प्रश्न
अनिमा दास
(सॉनेट)
न करो प्रश्न जीर्ण शाखाओं से, मुक्त झरता उस मौन सुमन से
किस दिशा से चला था पवन, किस दिशा में उड़ी थी इच्छाएँ
न करो प्रश्न उन शृंग को जिन्हें कर स्पर्श, मेघ बरसता गगन से
कैसे अपनी घनीभूत पीड़ाओं से बहा रहा था वह अनिच्छाएँ।
न प्रश्न करो कि कैसे ज्वालमुखी सी मैं जली थी निर्मम धूप में
मरीचिका का अस्तित्व एवं दीर्घ परछाईंं की काया, वह मैं थी
मैं थी वह ऋतु जो बारंबार, आती रही थी मल्लिका के रूप में
शुष्क तप्त मृदा में शून्यता की जो प्रलंबित छाया . . . वह मैं थी।
यह प्रश्न कैसा मेघों के प्रेमपाश से उन्मुक्त . . . उस मेघप्रिया से?
क्यों नष्ट होती खिन्नता की अग्नि में साथ लिए सारे अविश्वास
मैं थी वह सांत्वना जो . . . पृथक हो गई निर्दय जीवन क्रिया से
यज्ञकुंड की समस्त . . . आशाओं से उठा धुआँ, नीरव रहा श्वास।
मैं थी तुममें विलीन . . . पूर्ण द्रवीभूत थी एकात्म की अनंतता में
प्रश्न अशेष थे शिलाओं के गर्भ में . . . उनकी अस्पृश्य रिक्तता में।
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