व्यथित भारती
अनिमा दास
(सॉनेट)
वह अतीत भी रक्तिम था यह समय भी रक्तिम होगा
वर्तमान के वस्त्र में एक भविष्य भी रहेगा भयभीत
सिंदूरी मृण में तल्लीन होता श्वास यदि अंतिम होगा
क्यों स्वर्ग की प्रतीक्षा में नित्य, है मौन हृदय-प्रमीत?
जल में थल को लीन होते करती हूँ सदा निरीक्षण
अनाहूत सी रश्मि मैं, होती संकुचित अशुद्ध वायु में
न होती परिपूर्ण अतिमित अभीप्सा एवं प्रतीक्षण
मैं रहती अस्पृश्य व प्रलंबित देह की रिक्त स्नायु में।
जिसकी सीमा उदीची हिमगिरि में होती उदासीन
जिसकी वेदना होती दक्षिण गह्वर की भित्ति प्रस्थ
क्यों आज यह म्लान, उन्मत्त, उन्मादन में है आसीन
क्या यह भारतवर्ष नहीं है मेरे कुमानस में गर्भस्थ?
मैं समय सीमांत की स्वर्णिम भारती! चाहूँ होना मुक्त
भ्रष्टाचार से निपीत काल से मैं, हो जाऊँ आज उन्मुक्त।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ऐतिहासिक
- कविता
-
- उक्त-अनुक्त
- कलंक भी है सौंदर्य
- कलंक भी है सौंदर्य
- नर्तकी
- नारी मैं: तू नारायणी
- पद्म प्रतिमा
- पीड़ा पर्व (सॉनेट 23)
- प्रश्न
- प्रेम पर्व (सॉनेट-26)
- प्रेम पर्व (सॉनेट-30)
- प्रेम पर्व (सॉनेट-38)
- मनोकामना
- मुक्ति (सॉनेट)
- मृत्यु कलिका
- मृत्यु कलिका (सॉनेट-23)
- मृत्यु कलिका – 01
- मृत्यु कलिका-सॉनेट 1
- मृत्यु कलिका-सॉनेट 2
- मेघ मल्हार
- वर्षा
- व्यथा का शृंगार
- व्यथित भारती
- व्याकरण
- स्त्री का स्वर
- स्वतंत्रता
- स्वप्नकुमारी
- हंसदेह
- पुस्तक समीक्षा
- विडियो
-
- ऑडियो
-