हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
सुमन कुमार घईमैंने कई बार सुना है कि अक्सर ’हिन्दी साहित्य सत्ता’ के लोग चिंतित स्वरों में प्रश्न उठाते हैं कि ’क्या हिन्दी की दशा और दिशा अंधकारमयी है’। यह चर्चा समय-समय पर इतनी छा जाती है कि एक ’विमर्श’ का रूप लेने की क्षमता रखती है। हो सकता है कि कभी ऐसा हो भी जाए; क्योंकि बुद्धिजीवी सदैव किसी न किसी नए विमर्श की खोज में व्यस्त रहते हैं. . . शायद इस ओर अभी किसी का ध्यान गया नहीं!
अभी तक आपको अनुमान हो गया होगा कि मैं न तो इसके प्रति चिंतित हूँ और न ही मुझे हिन्दी का भविष्य अंधकारमयी दिखाई देता है। वैसे कहा जाए तो ’दिखाई देने’ की क्रिया ही आलोक में संभव है इसलिए अंधकारमयी दिखाई देना ही विरोधाभास है। यह मैं किन्हीं आँकड़ों के आधार पर नहीं कह रहा बल्कि विदेश में हिन्दी की तथाकथित मुख्यधारा से दूर रहते हुए, हिन्दी साहित्य कि वेबसाइट के प्रकाशन/संपादन के अनुभव के आधार पर कहता हूँ।
साहित्य कुंज गत पन्द्रह वर्षों से अंतरराष्ट्रीय मंच पर हिन्दी साहित्य की पहचान और उपस्थिति बनाए रखने का प्रयास है। इस अवधि में मेरा अनुभव यह रहा है कि जैसे-जैसे संचार तकनीकी के वृत्त का विकास महानगरों से आगे बढ़ कर क़स्बों के बाद गाँवों तक फैला है, हिन्दी साहित्य के प्रकाशन और पाठन का वृत्त भी उतना ही विस्तृत हुआ है। यह अवश्य हुआ है कि महानगरों में हिन्दी साहित्य के पाठकों की संख्या कम हुई है; इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा को पढ़ने-लिखने वालों की संख्या कम हुई है। दूसरी ओर महानगरों में लेखकों की औसत आयु में वृद्धि देखने को मिल रही है: युवा लेखकों की महानगरों में दर घटी है। सीधा सा अनुपात है - अगर पाठशालाओं में कोई गंभीरता से हिन्दी पढ़ना-लिखना सीखेगा ही नहीं, तो महानगरों में न तो पाठकों की संख्या बढ़ेगी और न ही लेखकों की। दूसरी ओर ग्रामीण अंचल में मोबाइल की उपलब्धि से युवा लोग बाहर की दुनिया के संपर्क में निरन्तर बने रहते हैं। क्योंकि गाँव / क़स्बे में रहने वाला युवा हिन्दी बोलता और पढ़ता है और इससे भी बढ़ कर हिन्दी में ही ’सोचता’ है, इसलिए इन क्षेत्रों हिन्दी साहित्य का विकास होना स्वाभाविक है।
साहित्य कुंज में प्रायः मैं देख रहा हूँ कि नए युवा लेखक इन्हीं क्षेत्रों से आ रहे हैं। इस समय आँकड़ों के अनुसार 70 से 80% लोग मोबाइल पर साहित्य कुंज को पढ़ रहे हैं। केवल पढ़ ही नहीं रहे, वह अपनी रचनाएँ - चाहे किसी भी विधा की हों, मोबाइल पर ही लिख रहे हैं। मैं इस युवा वर्ग के आगे नतमस्तक हूँ - क्योंकि मैं हिन्दी साहित्य को प्रेम करता हूँ और यह लोग हिन्दी साहित्य को पढ़ने और रचने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वह महानगर में लैपटॉप या पीसी के आगे बैठे लेखक के प्रयास से कहीं अधिक है। माना कि अगर कोई लेखक अपनी कविता मोबाइल पर लिखता है वह इतना कठिन नहीं परन्तु अगर कोई कहानी या आलेख भी मोबाइल पर ही लिखे, उसके प्रयास मात्र की भी प्रशंसा होनी ही चाहिए।
इन लेखकों की सोच बहुत सकारात्मक है। यह वर्ग मार्गदर्शन का भूखा है। अगर इन्हें कोई मार्गदर्शक मिलता है, यह उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं। सही लेखन, सही भाषा में लिखने की पिपासा से अनुरक्त यह लेखक ही हिन्दी साहित्य का भविष्य है।
साहित्य कुंज के प्रकाशन में व्यस्त रहने के कारण अभी तक मैं ’सोशल मीडिया’ से दूर रहा हूँ इसलिए मैं इससे लगभग अनभिज्ञ ही हूँ। परन्तु अब मैं इसकी शक्ति को थोड़ा-थोड़ा समझने लगा हूँ। अब मुझे समझ आने लगा है कि यह मीडिया एक बेलगाम घोडे़ की तरह है। शक्तिशाली तो है परन्तु दिशाहीन है। किसी ’संदेश’ को ’फ़ॉरवर्ड’ कर देना ही सृजन का पर्याय बन रहा है। क्योंकि सृजन भी संपादन विहीन है इसलिए दो पंक्तियाँ लिख देने वाला ही ’लाईक्स’ बटोर रहा है, चाहे जैसी भी हों। अब यह बिना पढ़े ही लाईक करने की रीत साहित्य के लिए बहुत हानिकारक है। दो-पंक्ति के लेखक को अपने श्रेष्ठ लेखन पर गर्व होने लगता है; वह दंभी हो जाता है। अगर वह अपनी रचना किसी सही संपादक को भेज दे तो इस लेखक का दिवास्वप्न भंग हो जाता है। ऐसा लेखक अपनी आलोचना को स्वीकार नहीं करता। संभवतः स्वप्रकाशन की व्यवस्था वाली वेबसाइट्स उसे अपने आग़ोश में ले लेती हैं। और दुःख की बात तो यह है कि वह इन वेबसाइट्स पर भारी मात्रा में घटिया लेखन संजो लेता है। यहाँ पर भी ऐसे साहित्य को उच्चस्तरीय समझने वालों की कोई कमी नहीं होती। लाईक्स और प्रशंसनीय कमेंट्स भी प्रचुर मात्रा में आत्मतुष्टि का साधन बने रहते हैं।
साहित्य कुंज/मैं अपनी उपस्थित फ़ेसबुक पर बढ़ा रहा हूँ, तो नए लेखक साहित्य कुंज से जुड़ने लगे हैं। इन लेखकों के दो वर्ग हैं। पहला तो केवल ’लाईक्स’ बटोरने वाला है। इन्हें तत्क्षण प्रशंसा चाहिए। साहित्य के प्रति अनुराग उथला है। कला को सीखने और उसे निखारने के लिए जो धैर्य और परिश्रम चाहिए, उसकी प्रतीक्षा करना इनके बस की बात नहीं। दूसरा वर्ग वह है, जिन्हें साहित्य कुंज से जुड़ने बाद अनुभव हुआ कि अभी तक वह कितना ग़लत लिखते रहे हैं। इन लेखकों से मेरी हिन्दी साहित्य के उज्ज्वल भविष्य की आशा बँधी है। मुझे अनुभव हो रहा है कि एक ऐसा मंच होना चाहिए जहाँ पर कुछ सिद्धहस्त, अनुभवी लेखक इन नए लेखकों का निरन्तर मार्गदर्शन करें। इनकी रचनाओं को सुधारें, साहित्य की चर्चा करें ताकि यह युवा लेखक अपनी कला के प्रति गर्वित हो सकें; उसे निखार सकें। इस दिशा में साहित्य कुंज एक प्रयास कर रहा है। भविष्य में साहित्य कुंज में एक ’फ़ोरम’ बनेगा। इस में प्रतिभागी एक दूसरे के साहित्य की चर्चा कर सकेंगे और कला को निखार सकेंगे और उचित मार्गदर्शन पा सकेंगे। बस आप साहित्य कुंज के प्रति अपना अनुराग बनाए रखिए और इसके प्रचार-प्रसार में योगदान करते रहें। हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है! बस आवश्यकता है तो ऐसे सिद्धहस्त लेखकों कि जो युवा लेखकों का मार्गदर्शन कर सकें - साहित्य कुंज को आपके अनुमोदन की प्रतीक्षा है।
- आपका
सुमन कुमार घई
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