मृत्यु कलिका
अनिमा दास
(सॉनेट)
मैं अर्ध रात्रि की मौनता में रुदन करती हूँ
ऊषा की कोमल किरणों में अश्रु भरती हूँ
सिराओं को दैहिक उत्ताप से कर वाष्पित
विस्मृत करती हूँ अनेक शब्द अपरिचित।
सरिसृप सा जीवन चलता रहा मंदर पर्यंत
रौद्र में जर्जर . . . श्रावण में बहा नीर अत्यंत
अस्त होता रहा नित्य परिवाद में वह स्वप्न
जो दृगंबु में झर गया, शेष था प्रथित प्रश्न।
निरुत्तर समाधि के पुष्प भी युगों से नीरव
कौन कहेगा कथा इनकी . . . क्या था जनरव
मैं भी मौन हो जाऊँगी . . . मौन होगा विषाद
कल न होगा ऐ, मृत्यु कलिका! यह दुर्वाद।
आ, लेकर आ! मृत्यु कलिका संध्या प्रदीप
तू भी रहेगी शृंगार में . . . मैं भी रहूँगी समीप।
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