साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
सुमन कुमार घईप्रिय मित्रो,
साहित्य कुञ्ज का अप्रैल मास का पहला अंक आपके सामने है। आशा है कि आपके मन को भाएगा। "पहला अंक" कहते हुए बहुत से मिले-जुले भाव मन में उठ रहे हैं - कारण यह है कि बहुत दिनों से साहित्य कुञ्ज को फिर से पाक्षिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित करने की इच्छा थी। अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक व्यस्तताओं और कुछ तकनीकी कारणों से मेरे हाथ बँधे थे। अब नई वेबसाईट के बनते ही तकनीकी पक्ष से सक्षम हूँ कि साहित्य कुञ्ज को पुनः पाक्षिक कर सकूँ। इस अंक में अधिकतर रचनाएँ "टैस्ट सर्वर" पर अपलोड की हैं, हो सकता है कि कोई रुकावट आए, जिसके लिए अभी से आपसे क्षमा माँग रहा हूँ, परन्तु नई वेबसाइट को मूर्त रूप में देखने का लोभ भी संवरण नहीं कर पा रहा।
पाक्षिक पत्रिका बना देने से, जानता हूँ कि मेरा दायित्व बढ़ जाएगा। मेरे मित्र, अखिल भण्डारी (साहित्य कुञ्ज में शायरी स्तम्भ के संपादक) प्रायः कहते हैं, “सुमन जी, नियमित समय पर पत्रिका प्रकाशन का एक अनलिखा अनुबंध पाठक और प्रकाशक में होता है, इसमें कोई व्यवधान नहीं आना चाहिए।" मैं उनके इस कथन से शत-प्रतिशत सहमत हूँ। साहित्य कुञ्ज को पाक्षिक पत्रिका बनाने के दायित्व की गंभीरता को अच्छी तरह समझता हूँ।
अब प्रश्न है कि क्यों पाक्षिक बनाना चाहता हूँ यह वेबसाइट। इसके कई कारण हैं। पहला तो एक सम्पर्क सेतु मानसिक स्तर पर पाठकों के साथ पत्रिका का महीने के आरम्भ में बनता है वह महीने के अंत तक आते-आते ढीला होने लगता है। दूसरा कारण है पाठकों के दृष्टिकोण से; उन्हें एक महीने के लिए पर्याप्त पाठ्य सामग्री नहीं मिल पाती। तीसरा कारण लेखक के पक्ष का है। कोई भी लेखक अपनी रचना को प्रकाशन के लिए भेजने के बाद उसके प्रकाशित रूप को देखने के लिए उत्सुक रहता है और अपनी रचना पर पाठकों की प्रतिक्रिया भी जानना चाहता है। अंतिम कारण मेरी चाहत का है - मैं साहित्य कुंज में लम्बी कहानियाँ, लघु उपन्यास इत्यादि भी प्रकाशित करना चाहता हूँ। एडगर ऐलन पो, जिन्हें अँग्रेज़ी साहित्य में शॉर्ट स्टोरीज़ का पिता माना जाता है, के अनुसार, “कहानी उतनी ही लम्बी होनी चाहिए जितनी एक पाठक एक ही बैठक में पढ़ ले"। अब उन लम्बी कहानियों का क्या करें जो उपन्यास बन नहीं सकती और एडगर ऐलन पो के साँचे में ढल नहीं सकतीं। इसका विकल्प धारावाहिक प्रकाशन है। परन्तु पाठक के लिए प्रतीक्षा का अंतराल अगर बहुत लम्बा हो जाए तो विचार शृंखला टूट जाती है। अगली किश्त पढ़ने से पहले पाठक को न केवल पिछली किश्त का अंतिम भाग याद करना पड़ता है बल्कि, कई बार रचना से उत्पन्न हुए मनोभाव भी लुप्त हो जाते हैं। हालाँकि पंद्रह दिनों का अंतराल भी कम नहीं होता परन्तु प्रकाशन के व्यवहारिक पक्ष को देखते हुए यह समझौता तो करना ही पड़ता है।
इस अंक में आप कई युवा लेखकों की रचनाओं को पढ़ेंगे। हालाँकि उनके लेखन शिल्प और कला पक्ष में आपको कुछ न्यूनता अनुभव हो सकती है परन्तु उनके विचारों में नवीनता है और पुराने विषयों को अपने विचारों को प्रकट करने का अंदाज़ नया है। साहित्य कुञ्ज में मैं हमेशा से ही नए लेखकों को प्रोत्साहित करता रहा हूँ। हालाँकि कई बार मुझे सलाह भी दी गई है और मेरी आलोचना भी की गई है कि मैं नए लेखकों के लिए एक अलग स्तम्भ क्यों नहीं बना देता? मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। अगर कोई दसवीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र अच्छी (लगभग अच्छी) कविता लिखता है और साहित्य कुञ्ज में अच्छे लेखकों के साथ प्रकाशित होता है तो सोचिए उसको कितना प्रोत्साहन मिलेगा। इतना ही नहीं जब वह अपनी प्रकाशित रचना को अपने मित्रों, अध्यापकों और अपने परिवारजनों को दिखायेगा तो वह कितना गर्व अनुभव करेगा। हो सकता है कि वह इन लोगों के मन में साहित्य के प्रति अनुराग को जागृत कर दे। दीप से दीप जले…!
इन नई पौध के लेखकों के साथ संपादक के रूप में मेरे अनुभव भी बहुत सार्थक हैं क्योंकि यह मेरी बात सुनते हैं, सीखने के लिए आतुर हैं, अपनी आलोचना सुनने में इन्हें बुरा नहीं लगता। अपने लेखन के स्तर को ऊँचा उठाने की चाह है इनके मनों में। गीली माटी को मूर्ति रूप देने में, उसे सुन्दर बनाने का सन्तोष मुझे बाध्य करता है कि मैं संपादन की परिपाटी से हट कर इनका मार्गदर्शन करूँ। इन लेखकों से निरन्तर संपर्क बनाए रखूँ। यह भी सच है कि कुछ ऐसे भी नए लेखक मिलते हैं, जो फ़ेसबुक या अन्य सोशल मीडिया के माध्यमों पर वाह-वाह लूट कर भ्रमित हो जाते हैं कि उनका लेखन इतना स्तरीय है कि उनकी आलोचना करना उनके व्यक्तित्व पर आक्रमण है। यह भी देखता हूँ कि जिस रचना को मैंने या अखिल भण्डारी जी ने सुधारने की सलाह दी, लेखक ने उसे सुधारने की बजाय किसी अन्य वेबसाइट पर ज्यों की त्यों प्रकाशित करवा दिया और तथाकथित संपादक ने प्रकाशित भी कर दिया। मेरी क्या प्रतिक्रिया होगी? बस मुस्कुरा देता हूँ… और अपनी मित्र भुवनेश्वरी पाण्डे जी बात याद करके "लोगों के पास चाहे कुछ न हो पर दर्प अवश्य होता है"। इस प्रक्रिया में अगर किसीकी हानि होती है तो वह साहित्य की और हिन्दी भाषा की। विडम्बना है कि जो लोग हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध होने चाहिएँ, वही लोग एक ऐसा लेखक वर्ग बना रहे हैं, जिन्हें न तो अच्छा साहित्य समझने की उत्कंठा है और न ही भाषा को समझने-जानने की।
- सादर
सुमन कुमार घई
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