कोणार्क—एक जीवंत गाथा 

15-01-2025

कोणार्क—एक जीवंत गाथा 

अनिमा दास (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

सौंदर्य का कोई अंत नहीं होता। इसका महत्त्व दर्शक की दृष्टि में सदैव नवीन रहता है। कोणार्क इसका ज्वलंत उदाहरण है—नित्य नूतन है कोणार्क। 

कोणार्क ओड़िशा की उत्कलीय संस्कृति, ऐतिह्य गौरव का प्रतीक है। यह विश्व के ऐतिह्य की सूची में भी अंतर्भुक्त है। अर्क क्षेत्र कोणार्क मंदिर के निर्माण के कई विशेष कारण गूढ़ तथ्य सहित लिपिबद्ध है एवं कुछ जनश्रुति में भी है। 

जीवन सृष्टि का मूल आधार है सूर्य। सृष्टि के आदिम काल से परंब्रह्म सूर्य-नारायण जीव जगत के परमाराध्य देवता के रूप में उपासित हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में सूर्य को विश्व ब्रह्माण्ड का सृष्टिकर्ता माना जाता है। भारत के पूर्व उपकूल में अवस्थित कोणार्क अति प्राचीन काल से सूर्य क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्म पुराण में कोणादित्य, शिव एवं स्कन्द पुराण में सूर्य क्षेत्र, पद्मपुराण के प्राची महात्म्य में अर्कक्षेत्र व रविक्षेत्र, भविष्य पुराण में मित्रवन, शाम्ब पुराण में मित्रवन एवं कपिल संहिता में रविक्षेत्र अथवा मैत्रेयवन के नाम से इसका महात्म्य वर्णित है। 

किंवदंती यह है कि यह मंदिर सूर्यदेव के पूजन निमित्त निर्मित हुआ था। कपिल संहिता के अनुसार मैत्रेय ऋषि की तपस्या के प्रभाव से इस क्षेत्र की उत्पत्ति हुई थी अतः इसका नाम मैत्रेयवन है। तथ्य यह भी है कि सूर्यवर्ष के बारह माह में बारह राशि हैं। इन्हीं बारह राशियों से सूर्य के बारह नामों द्वादश आदित्य के रूप में उनकी उपासना की जाती है। द्वादश आदित्य का प्रथम नाम मित्र व सूर्य की पीठस्थल के रूप में कोणार्क मित्रवन के नाम से प्रसिद्ध है। 

कोणार्क नाम में प्रथम अंश है ‘कोण’ एवं द्वितीय अंश है ‘अर्क’। इन शब्द द्वय के सम्मिश्रण से ‘कोणार्क’ शब्द की उत्पत्ति है। कोणार्क की भौगोलिक अवस्थिति के अनुसार अर्क अर्थात्‌ सूर्य का उदय एक कोण से होता प्रतीयमान होता है। 

इस क्षेत्र का महात्म्य कई प्रकार से उल्लेखित है। ग्राहजाग तत्त्व में इसका नाम पद्मक्षेत्र है। किंवदंती है कि कोणार्क मंदिर ‘पद्मतोला’ सरोवर के ऊपर निर्मित हुआ इस हेतु इसका नाम पद्मक्षेत्र है। 

प्रायः चार हज़ार वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण पुत्र शाम्ब ने कोणार्क में प्रथम सूर्य मंदिर स्थापित किया। ऐतिहासिक विवरण तथा मादला पंजी के अनुसार 870 ई.पू. में केशरी वंश के राजा पुरन्दर केशरी ने चंद्रभागा नदी के तट पर सूर्य मंदिर का निर्माण सूर्य उपासना हेतु किया था, ऐसे तथ्य भी उपलब्ध हैं। केशरी वंश के पश्चात् गंगवंशीय भी सूर्य उपासक रहे। गंगवंश के शासनकाल में उत्कल नरेश लांगुला नरसिंह देव ने त्रयोदश शताब्दी में सिंहासनारोहण किया एवं 1244 ई.पू. कोणार्क में एक सूर्य मंदिर स्थापित करने का निर्णय लिया। अर्थात्‌ त्रयोदश शताब्दी में सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ। मंत्री शिवेई सांतरा को राजा द्वारा चयनित निर्माण विभाग का दायित्व दिया गया। वह एक सुदक्ष यंत्र-विशेषज्ञ एवं वास्तुकार भी थे। उन्होंने मंदिर निर्माणार्थ योजना एवं रेखाकृति भी निर्धारित की। इस योजना की प्रस्तुति हेतु दो वर्ष व्यतीत हुए। तत्पश्चात् इस मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ हुआ। इस हेतु सागर के समीप पद्मतोला गण्ड नामक एक पुष्करिणी को भरकर उसके ऊपर मंदिर का भित्तिप्रस्थ रखा गया। यह कार्य अत्यंत दुरूह था तथापि यह कार्य कोणार्क क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी रामचंडी की कृपा से संपन्न हुआ। 

कोणार्क मंदिर के निर्माण में बारह सौ शिल्पियों की नियुक्ति हुई थी। मंदिर के रेखाचित्र के अनुसार सभी शिल्पियों को मंदिर का विभिन्न अंश आवंटित हुआ ताकि यह महत्त्वपूर्ण कार्य समयानुसार सफलता पूर्वक समाप्त हो जाए। चंद्रभागा नदी तट पर एक सौंदर्यपूर्ण विस्मयकारी भव्य मंदिर की परिकल्पना को जीवंत करने हेतु मंत्री शिवेई सांतरा एवं उनके शिल्पीगण अपने परिवार से विछिन्न होकर 12वर्ष समर्पित करने हेतु प्रतिज्ञाबद्ध हो गए। इस मंदिर के निर्माण में पाँच प्रकार के पत्थर व्यवहृत हुए। कृष्ण रंग के मुगुनी पत्थर नीलगिरि आदि सुदूर गड़जात अंचल से लाए जाते थे। इस मंदिर में व्यवहृत वृहद्‌ शिलाखंड कैसे इतनी दूर से लाए गए एवं कैसे 230 फ़ीट की ऊँचाई तक इन्हें उठाया गया इसका आकलन अत्यंत आश्चर्यजनक है। 

इसका निर्माण कौशल दर्शकों को विस्मयाभिभूत कर देता है। आज तक कई वैज्ञानिक तथा यांत्रिक विशेषज्ञ भी इसका उपाय निर्धारण करने में असमर्थ रहे हैं। 

अपने-अपने दिए गए कार्य के अनुसार शिल्पीगण ने पत्थरों पर चित्रकला एवं मूर्तियों का उत्खनन किया एवं निर्धारित समय पर मंदिर में अन्य शिल्पियों द्वारा संयोजित किया गया। एकाधिक शिल्पियों द्वारा प्रस्तुत मूर्तियों के संयोजन से निर्मित यह मंदिर उत्कलीय शिल्प पराकाष्ठा का एक ज्वलंत निदर्शन है। 

मंदिर का प्रतिष्ठा दिवस एवं तिथि का निर्धारण 1258 ई.पू. माह वैशाख व कृष्ण अष्टमी पर हुआ था, अतः तदानुसार निर्माण कार्य का शेष पर्याय उपनीत होने में तीन माह थे। तब राजा नरसिंह देव ने प्रतिष्ठा दिवस की घोषणा कर दी एवं मंत्री शिवेई सांतरा को यह सूचित भी कर दिया जो कि मंत्री जी के लिए असंभव था। राजा ने माह माघ के शुक्ल सप्तमी अर्थात्‌ विजया सप्तमी पर मंदिर की प्रतिष्ठा करने का निर्णय ले लिया। इस हेतु मंत्री शिवेई सांतरा ने अपनी असमर्थता को दर्शाकर मंत्री पद एवं मंदिर निर्माण के दायित्व से स्वयं को मुक्त कर दिया। परन्तु राजा नरसिंह देव अपने निर्णय पर अटल रहे एवं अन्य राज्य से किसी विशिष्ट स्थपति के द्वारा यह कार्य संपूर्ण कर दिया। किन्तु मंदिर के पूर्ण निर्माण में एक बाधा आई। वे इसका कलश पत्थर चढ़ा पाने में असमर्थ रहे। राजा का आदेश था कि सूर्योदय के पूर्व मंदिर का निर्माण कार्य समाप्त हो जाए अन्यथा 1200 शिल्पियों का शिरोच्छेदन किया जाएगा। 

शिल्पियों का जो मुख्य था उनका नाम था विशु महारणा। कोणार्क मंदिर के निर्माण हेतु जब वे गृहत्यागकर आए थे उनका पुत्र धर्मपद मातृगर्भ में था। 12वर्ष के पश्चात् वह अपने पिता से मिलने कोणार्क आया। जब राजा के आदेशानुसार शिल्पियों ने निराश होकर जीवन की आशा त्याग दी थी। तभी धर्मपद अपना परिचय देते हुए समस्त घटनाक्रम से अवगत हुआ एवं समस्त शिल्पियों की प्राणरक्षा हेतु वचनबद्ध हुआ। उसने बाल्यावस्था में ही अपने गृह में संगृहीत शिल्प शास्त्र का अध्ययन कर लिया था एवं उपयुक्त समय पर इसका प्रयोग भी किया। उसने मंदिर निर्माण के समस्त विवरण अपने पिता से प्राप्त किया एवं शास्त्रालोचना के पश्चात् एक सूत्र का आविष्कार किया। तदानुसार उसने विशालकाय मंदिर पर मुकुट कलश की स्थापना की परन्तु शिल्पियों के आत्मस्वाभिमान की रक्षा करते हुए धर्मपद ने मंदिर से ही नदी गर्भ में कूदकर प्राणत्याग दिया जिससे शिल्पीगण की सुरक्षा सुनिश्चित हुई। इस प्रकार मंदिर का निर्माण कार्य समाप्त हुआ जो मैंने इस आलेख में संक्षिप्त विवरण देते हुए उल्लेख किया है। 

कोणार्क मंदिर की आकृति सूर्यरथ सी है। ऋग संहिता में उल्लेखित है कि '*रथस्थं भाष्करं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते'। अर्थात्‌्‌ रथारूढ़ सूर्य के दर्शन से मनुष्य को पुनर्जन्म से मुक्ति प्राप्त होती है। अतएव कोणार्क में सूर्यनारायण का मंदिर सूर्यरथ के आकार में निर्मित हुआ है एवं यह भक्तों के लिए मंगलप्रद है। कोणार्क मंदिर अर्थात्‌ सूर्यरथ में 24 चक्र (पहिये) एवं सात अश्व संयोजित हैं। चक्र के प्रत्येक अंश सूक्ष्म शिल्पकला से परिपूर्ण है। इनमें भगवान विष्णु के विभिन्न अवतार, विभिन्न देवी देवताओं, गजलक्ष्मी, गजारोही, अश्वारोही, अनेक मुद्राओं में विदित सुंदरी कन्या एवं नर्तकी, गंधर्व, किन्नर, देव उपासना, शयन पलंग आदि का अनन्य दृश्य खोदे हुए हैं जो उत्कलीय कला स्थापत्य के विशिष्ट महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। 

इन चक्रों की अवस्थिति दर्शकों के मन में अनेक चिंताधाराओं को जन्म देती है। ये समस्त चक्र साधारण नहीं हैं॥इनमें खुदी हुई प्रत्येक छवि, मूर्तियों अथवा दृश्यों में मनुष्य जीवन का जन्म-मृत्यु का सृष्टि चक्र॥काल चक्र है। ये चक्र निर्जीव नहीं सदैव जीवंत प्रतीत होते हैं। 

इस मंदिर के निर्माण में एक और विशेषता भी थी कि शिल्पकारों ने मुख्य मंदिर, मुखशाला, पूजा मंडप एवं प्रांगण के पूर्व द्वार पर स्थित मंदिर को एक सरलरेखा पर निर्मित किया था, जिससे प्रतिदिन प्रभात की प्रथम सूर्यरश्मि उपर्युक्त मंदिरों के माध्यम से मुख्य मंदिर में स्थित सिंहासन पर विराजित सूर्यदेव के मस्तक को स्पर्श करती थी। 

यह भी उल्लेखित है कि मुख्य मंदिर में एक वर्त्तुलाकार लौह पिंड, मंदिर के ऊपर स्थापित विराट चुम्बक के प्रभाव से शून्य में दोलायमान अवस्था में था। उदयकालीन सूर्यकिरण जब इस लौह पिंड को स्पर्श करती थी, इससे एक प्रकार का उज्ज्वल प्रकाश विखर जाता था एवं सिंहासन पर विराजित सूर्य नारायण की मूर्ति पर परिलक्षित होता था। 

प्राचीन काल से कोणार्क सूर्यक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। परवर्ती काल में यह एक वाणिज्य केंद्र में परिणित हुआ एवं कुछ समय के लिए राज्य की राजधानी भी था। इसी कारण, कोणार्क एक समृद्ध नगरी में परिणित हुआ। 
इसके पतन के कई कारण हैं। उनमें से एक कारण यह है कि मंदिर के ऊपर दोलायमान विशालकाय शक्तिशाली चुम्बक। जिसके आकर्षण से समुद्रगामी जहाज़ तट पर दिशा परिवर्तन कर टकरा जाते थे, जिससे बहुत क्षति होती थी। मुग़ल शासन के समय, मुसलमान नाविक निरापद जलयात्रा हेतु इस चुम्बक को निकालकर ले गए। जिस चुम्बक के कारण मंदिर के पत्थरों में सुदृढ़ संतुलन था, वह संतुलन नहीं रहा एवं क्रमशः मंदिर के शरीर से एक-एक करके पत्थर सरकने लगे। इसी कारण पूजकगण सूर्यनारायण मूर्ति को पुरी ले गए एवं मंदिर परित्यक्त अवस्था में चला गया। इतिहास यह भी कहता है कि मुग़ल सुलेमान कालापहाड़ ने ओड़िशा पर आक्रमण किया एवं इस युद्ध में तत्कालीन राजा मुकुंद देव निहत हुए। तभी कालापहाड़ ने कोणार्क सहित कई मंदिरों को ध्वस्त किया। 

1609 ई.पू. में मंदिर के ध्वजपद्म के ध्वस्त होने के कारण मंदिर क्रमशः टूटने लगा। मंदिर में पूजा नीति बाधित होने के कारण लगभग 200 वर्ष पर्यंत परित्यक्त अवस्था में रहा। अन्य कई कारण भी उल्लेखित हैं। 

कोणार्क का स्थापत्य एवं शिल्पकला समग्र विश्व में अद्वितीय है। इसके पत्थरों में खोदी गयी सूक्ष्मकला एवं मंदिर निर्माण की प्रणाली अतुलनीय है। प्रत्येक शिलाखंड में तत्कालीन उत्कलीय कलाभास्कर्य का नैपुण्य दृष्ट होता है। डॉ. मायाधर मानसिंह कहते हैं कि 'कोणार्क वास्तविक रूप में हमारे राष्ट्रीय इतिहास का एक महाकाव्य है। '

कोणार्क का मुख्य मंदिर संपूर्णरूप से ध्वस्त हो चुका है। मुखशाला का कलश भी नहीं है। नाट मंदिर एवं माया देवी मंदिर भी अर्धभग्न अवस्था में श्वास ले रहें हैं। मंदिर के प्रांगण में स्थित अन्यान्य मंदिर व मूर्ति भी भग्नावस्था में हैं। तथापि इन भग्नावशेष का सूक्ष्म चारुकार्य व स्थापत्य कला आधुनिक जगत को मुग्धानुभूति प्रदान करते हैं। कारण यह है कि इस आधुनिक युग में कोणार्क मंदिर सा एक और मंदिर निर्माण करना असंभव है। इसके निर्माण कौशल एवं शिल्पकला को देखते हुए यह प्रतीत होता है कि इस कार्य में नियुक्त बारह सौ शिल्पकार शिल्पशास्त्र में अत्यंत पारंगत थे। 

उत्कल एक महान राज्य है। विभिन्न कला, संस्कृति, शिक्षा, दीक्षा एवं कर्म नैपुण्य तथा हस्त नैपुण्य में इसकी पारदर्शिता ने युगों युगों पर्यंत देश विदेश में ख्याति लाभ किया। शिल्प कला एवं वाणिज्य में भी सुदृढ़ था। प्राचीन काल में कोणार्क की चंद्रभागा केवल एक पुण्य तीर्थ नहीं था एक बंदरगाह भी था। 

कोणार्क मंदिर में पद्मपुष्प की आकृति भी दृष्टि आकर्षित करती है। आधुनिक युग में कोणार्क एक श्रेष्ठ कृति के रूप में प्रख्यात है। कोणार्क पत्थरों का एक स्वप्न सा प्रतीत होता है। मनुष्य के समस्त भाव इन पत्थरों के समक्ष पराजित होते हैं। प्रत्येक पत्थर की अपनी कथा है जो एक साधारण मनुष्य के लिए असंभव है, इसकी भाषा भी अपरिभाषित है। इसमें लुप्त उन शिल्पकारों का त्याग एवं कर्मनिष्ठा तथा वर्षों की पीड़ा, अश्रु, लहू की भाषा व ध्वनि सबकुछ इन पत्थरों को स्पर्श करते ही अनुभव होता है। 
उत्कल के सॉनेट सम्राट गिरिजा कुमार बलियारसिंह ने सॉनेट ‘चंद्रभागा’ में कोणार्क की आत्मध्वनि को शब्दों में जीवित रखा है। इस सॉनेट को हिंदी में अनुवाद करते हुए मेरे दृगों से भी अश्रुसरिता बह आई: 

इतनी थी पीड़ा इन पत्थरों के जीर्ण-शीर्ण कपाल में? 
क्या इन नील लहरों के . . . पत्र को होना था निश्चिह्न? 
क्या तुम व्यथित हो कुमुद? शीकर में? मेरे शून्यकाल में 
करो प्रतिज्ञा तुम नहीं होगी कदापि व्यथित व खिन्न। 
 
किसने किया कृष्ण अक्षरों से कज्जल को किंवदंती, 
भिन्न भिन्न भंगिमाओं में इतिहास होता रहा पाषाण 
ऐ यक्षवधू, करो आलिंगन वक्ष से तुम्हारे, ऐ रूपवती 
नहीं माँगता मैं तुम्हें माघ के मंत्रपूत सप्तमी का स्नान। 
 
करो अनुक्षण, ऐ चंद्रभागा, इस चतुर्दशी चंद्रछाया में 
हो समाप्त मेरी तृषा॥देखो हो रही शेष हरित संध्या 
कुछ न कहो . . . मेरे कोणार्क की करुण काया में—
उत्कीर्णित कलंकित कौमार्य की, क्रंदित चारुकला। 
 
रहो शरशय्या पर, षोडश-सहस्र सी॥सुकुमारी स्मृति 
न आए चेतन में कभी अतीत की यह आश्चर्य आकृति। 

उत्कलीय कवि त्रिनाथ सिंह की ‘कोणार्क’ कविता में भी उन मुगुनी शिला खंडों की कथा, सिक्त भाव . . . शिल्पकारों के ऊष्म व शीतल शरीर का स्पर्श अनुभूत होता है . . . अव्यक्त शब्दों की अंतर्ध्वनि भी हमारे मन को सिक्त करती है। इस कविता का भावानुवाद अवश्य देखिए . . . 

नितांत वृद्ध व्यक्ति सा 
श्मश्रुपूर्ण मुख लिए 
अत्यंत जीर्ण 
प्रतीत हो रहा था 
कोणार्क॥
नट-नटी मूर्तियों में 
स्पंदित . . . बारहशत 
शिल्पकारों के 
वक्ष में रुद्ध 
ऊर्ध्वश्वास॥
 
दिया मैंने 
कोमल स्पर्श 
उस शीकर स्निग्ध 
कोणार्क की काया को॥
आह! अनुभूत हुई 
मुझे सहस्र वर्षों से 
उनकी लुप्त-देह की सुगंध॥
 
मेरे तिमिराच्छन्न हृदय में 
जैसे हो रहे थे ध्वनित 
ठुक-ठुक . . . ठुक-ठुक 
उनके निहानी व पत्थरों के 
विस्मृत शब्द॥
 
हाँ, नितांत वृद्ध व्यक्ति सा 
श्मश्रुपूर्ण मुख लिए 
अत्यंत जीर्ण 
प्रतीत हो रहा था 
कोणार्क॥
 
कम्पित अधरों पर थी 
अम्लान-दृप्त स्मिता 
शुष्क चक्षुविवर में 
चमकती अश्रु बूँद॥
व करुण मुमुक्षा . . . 
 
कोणार्क . . . 
आह! कोणार्क . . .! 

(यह सम्पूर्ण आलेख में दिए गए समस्त विवरण ओड़िशा के सुप्रतिष्ठित पर्यटन लेखक श्री बलराम मिश्र की पुस्तक ‘सूर्यक्षेत्र-कोणार्क’ से लिए गए हैं)

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