प्रत्यंत
अनिमा दास
(सॉनेट)
मोहवश मैंने कहा, ऐ नीड़ हो जाओ अदृश्य
क्षण में ही शून्य हुआ ग्रह-विग्रह . . समग्र अंतरिक्ष
क्षुब्ध हो कहा मैंने, मेरी एकाकी अभीप्सा रहे अस्पृश्य
सर्ग से निसर्ग पर्यंत लंबित, हो जाए तिक्तता का वृक्ष,
सम्भव हुआ अकस्मात्। विक्षिप्त उल्काओं की वृष्टि,
स्तंभित आत्मा की आर्तध्वनि, नीलवर्ण में हुई द्रवित।
व्यासिद्ध अंतरीप की पूर्व दिशा में थी उसकी दृष्टि
चीत्कार! चीत्कार! अनाहूत पीड़ाओं में अद्य स्वरित
वह समस्त अभियाचनाएँ हुईं जीवित . . तत्क्षणात्
वह नहीं हुआ सम्भव . .देह की सुगंध में था गरल
वारिदों के घोर निनाद में लुप्त हुआ था क्रंदन स्यात्
समग्रता का एक अंश क्या था . . स्थल अथवा जल?
मैं शून्य की मंदाकिनी . . किन्तु अप्राप्ति की तृष्णा अनंत
कहाँ है आदि-अंत की वह अदिष्ट ज्यामितिक प्रत्यंत?
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