुत्त होकर लौटा। बरामदे में पड़ी पानी की बाल्टी से ठोकर खाकर लगभग गिरते-गिरते बचा। बस फिर क्या था। ज़ोर-ज़ोर से मालती पर चीखने लगा। रात के लगभग दस, साढ़े दस का समय था। मालती ने मलिक को धीर बोलने के लिए कहा- समझाने की चेष्टा की कि वह कम से कम पड़ोसियों की नींद तो ख़राब न करे। मलिक और भी आग बबूला हो गया कहने लगा, “गँवार औरत, तुझे.. घर-बार कैसे सँभाला जाता है, उसकी तो तमीज़ नहीं है पर पड़ोसियों की चिन्ता है। तेरे यार लगते हैं क्या?”

मालती भी यार का शब्द सुनते ही आपे से बाहर हो गई, मलिक की नशे की अवस्था और स्तर को भाँपते हुए कुछ दूर खड़ी होकर मलिक से भी ऊँचे स्वर में बोली, “दिनरात मरती हूँ तुम जैसे नशेड़ी को ख़ुश रखने के लिए। अगर यार होते तो कब का तुम्हें छोड़ कर भाग चुकी होती। यह तो मेरी क़िस्मत ही खोटी है कि तुम्हारे से माथा भिड़ा है।” 

अब तक आहाते के लोग अपने-अपने कमरों से निकल कर आँगन में आ चुके थे। मालती की आवाज़ में यह नई कर्कशता से सभी विस्मित थे। मलिक भी एक क्षण को भौंचक्का रह गया। पहले की तरह मालती को सिर झुका कर रसोई में चला जाना चाहिए था। वह अचानक उसके सामने कैसे खड़ी होकर ऐसा लज्जाहीन उत्तर दे सकती है। इस बात से समझौता करना मलिक के अस्तित्व के बाहर था। अपने को सँभाल कर जैसे-तैसे वह मालती पर लपका। उसके हाथ में मालती की साड़ी का पल्लू आ गया। मालती भी अपने को बचाने के लिए पीछे हुई - उसकी साड़ी खुलती चली गई। वह असहाय सी केवल पेटीकोट में पूरे अहाते के लोगों के सामने खड़ी रह गई। मालती की यह दशा देख कर मलिक का सीना गर्व से फूल गया, बोला- “देखूँ अब तुम्हें तेरा कौन सा यार बचाता है! सबके सामने नंगा करके तुझे घर से न निकाल दिया तो मेरा नाम भी मलिक नहीं।” 

ठीक उसी समय जसपाल ने अपने काम से लौटते हुए आहाते में क़दम रखा। पहले की बातें तो उसने नहीं सुनीं थी पर मालती की दुर्दशा उससे देखी नहीं गई। उसने आगे बढ़ कर मालती को ढाँपने की चेष्टा की तो मलिक और भी आपे से बाहर हो गया, “देखा आख़िर आ ही गया तेरा यार! तुझे बचाने को!! तुम क्या समझते हो कि मुझे मालूम नहीं क्या हो रहा है?”

जसपाल भी एक क्षण को ठिठका, फिर वह मलिक की ओर बढ़ा। मलिक ने जसपाल को अपनी तरफ़ बढ़ना आक्रमण समझ, पास ही पड़ी कुल्हाड़ी उठा ली। उसे हवा में लहराते हुए चीखा, “आ हरामज़ादे आज तेरा भी काम कर ही दूँ!” 

आहाते के दर्शक एकदम सन्न से हो गये, मानो सकते की अवस्था में हों। भयभीत लोगों में से कोई भी इस झगड़े को समाप्त करने के लिए आगे नहीं बढ़ा। अचानक ही यह झगड़ा - जो उनके मनोरंजन का साधन था, एक हिंसक रूप ले रहा था। इसके लिए कोई भी तैयार नहीं था। जसपाल भी नहीं। उसने कड़वा घूँट पीया और पीछे हटता हुआ, सिर झुका कर ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ गया। ऊपर जाते हुए वह बुदबुदा रहा था, “बदला तो अवश्य लूँगा, समय आने दो।”

इधर फिर से मालती को अकेला पा और अहाते के लोगों को भयभीत देख मलिक और भी दुस्साहसी बनते हुए मालती की तरफ़ लपका। मालती भी सकते की हालत में होने के कारण मलिक के हाथों की परिधि में आ गई। जब मालती ने अपनी गाल पर एक सनसनाता हुआ थप्पड़ महसूस किया तो वह सकते की हालत से निकली। उसने एक आहत सिंहनी की तरह लपक कर रसोईघर में घुसकर तुरन्त दरवाज़ा बन्द कर लिया और खिड़की की सुरक्षित सलाखों के पीछे से अपने पूरे स्वर में चीखी, “हरामज़ादे मलिक अगर मैंने भी इन आहाते के नामर्दों  के सामने तूझे नंगा करके थप्पड़ नहीं मारा तो मैं भी अपने बाप की औलाद नहीं!”

कोमल मालती के मुख से ऐसी भाषा और चेतावनी की आशा न तो मलिक को थी और न ही आहाते के अन्य लोगों को। मलिक की मर्दानगी पर तो यह सीधा प्रहार था, इस पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए यह उसकी समझ के बाहर था। मालती अब उसके हाथों से निकल चुकी थी - यह बात वह अब समझ गया था। सो इससे पहले मालती और कुछ कहकर उसे अपमानित करे, वह कमरे में घुस कर बिस्तर पर गिर गया। कुछ ही क्षणों में नशे ने फिर आ दबोचा और वह खर्राटे भरने लगा। आहाते के लोगों ने भी नाटक के इस दृश्य का पटाक्षेप समझ अपने अपने कमरों की राह ली। हाँ, उन सबके मनों में आत्मग्लानि अवश्य थी और मालती का उन्हें नपुंसक कहना उन्हें अन्दर ही अन्दर साल रहा था। वह जानते थे कि यह सच ही है। उस रात आहाते का कोई भी व्यस्क व्यक्ति चैन की नींद नहीं सोया, सिवाय मलिक के।

अगले दिन फिर वही सुबह हुई। मलिक को कुछ याद नहीं था। रोज़ की तरह मालती ने बिना बोले नाश्ते में मलिक के सामने पराँठा और ऑमलेट रख दिया और मलिक भी बिना बोले उसे खाकर काम पर चला गया। मालती जानती थी कि अभी आहाते की औरतों का उसके साथ सहानुभूति जताने के लिए ताँता लगने वाला है और इसके लिए वह तैयार थी। वास्तव में वह प्रतीक्षा कर रही थी कि कब जसपाल अपने काम पर जाने के लिए जागे और वह उसे नाश्ता देने के बहाने उसके पास जाकर अपना दर्द बाँटे। बाक़ी के सब लोग तो जनखे हैं, कोई सहायता नहीं करेगा - रात की घटना ने यह प्रमाणित कर दिया था।

बात यहीं पर समाप्त नहीं हुई। यह घटना इस दम्पती की आपसी लड़ाई को एक नए स्तर पर ले गई थी, क्योंकि दोनों तरफ़ से ही आहाते के लोगों पर दोषारोपण हुआ था। आहाते के बड़े बुज़ुर्गों ने समस्या को सुलझाने के लिए विचार-विमर्श किया और उसे क्रियान्वित करने में जुट गए।

 

मलिक को सोचते-सोचते एक झपकी सी आ गई। न जाने उसके अवचेतन ने उसे कैसे झिंझोड़ा कि वह एकदम झटके से उठ कर बैठ गया। दीवार पर घड़ी में देखा ग्यारह बज रहे थे। मालती का कहीं भी नामो-निशान नहीं। 

“कहीं मालती भाग तो नहीं गई?” - अचानक मलिक के मुँह से निकाला और तुरन्त ही उसने अपनी ही बात को काट दिया, “नहीं, उसमें ऐसा साहस कहाँ। मैं उसकी टाँगे नहीं तोड़ दूँगा क्या?” लेकिन फिर मालती है कहाँ...? चिन्ता उसकी सहनशक्ति की सीमायें लाँघ रही थी। भूख भी उसे बुरी तरह से सता रही थी। मलिक ने सोचा कि उसे तैयार होकर शायद बाहर जाकर स्वयं देखना चाहिए कि मालती गई तो गई कहाँ और वह हलवाई की दुकान पर जाकर चाय-नाश्ता भी कर आयेगा। मलिक ने जैसे ही कपड़े बदलने के लिए कपड़ों की अलमारी खोली तो उसके हाथों के तोते उड़ गये! मालती के सारे कपड़े ग़ायब...! एक ही छलाँग में वह स्टोररूम में पहुँचा तो देखा कि दो बड़े सूटकेस भी नहीं थे। नीचे के ट्रंक को खोला तो गहने नहीं थे। अब तक मलिक दिल धड़कते हुए, सीना फाड़कर बाहर आने को था। पसीने से तरबतर वह किसी तरह से बरामदे में आया। सामने बालकनी की दिशा में देखा... जसपाल के कमरे का दरवाज़ा चौपट खुला है। कोई रेडियो की आवाज़ नहीं...। लपकता हुआ मलिक ऊपर पहुँचा तो वहाँ पर भी वही दृश्य...। सारा सामान बड़ी सफ़ाई से ग़ायब! मलिक को समझते देर नहीं लगी। किसी तरह से गिरता पड़ता नीचे बरामदे में आया। घुटनों में दम नहीं था। बरामदे के खम्भे के सहारे पीठ लगा कर खड़ा-खड़ा ज़ोर से चिल्लाया – “मालती... जसपाल!!” टाँगों ने बिल्कुल जबाव दे दिया- सरकते हुए नीचे फर्श पर टाँगे पसार कर बैठ गया। सिर यूँ चक्कर खा रहा था कि मानों किसी ने भारी-भरकम हाथ से थप्पड़ मारा हो। हाँ! मालती का थप्पड़! मलिक की लुंगी खुल चुकी थी। वह नग्नावस्था में, निर्वाक बैठा था। सारे आहते के लोगों के सामने। वही लोग जो उसके डर के मारे अन्दर घुस जाते थे आज उसे इस दयनीय हालत में देख कर मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे।

 

कल रात मलिक के सो जाने के तुरन्त बाद ही पूरा आहात क्रियाशील हो गया था। जसपाल भी समय से पहले घर लौट आया था और सामान बाँध कर अपने कमरे में प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी की टिकटें सामने वाले शर्मा जी आज दिन में ही ला चुके थे। पड़ोसनों ने भी शकुन के सभी साजो-सामान तैयार कर लिए थे। पड़ोस के इंजीनियर लड़के अपने स्कूटर पर जाकर ताँगा ले आये। मौसी ने पूरी रीत के साथ जसपाल और मालती की बलाएँ उतारीं और झोली में शगुन डाला। आहाते के सभी बज़ुर्गों के पाँव छू दोनों ने आशीर्वाद लिए। लड़कों ने सामान ताँगे में रखा और हाथ लगा के ताँगा यूँ आगे बढ़ाया जैसे कि बहिन की डोली विदा कर रहे हों। मौसी को लगा कि आज उसकी बेटी की डोली उठी है। उसी तरह वह प्रसन्न और उदास दोनों ही थी।

सभी देर तक गेट पर ताँगे के मोड़ पर ओझल हो जाने की और फिर नाटक के अन्तिम दृश्य की प्रतीक्षा करते रहे... जिसका पटाक्षेप अब हो रहा था।

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