असली-नक़ली

03-10-2006

असली-नक़ली

सुमन कुमार घई

"आज फिर घर में झगड़ा खड़ा हो गया।” लड़की ने बैठते हुए कहा- "फिर वही बातें और मम्मी पापा के वही तर्क। क्या करती?”
"उँह, फिर से अच्छी सीट नहीं मिली। हमें सदा इसी कोने में क्यों बैठना पड़ता है.. बाहर तक नहीं देख सकते,” लड़के ने कहा।

"क्या? मैं इतनी गम्भीर बात कर रही हूँ और तुम्हें कौन सी जगह से बाहर का अच्छा दीखता है, की चिन्ता है? यहाँ मेरे जीवन का सवाल है और तुम्हें सीट की लगी है,” लड़की थोड़ा तुनक उठी।

मेरे कान भी अब तक खड़े हो चुके थे। ”चलो आज का रेस्त्राँ में आना बेकार नहीं गया।” मन ही मन सोच कर एक रोमांच की लहर उठने लगी। "आज मेरी अगली कहानी का समझो विषय मिल ही गया।” सोचकर, थोड़ा आश्वस्त सा होकर कॉफ़ी की चुस्की ली और कुछ उस दिशा में सरक गया ताकि आगे की बातचीत ज़रा ठीक से सुन सकूँ। मुझे दूसरों की बातचीत सुनने में कोई रस नहीं आता और न ही मैं ऐसी कोई मानसिक प्रवृत्ति से ग्रसित हूँ कि यह सामाजिक रूप से ग़लत ठहराया हुआ काम करूँ। दूसरों की व्यक्तिगत बातचीत सनूँ। परन्तु क्या करूँ, लेखक जो ठहरा। चाहे घटना कितनी भी साधारण क्यों न हो और वाद-विवाद कितना भी मामूली हो, राई का पहाड़ बनाना, मेरा पेशा जो ठहरा। इसीलिए ऐसे घटनाक्रमों या वाद-विवादों को सहज में ही ढूँढ निकालता हूँ, ठीक उसी तरह जैसे शिकारी कुत्ता गन्ध से अपना शिकार।

यह इतालवी रेस्त्राँ, बस यूँ समझिये मेरा मचान है और शिकार यहाँ स्वयं चल कर आता है। अचानक ही एक दिन खाने के लिए किसी के साथ चला आया था यहाँ। इस रेस्त्राँ की साज-सज्जा बहुत रोचक लगी। अन्दर घुसने से पहले ही यूँ लगने लगता है जैसे आप इटली में ही पहुँच गये हैं। वही पुरातन रोम की शैली में बने नक़ली स्तम्भ और स्थान-स्थान पर रखी क्षत-विक्षत मूर्तियाँ। उन पर जमती हुई नक़ली काई और चढ़ती हुई असली बेलें। गलियारा भी कुछ उबड़-खाबड़ पत्थरों का बना हुआ, इटली की किसी पुरानी गली का आभास देता है। दोनों तरफ़ मेहराबदार छोटी-छोटी दुकानों में सजाया हुआ खाना और गलियारा मध्य में एक गाँव के चौंक की तरह हो जाता है और वहाँ पर एक फव्वारा। बहुत ही रोचक है यह जगह। ऐसा भान होता है कि आप न केवल दूसरे देश में हैं अपितु समय-काल भी कुछ पीछे का ही है।

पहली बार जब यहाँ आना अच्छा लगा तो दूसरी बार स्वयं ही चला आया। परिचारिका ने मुझे यही कोने वाली सीट दी थी। अकेला था इसीलिए। यूँ तो बहुत बड़ा है यह रेस्त्राँ। गलियारे के दोनों तरफ़ कई कमरे बने हैं और सभी की साज-सज्जा अलग-अलग है - पर है सब कुछ इतालवी शैली में ही। यह सीट बिल्कुल पीछे जाकर थी। छोटा सा एक कोने में मेज़ और दो कुर्सियाँ। मेज़ पर सामान्य वस्तुओं के अतिरिक्त एक फूल वाला फूलदान। इस मेज़ पर बैठने वालों को थोड़ा एकान्त का आभास देने के लिए, गमलों और कुछ नक़ली पौधों का पर्दा सा बना दिया गया है। नक़ली पौधों से नक़ली एकान्त का आभास! फिर भी मेरे लिए तो बिल्कुल सटीक बैठती है यह जगह। इसी नक़ली एकान्त के आभास के पर्दे के पीछे मैंने अनेक लोगों को अपने मन की गुत्थियों को खोलते हुए सुना है। और फिर पन्नों पर उतारा भी है। अकेला आता हूँ तो केवल कॉफ़ी के सिवा कुछ भी नहीं लेता, कुछ काग़ज़ बिखरे रहते हैं मेरे सामने और कुछ लिखने का अभिनय करता रहता हूँ। पहले-पहल जब आकर कई बार एक कॉफ़ी का कप लेकर घंटों बैठा रहा तो बैरे ने आपत्ति की थी और मैनेजर को भी बुला लाया था। मैनेजर ने बड़ी संजीदगी से कहा था, "महोदय, यहाँ पर यूँ ही बैठे रहने की अनुमति नहीं है।”

"कॉफ़ी पी तो रहा हूँ,” मैंने तर्क दिया था।

"वह तो ठीक है, पर आपको यहाँ बैठे लगभग दो घंटे हो चुके हैं।”

"क्या करूँ, आपका रेस्त्राँ ही इतना रोचक है। लिखने के लिए यहाँ पर बहुत कुछ बिखरा पड़ा है,” मैंने थोड़ी चापलूसी करते हुए कहा।

"मैं समझा नहीं। सब कुछ एक सलीक़े से तो है, क्या बिखरा हुआ कह रहे हैं आप? कुछ समझ नहीं रहा,” मैनेजर ने रक्षात्मक ढंग से कहा।

मैंने उसे समझाते हुए और कुछ याचना करते हु़ए कहा- "देखिए मैं एक लेखक हूँ, और आपके रेस्त्राँ के वातावरण में आते ही मेरी कल्पना शक्ति जागृत हो उठती है। जब भी मेरी कल्पना थोड़ी घटित होती है तो उसे पुन: नवजीवन देने के लिए यहाँ चला आता हूँ।” कहते हुए मैं मुस्कुरा दिया - ”इतने विशाल रेस्त्राँ के इस एक कोने में अगर रचना का सृजन होता रहे तो आपको क्या आपत्ति हो सकती है?.. बस यही सोचता हूँ।”

मैनेजर के चेहरे पर कुछ रुचि के भाव दिख रहे थे। वह स्वयं कुर्सी खींच कर बैठ गया। बैरा भौंचक्का सा खड़ा था।

"तो आप लेखक हैं? क्या लिखते हैं? मेरे रेस्त्राँ के विषय में भी लिखेंगे क्या?” उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी, और मैंने अपनी बातों का जाल उसके आसपास बुनना आरम्भ कर दिया। मकड़ी के जाले में शिकार फँस चुका था। कुछ समय मेरे साथ बातचीत करने बाद उसने पास खड़े बैरे से कहा-”साहब के लिए ताज़ी बनी कॉफ़ी लाओ, मेरी तरफ़ से.. और हाँ, जब तक यह यहाँ बैठना चाहें किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।” और फिर मेरी तरफ़ देखते हुए कहा- ”निश्चिंत रहिए, अब आपको कोई भी तंग नहीं करेगा।”

"धन्यवाद”... इससे पहले मैं कुछ और कहूँ वह जा चुका था। उस दिन के पश्चात कई बार यहाँ आ चुका हूँ और परिचारिका सदा मुझे यहीं इसी कोने में बैठाती है। शायद उसे ऐसा ही आदेश दिया चुका है।

“अरे! फिर बिगड़ उठी! सब सुन रहा हूँ। वैसे कोई दूसरी सीट मिल जाती तो अच्छा रहता। परिचारिका से तुमने कुछ कहा क्यों नहीं दूसरी सीट के लिए?” लड़के ने आश्वासन देने का प्रयत्न किया था, जो कि बिल्कुल उसी की तरह थोथा था।
(“अरे घोंचू कुछ सुनो तुम्हारी प्रेमिका क्या कह रही है तुम्हें! वह अपने माँ-बाप से उत्पीड़ित है.. उसे तुम्हारी सहानुभूति चाहिए और तुम्हें आस-पास के दृश्यों में अधिक रुचि है।” मेरे मन में भाव उठा कि इस लड़के का कान खींचकर कहूँ।)

“नहीं कहा। कहना भी नहीं चाहती थी। मुझे यहीं बैठना था ताकि तुम इधर-उधर ताक-झाँक न कर सको और मेरी बात सुनो,” लड़की ने कुछ शिकायत भरे और कुछ ग़ुस्से में लिपटे स्वर में कहा।

लड़के को शायद आस-पास कुछ भी रोचक नहीं दिखा तो उसने अब प्रेमिका में रुचि लेते हुए पूछा- “कैसे हुआ यह सब? शुरू से बताओ।”

“होना क्या था, वही पुरानी कहानी। मम्मी ने बोला बेटी तेरे पापा के मित्र ने तुम्हारे लिए रिश्ते की बात की है। लड़का देखने में अच्छा लगता है। अच्छी नौकरी करता है और परिवार भी ठीक है। देख लेने में तो कोई हर्ज़ नहीं।”

“तुमने क्या कहा?” प्रेमी चौकन्ना हो गया। यहाँ तो प्रेमिका के छिन जाने का डर पैदा हो गया था।

“कहती क्या? वही पुराना बहाना- ’मैंने नहीं करनी अभी शादी!’ पर मम्मी मानती कब हैं? पापा का दबाव जो रहता है उन पर,” अपनी माँ को बचाते हुए उसने उत्तर दिया।

“फिर तुम अपने पापा से स्पष्ट क्यों नहीं कह देती?”

“क्या कहूँ? कि तुमसे विवाह करना चाहती हूँ?”

“हाँ क्यों नहीं? तुम क्या मेरे से प्यार नहीं करती?”

“करती हूँ, पर खाली प्यार से तो जीवन नहीं बसर होता। कोई काम-धाम करने वाला लड़का भी तो चाहिए। तुम्हारी तरह बेकार तो नहीं।”

“यह तुम अपने पापा की भाषा कब से बोलने लगी?”

“सच तो यही है। पापा काल्पनिक नहीं व्यावहारिक बात करते हैं। देखो कितना सफल जीवन जिया उन्होंने,” लड़की के स्वर में गर्व की झलक थी, और अब लड़के के तुनकने की बारी थी-

“चोर-बाज़ारी करके सारा धन संचित किया है तुम्हारे पापा ने। कभी भी... उन्होंने किसी से प्यार नहीं किया होगा जीवन भर सिवाय पैसे के।” लड़के ने क्रोध भरी वाणी में कहा- ”कम से कम मेरी तुलना तो न करो ऐसे व्यक्ति के साथ!”

“ख़बरदार जो मेरे पापा के बारे में कुछ भी कहा तो! सफल हैं तो चिढ़ते क्यों हो.. बेकार का आदमी! करते हैं प्यार मुझसे! मेरी मम्मी से!!” लड़की हुंकार उठी।

प्रेमी को ऐसी प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी। वह घबरा गया। वह तो केवल अपने ‘मर्द’ होने का प्रमाण देना चाहता था प्रेमिका के पिता पर आक्रमण करके। वह स्वयं भी तो उसके लिए अपने माँ-बाप से लड़ती रहती है। अगर अब उसने दो शब्द कह दिये तो इतनी आपत्ति क्यों? बात को सँभालते हुए लड़के ने कहा-

“अरे, जाने दो। बस ऐसे ही कह गया। बात यह है कि अगर कोई तुम्हें यातना दे तो मुझे से सहा नहीं जाता। तुम्हारे पापा तुम पर दबाव डालते हैं तो तुम्हें भी तो अच्छा नहीं लगता। घंटों रोती हो। बस तुम्हारे आँसू ही मेरा हृदय छलनी कर देते हैं।”
लड़के ने भावनात्मक ढंग से फ़िल्मी संवाद से सुना डाले। स्पष्ट रूप से नाटकीयता झलक रही थी। मैं भी सँभल कर बैठ गया कि देखें बात सुधरती है कि बिगड़ती है। प्रेमिका का मानसिक स्तर कैसा है जो इन झूठी सी बातों में उलझता है या यथार्थ का भान होता है उसे। साधारणतया प्रतिक्रिया वही होती जो मैं नहीं चाहता। शायद बहुत अधिक यथार्थवादी हूँ। भावुक नहीं, सो सदा की तरह मेरा अनुमान ग़लत ही निकला। शायद प्रेमी को वह सारे “बटन” पता थे जिनको दबाने से प्रेमिका पिघल जाती थी।

“जानती हूँ कि तुम मुझे सबसे अधिक प्यार करते हो। मुझे जन्म देने को बाद मम्मी-पापा क्यों सोचते हैं कि मेरे जीवन के सारे निर्णय लेने का अधिकार केवल उन्हीं का है।” 

प्रेमिका मोम की गुड़िया की तरह प्रेमी के हाथों में पिघल रही थी। अब प्रेमी उसे कोई भी रूप दे सकता था।

“तो फिर क्या हुआ? दूल्हा देखा अपने लिए क्या?” लड़के ने व्यंग्य भरी आवाज़ में कुछ आश्वस्त होते हुए पूछा।

“नहीं, इस बार मैं अड़ गयी। स्पष्ट कह दिया कि मैं अपनी मर्ज़ी से शादी करूँगी। किसीको भी मेरे लिए लड़का ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है,” प्रेमिका ने गर्व से कहा।

“ठीक किया तुमने। पर मम्मी-पापा तो बिफर उठे होंगे।”

“हाँ, ऐसा ही हुआ। झगड़ा खड़ा हो गया। मम्मी ने आँसू बहाने शुरू कर दिये पापा चीज़ों की उठा-पटक करने लगे। मैं तो डर गयी।”

“कहीं डर कर हाँ तो नहीं कर दी?” प्रेमी घबरा रहा था।

“हाँ तो कर दी, क्या करती। अकेली थी। तुम्हारा सहारा जो नहीं था। आख़िर मेरे माँ-बाप हैं। उनका भी तो अधिकार है मुझ पर।”

प्रेमी बुरी तरह से घबरा चुका था। उसने हकलाते हुए से कहा- “पर तुम्हीं ने अभी कहा था कि अपने जीवन के निर्णय लेने का अधिकार केवल तुम्हें ही है। तो फिर हाँ कैसे कह दी?” वह प्रेमिका के छिन जाने के भय से ग्रसित था।

“डरो नहीं सब सँभाल लूँगी। लड़का देखने का बाद अन्तिम निर्णय तो मेरा ही होगा। सभी यही कहते हैं। तब नहीं मानूँगी।”

“अगर फिर से तुम्हारे मम्मी-पापा ने यही ड्रामा किया तो?”

“नहीं तब नहीं मानूँगी। आख़िर मेरे जीवन का प्रश्न है।”

“तुम्हारे ही नहीं मेरे जीवन का भी प्रश्न है। अकेले तो नहीं जियोगी मेरे बिना अपनी ज़िन्दगी।”

“नहीं, पर तुम्हें भी तो कुछ करना होगा।”

“क्या?”

“जैसे कि कोई नौकरी वग़ैरह ढूँढ़ो। बेकार में घूमते रहने से तुम्हारे बारे में लोग पता नहीं क्या-क्या कहते हैं?”

प्रेमी अब तक पूर्ण रूप से आश्वस्त होकर पास की मेज़ पर आकर बैठी एक सुन्दर व आकर्षक “ब्लाँड” नवयुवती को देखने में मग्न हो चुका था। नौकरी ढूँढ़ने वाली बात उसने सुनी नहीं थी या सुनना नहीं चाहता था। मैंने भी फिर कॉफ़ी की चुस्कियाँ भरनी शुरू कर दीं थीं और प्रेमिका भी मेन्यू पढ़ने में व्यस्त हो चुकी थी। कुछ समय के पश्चात जैसे ही प्रेमिका ने लड़के की दृष्टि को किसी दूसरी लड़की पर टिके देखा तो वह एकदम आगबबूला हो उठी-

“लगता है कि तुम अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आओगे!”

“मैंने अब क्या कर दिया?” प्रेमी ने भोले बनते हुए कहा।

“सब देख रही हूँ और जानती भी हूँ। बैठे यहाँ हो और दिल तुम्हारा कहीं और है। मैं इतनी गम्भीर समस्या से घिरी हूँ और तुम अपना ओछापन अभी भी दिखा रहे हो। यह नहीं कि कुछ समाधान सोचो, कुछ दिलासा दो.. बस थोड़ी देर के लिए नज़र इधर हुई और तुम्हारी नज़र फिसलने लगी,” लड़की निरन्तर बोले जा रही थी और प्रेमी सुना अनसुना सा कर रहा था।

“तुम भी तो गम्भीरता से किनारा करके मेन्यू में ऐसे खो गई थी जैसे कि कोई उपन्यास हो,” अवसर पाते ही उसने भी दलील देने की चेष्टा की।

“मैं तो यहाँ पर तुमसे कुछ समर्थन की आशा लेकर आई थी। मुझे क्या मालूम था कि तुम सड़क-छाप रोमियो की तरह गोरियों को ही देखते रहोगे.. वह भी मेरे सामने ही!” कहते-कहते प्रेमिका का स्वर लड़खड़ाने लगा था।

“नहीं, नहीं ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ। ज़रा दृष्टि ऊपर की तो सामने वह ब्लाँड बैठी थी- मैं क्या करता, कौन सा मैं तुम्हें छोड़कर वहाँ जा बैठा हूँ।” लड़के ने फिर बात को बदलते हुए कहा- “जो तुमने सोचा है वह कोई समाधान तो नहीं है। तुम बात को लटका रही हो। साफ़-साफ़ क्यों नहीं कह देती अपने मम्मी-पापा से। जो होना है एक बार में ही हो जाए।”

“क्या कहूँ?”

“बस यही कि अगर तुम विवाह करोगी तो केवल मुझसे . . .”

“फिर वही बात, अरे बाबा तुमसे कितनी बार कह चुकी हूँ कि जब तक तुम कोई काम-धन्धा नहीं करने लग जाते तुम्हारे विषय में तो मैं मम्मी-पापा से कोई बात कर ही नहीं सकती,” लड़की ने उसकी बात को काटते हुए कहा।

“क्या करूँ, हर सम्भव प्रयत्न कर रहा हूँ,” कहते कहते प्रेमी का स्वर धीमा हो गया था। एक मायूसी छाने लगी थी उस टेबल पर। कुछ क्षण ऐसे ही बीत गए। मैं भी सोचने लगा कि कुछ नहीं होने वाला यहाँ। यह नया-नया सा प्रेम, फुटबाल की तरह कभी प्रेमी-प्रेमिका के मैदान में और कभी माँ-बाप के मैदान में लुढ़कता ही रहेगा। ऐसे ही भारी से क्षण बीतते गए। फिर लड़की कहने लगी- “मेरे लिए तो बात करना ही कठिन है प्रेम के विषय में पापा के सामने।”

“अभी तो कह रही थी कि अगर मम्मी-पापा ने विवाह के लिए ज़ोर डाला तो अड़ जाओगी। अब क्या हुआ? थोड़ा सोचो- तुम भारत में पैदा हुई- दुबकी, सहमी बेटी तो नहीं। आख़िर विदेश में पैदा हुई, पश्चिमी सभ्यता में पली-बड़ी हुई स्वतन्त्र महिला हो,” प्रेमी ने प्रेमिका में साहस पैदा करने के लिए भाषण दे डाला।

“यही तो त्रासदी है हमारी पीढ़ी के भारतीय मूल के बच्चों की!”

“क्या कहती हो? कुछ समझा नहीं।”

“बस यही सोचती हूँ सदा। सच है कि पैदा तो हम पश्चिमी धरती पर हुए हैं, पर यह भी सच है कि भारतीय सभ्यता से भी पृथक नहीं हुए हैं। घर के बाहर, अपने मित्रों में चाहे जितना भी पश्चिमी आचरण करें पर दिनान्त पर हम रहते भारतीय के भारतीय ही हैं।”

“सभी तो ऐसा नहीं करते। अभी अपने मित्रों को ही देख लो- कोई कह सकता है उन्हें देखकर कि वह कनेडियन नहीं हैं- बस चमड़ी के रंग को छोड़कर।”

“हाँ सब बिन पैंदे को लौटे की तरह ही तो हैं। किसी ठोस मूल के साथ कहीं बँधे ही नहीं हैं। वह तो ऐसे पेड़ की तरह हैं जिसकी जड़ ही नहीं है। हल्का सा भी धक्का लगा कि गिर जाएँगे।”

“ऐसी गम्भीर बातें करके तो मेरा मूड भी उदासी-भरा कर रही हो। जो है-सो है, हम दोनों के सोचने और कहने से क्या होता है।”

“यही तो कह रही थी कि क्या त्रासदी है। कहने को माता-पिता हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं कि हम लोग कहीं पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से बिगड़ न जाएँ। इसी कारण वह हमारी पीढ़ी को उन बेड़ियों में जकड़ देना चाहते हैं जो कि आजकल भारत में भी युवावर्ग को नहीं पहनाई जातीं।”

“यह तो तुम ठीक कहती हो,” लड़के ने समर्थन किया। और मैंने भी स्वयं को उस लड़की बातें सुनकर, गहरी सोच में डूबते हुए पाया। कितना सच था इस छोटी सी लड़की की बातों में।

“अब हम दोनों को ही देखो। हम दोनों एक दूसरे को चाहते हैं। प्यार करते हैं और विवाह के बन्धन में बँध कर जीवन-साथी बनना चाहते हैं.. पर न तो तुम अपने माँ-बाप को बिना किसी डर के कह सकते हो और न मैं ही। अगर कहें भी तो बिना किसी नाटक के बात नहीं बनेगी।”

“जानता हूँ। सबसे पहला प्रश्न होगा- लड़का क्या करता है? उसके माँ-बाप क्या करते हैं?” कहते-कहते लड़का झूठी सी हँसी हँसने लगा। मुस्कुराहट की हल्की से रेखा लड़की के होंठों पर भी बिखर गई।

“हाँ बस सब कुछ थोथा सा है। जीवन के सभी मूल्य बदल से गए हैं हमारे से पहली पीढ़ी के। हमारे माँ-बाप कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। स्वयं ही कहते हैं कि परस्पर मानवीय सम्बन्ध सर्वोपरि हैं और विवाह के विषय में पैसा ही सब कुछ हो जाता है। जात-पात, लेन-देन चाहे न भी हो इस समाज में, पर यह बात उनके मन में उठती अवश्य है।”

“हाँ, मेरा भी अनुभव कुछ ऐसा ही है। हमारे माँ-बाप ने तो अपनी समझ के अनुसार अपना जीवन जी लिया। अब हमें ही कुछ ऐसा करना होगा कि अपने जीवन में इन दोनों सभ्यताओं को संतुलित रखें। माँ-बाप का सम्मान रखना अगर हमारा धर्म है तो अपने अनुसार जीवन जीना स्वधर्म है। यदि हम दोनों का प्रेम दृढ़ है तो ऐसा कर पाना भी कठिन नहीं है।”

“क्या करें दो संस्कृतियों का टकराव है। और हमारी पीढ़ी अपनी संस्कृति का अन्वेषण स्वयं ही कर रही है। माँ-बाप भारतीय संस्कृति हम पर लाद देना चाहते हैं, जबकि स्वयं वह भी उसका अनुसरण नहीं करते। जब भी देखो मम्मी अपनी “किट्टी पार्टी” में व्यस्त रहती है। होता क्या है वहाँ?.. वही जुआ या दूसरों की चुगलीबाज़ी। हमारी भारतीय सभ्यता तो यह नहीं कहती,” लड़की ने फिर से कहा।

“मेरे घर में तो इससे भी एक क़दम आगे का वातावरण है। दादा जी, जब भी अवसर मिलता है, धर्म, सभ्यता, भाषा या संस्कृति का भाषण देते रहते हैं, और स्वयं महीने में दो बार “कैसिनोरामा” जाकर जुआ खेलना नहीं भूलते। हर शाम “माल” में बैठकर आने-जाने वाली सभी महिलाओं को घूरना भी उनकी संस्कृति का ही अंग है,” लड़के ने मुस्कुरा हुए कहा।

लड़की ने ठंडी साँस भरी। चेहरे पर गम्भीरता के बादल छाए थे। प्रेमी के मुस्कुराने का उत्तर भी मुस्कुरा कर न दे पायी। फिर आगे को झुककर बोली- “चलो कुछ खाने के लिए लिया जाए। हम दोनों के कहने-सुनने से क्या होगा? न तो कोई हमें समझता है और न ही समझना चाहता है। अपने मूल को हम भूल नहीं सकते और नये वातावरण में कोई जीने नहीं देता।” कहते कहते वह अपनी सीट में पस्त सी होकर ढलक गयी।

वातावरण बहुत ही गंभीर हो चुका था। मैं भी उस लड़की बातों की सत्यता का कड़वापन अनुभव कर रहा था। मेरी पीढ़ी की ही तो बात कर रही थी। कई मेरे भूले हुए अनुभव इस बाला ने कुरेद डाले थे। मेरे मित्र विनोद का चेहरा उभर के सामने आ गया। एक पार्टी में, नशे में धुत्त होकर भारत लौट जाने की रट लगा रहा था। बार-बार कहता था कि वह यहाँ रहा तो उसके बच्चे बिगड़ जाएँगे। बड़े होकर शराब पियेंगे इत्यादि। कुछ ऐसे मित्र भी याद आए जिनका यहाँ आने का मुख्य उद्देश्य ही विदेशी लड़की से विवाह करना था। और स्वयं वही लोग अपने बच्चों पर इतने बंधन लगाते हैं! कभी सोचता हूँ कि ऐसे लोगों को अपनी सन्तान पर विश्वास नहीं या वह स्वयं अपने ही भूत की भूलों को सुधारने का प्रयत्न कर रहे हैं।

इस असली-नक़ली साज-सजावट वाले इतालवी रेस्त्राँ में बैठा मैं सोच रहा था कि हमारी नई पीढ़ी कितनी असली है और हमारी पीढ़ी कितनी नक़ली। क्या हम कभी इस नयी पीढ़ी को सुनने कि या समझने की चेष्टा भी करते हैं? अधिकतर मैं स्वयं को और अपने मित्रों को भाषण देते हुए तो देखता हूँ पर सुनते हुए नहीं। यहाँ पर बैठा मैं उन दो प्रेमियों का विश्लेषण करने की अपेक्षा स्वयं का विश्लेषण करने में खो चुका था। लगने लगा कि हमारी पीढ़ी बाहर खड़ी क्षत-विक्षित नक़ली मूर्तियों की तरह है और यह नयी पीढ़ी का युवा वर्ग उनपर चढ़कर, यहाँ की स्वतन्त्र वायु में लहरा जाने की चेष्टा करती असली बेलें।
 

2 टिप्पणियाँ

  • 3 Dec, 2020 03:51 PM

    GREAT SIR

  • 20 Feb, 2019 03:50 PM

    कहानी अच्छी लगी।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

रचना समीक्षा
कहानी
कविता
साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
किशोर साहित्य कविता
सम्पादकीय
विडियो
ऑडियो
लेखक की पुस्तकें