क्लांति
अनिमा दास
(सॉनेट)
इस तृष्णा से तुम हो क्यों अपरिचित
इस अग्नि से तुम हो क्यों अवरोधित
मेरे शून्य महाग्रह का यह तृतीय प्रहर
है मौन विभावरी का यह शेष अध्वर
इस क्षुधा से भी तुम हो ऐसे अज्ञात
इस श्रावण से हो तुम जैसे प्रतिस्नात
मेरी परिधि में नहीं अद्य उत्तर तुम्हारा
मेरे परिपथ पर नहीं कोई शुक्रतारा।
इस एकांत महाद्वीप पर है ग्रीष्मकाल
भस्मसात निशा . . . व पीड़ा-द्रुम विशाल
समग्र सत्व है निरर्थक . . . अति असहाय
मृत-जीवंत, स्थावर-जंगम सभी निरुपाय
इस अंतहीन मध्याह्न की नहीं है श्रांति
ऊषा के दृगों से क्षरित अश्रुधौत क्लांति।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- उक्त-अनुक्त
- कलंक भी है सौंदर्य
- कलंक भी है सौंदर्य
- क्लांति
- क्षण भर वसंत
- नर्तकी
- नारी मैं: तू नारायणी
- पद्म प्रतिमा
- पीड़ा पर्व (सॉनेट 23)
- प्रत्यंत
- प्रश्न
- प्रेम पर्व (सॉनेट-26)
- प्रेम पर्व (सॉनेट-30)
- प्रेम पर्व (सॉनेट-38)
- मनोकामना
- मुक्ति (सॉनेट)
- मृत्यु कलिका
- मृत्यु कलिका (सॉनेट-23)
- मृत्यु कलिका – 01
- मृत्यु कलिका-सॉनेट 1
- मृत्यु कलिका-सॉनेट 2
- मेघ मल्हार
- मोहनीय प्रेम
- वर्षा
- व्यथा का शृंगार
- व्यथित भारती
- व्याकरण
- स्त्री का स्वर
- स्वतंत्रता
- स्वप्नकुमारी
- हंसदेह
- साहित्यिक आलेख
- ऐतिहासिक
- पुस्तक समीक्षा
- विडियो
-
- ऑडियो
-