प्रेम पर्व (सॉनेट-38)
अनिमा दास
यह लालिमा जो मुखमंडल पर छाई है
हूँ अचंभित कहाँ से यह गमक आई है!
कहीं उस मंदर पर निरभ्र नभ तो नहीं
अंकित करता ऐन्द्रजालिक नगर कहीं,
जहाँ मैं हूँ . . . तुम हो . . . किन्तु है पूर्ण दूरत्व
मधु में द्रवीभूत . . . अल्प-अल्प लवणत्व
मृगतृष्णिका सी है . . . किन्तु है संभावित
दर्पण में होता एक स्वप्न भी प्रतिबिंबित।
अक्षरों से नादित इस प्रणय ध्वनि को
करती हूँ आत्मबद्ध। इस में भी तुम हो
लीन-विलीन . . . लुप्त-विलुप्त भावनाएँ
मेरी शून्यता में भरती तुम्हारी अल्पनाएँ।
प्रियतम! कुंज-निकुंज सा यह हरित मन
तुम पतत्रि-मैं मेघ, तथापि वह्निमय है वन।
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