हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? भाग - ३
सुमन कुमार घईप्रिय मित्रो,
लगभग तीन महीने के अंतराल के बाद आज साहित्य कुंज को अपलोड कर रहा हूँ। कारण व्यक्तिगत स्वास्थ्य की समस्या है। ख़ैर जितना और जब भी संभव हुआ अंक आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। बहुत से मित्रों ने अंक प्रकाशित न होने के बारे में जिज्ञासा प्रकट की थी इसलिए संपादकीय के आरम्भ में यह पंक्तियाँ लिखनी उचित लगीं।
पिछले संपादकीय में बच्चे के आरम्भिक जीवन में ही उसे पुस्तकों से परिचित करवाने की बात की थी। इसके बारे में बहुत सी प्रतिक्रियाएँ मिलीं जिन्हें आप परिचर्चा में पढ़ सकते हैं। प्रतिक्रिया भेजने वाले लेखकों और पाठकों का बहुत बहुत धन्यवाद, क्योंकि आपने संपादकीय पढ़ा और मनन करने के बाद प्रतिक्रिया भेजी। इसी तरह का सहयोग अगर मिलता रहा तो अवश्य ही “परिचर्चा” में विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर बातचीत करते रहेंगे।
पिछले दिनों इंटरनेट पर बच्चों की हिन्दी की पुस्तकें ढूँढता रहा। कई प्रकाशकों की वेबसाईट्स पर गया और बाल-साहित्य की पुस्तकें खोजने का प्रयास किया जो कि टेढ़ी खीर साबित हुआ। ऐसा नहीं है कि पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं परन्तु उन्हें ढूँढना आसान नहीं है। बहुत सी पुस्तकें तो विदेशी भाषा की पुस्तकों का अनूदित रूप ही हैं या पुरानी तेनाली राम, अकबर बीरबल के कि़स्से इत्यादि शैली की पुस्तकें हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि इन पुस्तकों का महत्व नहीं है बल्कि कहना चाहता हूँ कि आधुनिक समय में लेखन के तकनीकी पक्ष और प्रकाशन की विविध विधियों, सुविधाओं के चलते, उतनी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हो रहीं जितनी कि हो सकती हैं। इस संपादकीय में ऐसा न होने के कारणों के बारे में चर्चा आरम्भ करना चाहता हूँ।
सबसे पहला कारण आर्थिक है। चाहे हम बाज़ारवाद के विरोध में कितनी भी नारेबाज़ी कर लें परन्तु जब तक लेखक बाज़ारवाद को समझ कर अपने हित के लिए अपनाना न आरम्भ नहीं कर देता, पुस्तकें नहीं बेच सकता। लेखन तीन प्रकार का हो सकता है। पहला तो पाठकों की पसंद को अनदेखा करते हुए आप केवल वह लिखें जो आप को पसन्द है। दूसरा केवल वह ही लिखें जो बिकता है और शायद इसके लिए आपको अपनी पसन्द का गला घोंटना पड़े। तीसरा मध्यमार्ग है कि वह लिखें जो पाठकों को पसन्द भी हो और आप अपने लेखन के प्रति ईमानदार भी रह सकें। इसमें कथानक, भावाभिव्यक्ति, भाषा इत्यादि महत्वपूर्ण हो जाते हैं; विशेषकर जब आप बाल साहित्य लिख रहे हैं। अन्त में बात तो पुस्तकों को बेचने की है। अगर पुस्तकें बिकेंगी नहीं तो प्रकाशक अपने लाभ के लिए केवल लेखक ही जेब हल्की करेगा।
निःशुल्क पुस्तकें वितरित करने का पक्षधर मैं नहीं हूँ। क्योंकि पुस्तक प्रकाशन तो बिना लागत के नहीं होता। फिर पुस्तकें क्यों न बिकें? एक बात और भी है कि मुफ़्त में मिली पुस्तकें केवल “बुक शेल्फ़” की शोभा ही बढ़ाती हैं। दूसरी ओर अगर कोई अपनी रुचि की पुस्तक ख़रीदता है तो निश्चित है वह उसे पढ़ेगा भी।
इसी चर्चा का अगला बिन्दु या मेरा प्रश्न है कि अगर आप अपनी पुस्तकें बेचना चाहते है तो अन्य लेखकों की आप कितनी पुस्तकें खरीदते हैं? अगर हम पाठकों की एक नई पीढ़ी तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं तो हमें बाल साहित्य की पुस्तकें खरीद कर बच्चों को भेंट में देनी चाहिएँ ताकि एक बाल साहित्य का बाज़ार पैदा हो सके, जिसमें पाठक भी पैदा हों और प्रकाशकों के लिए बाल-साहित्य को प्रकाशित और वितरित करना आर्थिक रूप से लाभकर हो जाये।
हालाँकि बहुत से विचार मन में कौंध रहे हैं परन्तु संपादकीय को यहीं विराम दे रहा हूँ, इस विश्वास के साथ कि आप इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए जीवित रखेंगे।
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
– सादर
सुमन कुमार घई
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