कलंक भी है सौंदर्य
अनिमा दास
(सॉनेट)
मंजुरिम सांध्य कुसुम . . . मधुर ज्योत्स्ना में है दीर्घ प्रतीक्षा
तुम्हारा आगमन एक भ्रमित कामना मात्र लेती है परीक्षा
दृगंचल में शायित इच्छा . . . व इच्छा में है अनन्य अभिसार
कल्पना ही कल्पना है . . . हाय! वर्णिका में है यह अभ्याहार।
अस्ताचल की अरुणिमा में . . . मंत्रमुग्ध सा यह मुखमंडल
कृत्रिम क्रोध से स्पंदित हृदय में जैसे नव प्रणय पुष्पदल
द्वार से द्वारिका पर्यंत है कृष्णछाया, हाँ! क्यों कहो न?
ऐ! लास्य-लतिका, ऐ! मानिनी मदना, शून्य में बहो न।
कलंक भी सौंदर्य है . . . यह कहा था मुझे सुनयना ने कभी
सौम्य-मृदु अधरों से छद्म-शब्दों का मधु झर गया तभी
देहान्वेषी ने उसके अंगों का अग्नि से किया था अभिषेक
तथापि निरुत्तर प्रतिमा में शेष नहीं था मुक्ति का अतिरेक।
स्वप्नाविष्ट प्रकृति, अद्य अंतर्मुखी विवेचना में है पुनः संध्या
तिक्त वासना में है चीत्कार करती क्यों शताब्दी की बंध्या?
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