प्यार, कितनी बार!—केवल एक उपन्यास ही नहीं, मानव जीवन में एक विकसित वृक्ष है

15-06-2023

प्यार, कितनी बार!—केवल एक उपन्यास ही नहीं, मानव जीवन में एक विकसित वृक्ष है

अनिमा दास (अंक: 231, जून द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित उपन्यास: प्यार, कितनी बार!
उपन्यासकार: प्रताप नारायण सिंह
प्रकाशक: डायमंड प्रकाशन, न्यू दिल्ली
पृष्ठ संख्या:207
मूल्य: ₹250

प्रताप नारायण सिंह इस दशक के अति लोकप्रिय उपन्यासकार हैं। जब भी ‘धनंजय’, ‘अरावली का मार्तण्ड अथवा विक्रमादित्य’ की चर्चा होती है, कथित उपन्यासकार प्रताप नारायण जी की छवि स्मृतिपट पर विदित होती है। उनकी प्रभावशाली लेखनी प्रत्येक पीढ़ी को भारतीय संस्कृति से संलिष्ट रखने का कार्य करती है। उनके उपन्यास में सृजन शिल्प की अद्भुत चारुकला परिलक्षित होती है। पौराणिक तथा ऐतिहासिक प्रसंगों पर लिखे उनके उपन्यास सदैव पाठकों को तत्कालीन स्थितियों में ऐसे सम्मोहित कर लेते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है जैसे पाठक उस समय में विचरण कर प्रत्यक्ष दृष्टा बन चुका है। यह अत्यंत सराहनीय उपक्रम है। विधिवद्ध रूप में लिखना एवं स्वयं को सम्पूर्ण भिन्न दृष्टिकोण में रखते हुए लिखना, दोनों में तो अंतर है, यह प्रतिपादित होता है प्रताप नारायण जी के सृजन में। कोई काल्पनिक विषय नहीं किंवा कोई अर्धभासित निराधार अर्थ नहीं, शुद्ध रूप में सामाजिक, सांसारिक एवं सामायिक गतिविधियों को नव्य कलेवर, नूतन विचार तथा समाधानिक विश्लेषण देना जैसे उनकी लेखनी का अद्वितीय गुण है।

आलोचित उपन्यास ‘प्यार, कितनी बार!’ सम्पूर्ण रूप से युवा पीढ़ी को केवल आकर्षित करने हेतु रचित हुआ है, यह कहना सटीक नहीं है, क्योंकि इस उपन्यास को पढ़ने के पश्चात् मुझे यह अनुभूत हुआ कि मैं उस समय में पुनः जीवित हो रही हूँ . . . जो समय व्यतीत हो चुका है।

इस उपन्यास के जो पात्र हैं वे युवा हैं, और अपने तरुण समय को अत्यंत कोमल व निश्छल मनोभाव से जी रहे हैं। लेखक ने कथानुसार उपजती प्रत्येक स्थिति को और अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु उपयुक्त दार्शनिक उक्तियों का प्रयोग किया है। पाठकों के मन में मृदुल भावों का ज्वार अवश्य उत्पन्न हो, इसका अति वैचारिक ढंग से ध्यान रखा है उपन्यासकार ने। किशोरावस्था का प्रेम कितना भावात्मक होता है . . . कैसे कल्पना में महकता है . . . यह सुंदर एवं सार्थक उक्तियों से प्रतिपादित किया है लेखक ने।

इस उपन्यास में सबसे अधिक मुझे प्रभावित किया मध्यकालीन समय से प्रारंभिक आधुनिक समय पर्यन्त की यात्रा ने। पत्र विनिमय से लेकर मोबाइल फोन, इंटरनेट तथा कंप्यूटर युग पर्यन्त की यात्रा। और इस दीर्घ समय की यात्रा में प्रेम का स्वरूप कैसे विकसित चिंताधारा में परिवर्तित हो रहा था, यह चित्रित किया है उपन्यासकार ने कई प्रसंगों की व्याख्या करते हुए। हमारा आयुवर्ग इस तीव्र परिवर्तन को अवश्य अनुभव कर पाएगा उपन्यास को पढ़ते हुए। लाल डायरी . . . प्रेम पत्र . . . प्रेम पत्र में लिखी कविता, हर्ष-आनंद, कल्पना . . .  कल्पना में मिलना . . . विच्छेद की कविता, वह दुःख, सभी प्रकार के भाव को अत्यंत प्रभावी चलचित्र सा प्रेषित किया है उपन्यासकार ने। केवल इतना ही नहीं, हास्य व्यंग्य की टिप्पणियाँ अवश्य प्रभावित करेंगी पाठकों को, और यह प्रतिक्रिया उपन्यास के शेष पृष्ठ पर्यन्त निरंतर रहेगी।

प्रेम की परिभाषा आत्मिक रूप से दैहिक एवं दैहिक से अप्रतिक्षित अपूर्ण इच्छा पर्यन्त कैसे प्रलंबित हो रही थी . . . उपन्यास का मुख्य पात्र आशीष ही बता पाएगा, जिसे एक बार नहीं कई बार प्रेम हुआ एवं होता गया। 8वर्ष आयु का प्रेम एक कोमल किंतु अनभिज्ञ आकर्षण था किंतु किशोरावस्था का प्रेम बाह्य दृष्टि में रूप लिया एवं धीरे-धीरे यह एक अपरिचित किंतु अबाध्य इच्छा में रूपांतरित हुआ। आशीष उपन्यास के शेष पृष्ठ पर्यन्त पाठकों के लिए एक नव्य प्रेम कहानी का रचयिता रहा, एक स्वाधीन प्रेम का अन्वेषी रहा। तथापि, उपन्यासकार ने एक आत्मिक एवं सामाजिक मापदंड पर मान्यता प्राप्त विशुद्ध प्रेम का निदर्शन स्वरूप स्वयं के प्रेम विवाह को पाठकों के समक्ष रखा है।

इसके अतिरिक्त, प्रताप नारायण जी की लेखनी की यह विशिष्टता है कि पाठकों के मन में . . . नूतन अनुभव को, पढ़ने की इच्छा को बाँध कर रखना, इस हेतु उन्होंने स्थान एवं स्थिति का वर्णन अत्यंत सुंदर शब्दों से किया है। जैसे, बनारस की दशाश्वमेध स्थली, तुलसी मानस मंदिर, गंगा तीर, लखनऊ, मुंबई-पुणे का जलवायु आदि का दृश्य। ये सब कुछ मानो जीवंत हो उठते हैं उपन्यास को पढ़ते समय। वैसे उपन्यासकार प्रताप नारायण जी सिद्धहस्त हैं पाठकों को अपनी लेखनी के इंद्रजाल में बद्ध करने में, चाहे उपन्यास पौराणिक हो या ऐतिहासिक या आधुनिक।

उस समय की पारिवारिक, सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा तथा जीविका का मूल्य आदि का वर्णन अत्यंत प्रभावी है। सदैव इनके उपन्यास में एक नूतन दृष्टिकोण अवश्य होता है, तो इस उपन्यास में मुझे एक ऐसा विचार मिला जो पृष्ठ 139 के शेष अनुच्छेद में उल्लेखित है। यह अत्यंत निगूढ़ सत्य है। किसी परंपरा को अथवा किसी विचार को अपनी दैनिक जीवन शैली में स्वीकार करना एक अभ्यास है, इस दार्शनिक तत्व का सुंदर एवं सटीक दृष्टांत देते हुए वर्णन किया है। क्योंकि यह एक आधुनिक लेख है, तो अंग्रेज़ी शब्द अवश्य आएँगे किंतु लेखक ने अपने पारम्परिक हिंदी लेखन के अनुसार अंग्रेज़ी वाक्यों का हिंदी में अनुवाद करते हुए उसका उल्लेख निर्दिष्ट पृष्ठ के सर्वनिम्न भाग पर किया हुआ।

प्यार, कितनी बार केवल एक उपन्यास ही नहीं, मानव जीवन में एक विकसित वृक्ष है। जिस वृक्ष में, प्रेम की कलियाँ परिपक्व तो होतीं हैं किंतु, उन्हें ध्वस्त नहीं किया जाता। प्रेम एक शब्द ही नहीं विश्वास एवं चेतना का महत्वपूर्ण आधार है। देह से पृथक . . . आत्मिक भाव से ऊर्ध्व . . . अदृश्य किंतु शाश्वत सत्य है . . . कदाचित यही संदेश देना चाहते हैं समकालीन उपन्यासकार प्रताप नारायण जी। इस उपन्यास को अजस्र पाठकीयता प्राप्त हो, यही शुभकामना है।

समीक्षक - अनिमा दास
सॉनेटियर, 
कटक, ओड़िशा

1 टिप्पणियाँ

  • 12 Jun, 2023 07:31 AM

    प्रकाशित करने हेतु हार्दिक धन्यवाद सर

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