खीझ

नरेंद्र श्रीवास्तव (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

मोबाइल की घंटी बजी। उमेश जी का फोन था। उनके हैलो के प्रत्युत्तर में उमेश जी बोले, “एक साझा संग्रह निकाल रहे हैं। प्रत्येक रचनाकार के लिए दो पेज रहेंगे। एक पेज पर जीवन परिचय, फोटो सहित और दूसरे पेज पर रचना। 800₹ सहयोग राशि है। मैंने आपको सम्मिलित कर लिया है। शीघ्र ही कोई एक रचना, जीवन परिचय फोटो सहित व्हाट्सएप कर दो और मेरे इसी नंबर पर 800₹फोन पे कर दो।”

वे कुछ कह पाते कि उन्होंने फोन काट दिया। वे गंभीर हो गए। तभी कालबेल बजी। गेट खोला तो गली के कुछ बच्चे थे। फ़ौरन बोले, “दादा जी, गणेशोत्सव मना रहे हैं। चंदा दे दीजिए।” कहते हुए एक बच्चे ने रसीद बुक बढ़ा दी। 

बड़ी मुश्किल से 201₹ पर राज़ी हुए। 

दोपहर के दो बजने वाले थे। स्कूल बस से नातिन के आने का समय हो रहा था। वे नातिन को लेने घर के पास वाली गली की ओर चल दिए। नातिन बस से उतरते ही बोली, “दादा जी, कल मैडम ने 100 ₹ मँगाए हैं। स्कूल में फ़ंक्शन हो रहा है।”

“अच्छा बेटी। ज़रूर मुझसे ले जाना।”

वे नातिन को लेकर घर पहुँच ही रहे थे कि उनके मोबाइल पर मैसेज आया—आपका नेट परसों समाप्त हो रहा है। असुविधा से बचने हेतु आज ही रिचार्ज करा लें। 

उन्होंने मैसेज पढ़ा और जेब में रखा ही था कि एक भिखारी आकर खड़ा हो गया। कहने लगा, “साहब जी, मिल जाए कुछ।”

वे खीझ गए परन्तु बोले कुछ नहीं और आगे बढ़ गए। 

रास्ते में मेडिकल स्टोर्स देखकर उन्हें याद आया। उनकी बी.पी. की गोली ख़त्म हो गईं हैं। अतः उन्होंने एक पत्ता गोली ख़रीद लीं। 

आज दिनभर से रुपये . . . रुपये की माँग सुन-सुनकर वे मन ही मन खिसियाते हुए बोले—बस, जान ही निकलना बाक़ी है। 

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