नारी मैं: तू नारायणी
अनिमा दास
(सॉनेट)
मृणा से मृण्मयी तू मैं क्यों किन्तु सद्यः सतेज अभिमानिनी?
तू दर्प दमन करती दामिनी किन्तु मैं केवल कामिनी?
मातृ रूपेण संस्थिता तू किन्तु मैं बनी अर्वाचीन गांधारी
स्नेहमयी महामाया तू किन्तु क्यों मैं पुत्र मोह में अहंकारी?
वन है करता अग्निस्नान, मिथ्या की शिखा उग्र उद्दंड
नारी नाम मात्र नारी रूपेण संस्थिता, किन्तु भोग करता चंड
क्यों!! क्यों स्वाभिमान की कर हत्या बना पुरुष सर्वेश्वर?
इस मरीचिका सी वासना में रुद्ध हो रहा है आत्मिक स्वर।
तू दिव्य ज्योति सी प्रखर प्रदीप्त, मैं तमस की क्यों प्रतिछाया?
मुझमें मृदा की है आर्द्रता . . . किन्तु नहीं है भिन्न दैहिक माया
शक्ति रूपेण संस्थिता तू, क्यों मैं रंगमहल की लास्या सी?
अनन्या विश्वरूपा तू, हूँ मैं क्यों अश्रुबूँद बद्ध क्रोंच की?
तू वामांगी॥तू भूमा-भवानी॥नर में वासित नारायणी
कहो, शिवांगी! क्यों भ्रम-मग्न तट पर है जीवन-तरणी?
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