लाश व अन्य कहानियाँ

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सुमन कुमार घई

“अरे, यह तो कोई देसी है। देख तो पायल पहने है।”
“हाय नी! देसी ब्लाँड! ज़रूर ही आवारा है।”
“ऐंवे ही आवारा-आवारा की रट लगा रही है तू! कैसे जानती है तू कि यह आवारा है?”
“देखती नहीं तू इसके ब्लाँड बालों को। देसी औरत और ब्लाँड बाल!” पहली ने अपना तर्क दिया।
“तो क्या बाल रँगने से आवारा हो गयी वो... तू भी तो मेंहदी लगा कर लालो-परी बने घूमती है।” दूसरी ने अपने मन की रड़क को निकालने का अवसर नहीं गँवाया। अचानक ही बहस लड़ाई का रंग लेने लगी थी। अच्छा हुआ कि आदमियों की टोली आ पहुँची।
“पीछे हटो! देखने तो दो क्या हो रहा है,” एक ने अधिकारपूर्वक कहा।
“होना क्या है – तमाशा है! देसी ब्लाँड औंधी धुत्त होकर सड़क पर लेटी है।” वह अभी तक बालों के रंग पर ही अटकी थी – चटकारे लेते हुए उसने टिप्पणी कर डाली। आदमी ने झुककर पास से देखा। एक झटके से सीधा खड़ा होकर एक कदम पीछे हट गया।

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